NCERT कक्षा 12वी जीवविज्ञान अध्याय - 01 जीवों में जनन संपूर्ण महत्वपूर्ण नोट्स का अध्ययन || NCERT CLASS 12TH BIOLOGY CHAPTER 01 ALL TOTAL IMPORTANT TOPICS IN HINDI By ULTIMATE STUDY SUPPORT

NCERT कक्षा 12वी जीवविज्ञान अध्याय - 01 जीवों में जनन संपूर्ण महत्वपूर्ण नोट्स का अध्ययन || NCERT CLASS 12TH BIOLOGY CHAPTER 01 ALL TOTAL IMPORTANT TOPICS IN HINDI BY ULTIMATE STUDY SUPPORT








 


जीवन- अवधि:- किसी जीव के जन्म को लेकर प्राकृतिक मृत्यु की अवधि को जीवन अवधि कहते है।


किसी जीव की जीवन अवधि का उसके आकार से कोई सम्बद्ध नहीं होता है जैसे:-


फसली पादप(Cropped crop) – 4-6 माह


गुलाब (Rose) – 10 वर्ष


केला(banana) – 25 वर्ष


बरगद(Banyan) – 300-500 वर्ष


मनुष्य (humans) :- 100 वर्ष


तोता (Parrot) :- 150 वर्ष


मगरमच्छ(crocodile) :- 55 वर्ष


कछुआ (tortoise) :- 150 वर्ष


व्हेल(Whale) :- 40 वर्ष


हाथी(elephant) :- 75 वर्ष


बिल्ली(cat) :- 40 वर्ष


खरगोश(rabbit) :- 35 वर्ष


घोडा(Horse) :- 50 वर्ष


कबूतर (pigeon) :- 35 वर्ष


गाय(cattle) :- 26 वर्ष


कौआ(Crow) : – 15 वर्ष


शेर चीता, साँप, ऊँट तितली(Lion cheetah, snake, camel butterfly):- 10-15 दिन


केंचुआ(Earthworm) :- 6 वर्ष


कॉकरोच(Cockroach) :- 1/2 वर्ष


घरेलू मक्खी(Domestic fly) :- 76 वर्ष


जनन(reproduction):-


प्रत्येक जीव अपने समान ही नया जीव संतति उत्पन्न करता है इस क्रिया को जनन कहते है। जनन के द्वारा पीढियों में निरन्तरता बनी रहती है तथा किसी जीव की मृत्यु होने पर भी उसकी जाति का असितत्व बना सकता है।


जनन के प्रकार (types of reproduction) :


अलैंगिक जनन


लैंगिक जनन


अलैंगिक जनन(Asexual reproduction) : वह जनन जिसमे दो जीवो की भागीदारी नहीं होती , इसमें एक जीव द्वारा ही संतान उत्पत्ति संभव हैं , अलैंगिक जनन कई प्रकार की विधियों द्वारा होता हैं। इसमें उत्पन्न संतति पैरेंट के समान होगी अर्थात अनुवांशिक रूप से समान होगी।


लैंगिक जनन(Sexual reproduction) : इसमें दो भिन्न जीवों की भागीदारी आवश्यक है। इसमें नर तथा मादा दो भिन्न जीवो के सहयोग या मिलने से संतति का निर्माण होता है अर्थात यह अनुवांशिक रूप से भिन्न होती है इसे लैंगिक जनन कहते है।


अलैंगिक जनन(asexual reproduction):- 


प्रत्येक जीव के जीवन का प्रारंभ एक कोशिका से होता है यदि यह एक कोशिका एक ही जनक द्वारा प्रदान की गई तो इसे अलैगिक जनन कहते है।


अलैगिक जनन में बनी संतति आपस मेंतथा जनको से समान रखती है।


अलैगिक जनन में बनी संतति आपस में आकारिकी एवं आनुवाँशिक रूप से आपस में तथा जनकों के समरूप होती है अतः इन्हें क्लोन कहते है।


अलैंगिक जलल के प्रकार(types of asexual reproduction):-


अलैगिक जनन निम्न प्रकार से होता है।


1 सामान्य कोशिका विभाजन द्वारा:- प्रोटिस्टा , योनेरा


2 विखण्डन:- अमीबा, पेरामिसियम, युग्लीना


3 मुकुलन/कलिका अतिवृद्धि, असमान विभाजन:- यीस्ट ,हाइड्रा


4 अलैगिक बीजाणु द्वारा सूक्ष्मदर्शीय जूरूपोर्स:- कवक एवं कुछ शैवाल जैसे:- क्लेमाइडोमोनास


5 केनिडिया द्वारा:- पेनिसिलियम


6 जेम्यूल:- स्पंज


कायिक जनन (plant reproduction):- 


पादपों में क्रामिक भागों जैसे:- जड, तलना, पत्ती, नदी के साथ होने वाले जनन को क्रारमिक जनन कहते है।


कायिक जनन में भाग लेनी वाली संरचना को कायिक प्रवर्ध्य (प्रोपेग्यूल ) कहते है।


कायिक जनन एक प्रकार का अलैगिक जनन है। तथा इससे बनी संतति को क्लोन(Clone) भी कह सकते है।


 कायिक जनन के प्रकार(types of plant reproduction):-


कायिक जनन प्राकृतिक रूप से होता है किन्तु कृत्रिम रूप से कायिक जनन कराया जा सकता है।


कायिक जनन:-


1- प्राकृतिक(Natural)


2- कृत्रिम(Artificial)


जड


शीशम , सीरस , मुराया ,शकरकंद , एस्पेरेगस


तना


भूमिगत , अर्धवायवीय , वायवीय


पर्ण


पत्त प्रकंद (बुलबिल)


भूमिगत


कंद – पर्णसंधि द्वारा (आरव) , आलू


प्रकंद – अदरक , केला


शकंद – प्याज


धनकंद – अरबी


अर्धवायवीय


उपरिभुस्तरी – दूब घास


अन्तः भुस्तरी – पोदीना


भूस्तरी – एक्ट्राबेरी


भूस्तारिका


जलकुम्भी


वायवीय


गन्ना


पर्ण (Foil) –


पत्थरचट्टा (अपस्थानिक कलिका )


बिगोनिया


पत्त प्रकन्द (Leaf rhizome)-


अगेब


लिलियम


डायोस्कोरिया


कायिक जनन (vegetative reproduction in plants in hindi) : पौधों में जनन मुख्य रूप से दो विधियों – लैंगिक और अलैंगिक द्वारा होता है। लैंगिक जनन में युग्मकों के संलयन द्वारा नयी जीनी संरचना वाली संतति उत्पन्न होती है जबकि अलैंगिक जनन में युग्मकों का संलयन हुए बिना ही नयी संतति उत्पन्न होती है। अलैंगिक जनन में चूँकि युग्मकों का संलयन नहीं होता है इसलिए उत्पन्न संतति जनक पादपों के समान होती है। अलैंगिक जनन दो प्रकार का होता है –


1. अनिषेकबीजता (agamospermy) : इस जनन प्रक्रिया में बीजों का निर्माण होता है , लेकिन युग्मकों का संलयन नहीं होता है।


2. कायिक जनन (vegetative reproduction) : इस जनन में पादप के कायिक भागों द्वारा नए पादप का निर्माण होता है।


वह प्रक्रिया जिसके अंतर्गत पादप शरीर का कोई भाग पृथक होकर , नए स्वतंत्र पादप के रूप में पुनर्जनन या विकसित होता है , कायिक जनन कहलाती है।


इस प्रकार की जनन प्रक्रिया आवृतबीजी पौधों में बहुतायत से पायी जाती है और मनुष्य द्वारा इसका अत्यधिक उपयोग , इच्छित किस्म के पौधे को प्राप्त करने के लिए किया जाता है। कायिक जनन के परिणामस्वरूप पौधों की संख्या में बढ़ोतरी होती है इसलिए सामान्यतया इस प्रक्रिया को कायिक गुणन या कायिक प्रवर्धन भी कहा जाता है। कायिक प्रवर्धन की प्रक्रिया को दो वर्गों में बाँटा गया है –


I. प्राकृतिक कायिक प्रवर्धन (natural vegetative propagation)


II. कृत्रिम कायिक प्रवर्धन (artificial vegetative propagation)


I. प्राकृतिक कायिक प्रवर्धन (natural vegetative propagation) : अनेक शाकीय और काष्ठीय बहुवर्षी पौधे प्राकृतिक रूप से कायिक प्रवर्धन करते है। इनकी सामान्य कायिक संरचनाएँ जैसे – जड़ , तना , पत्तियाँ और कलिकाएँ आदि रूपान्तरित होकर इस प्रक्रिया में भाग लेती है। इनके कुछ प्रमुख उदाहरण निम्नलिखित प्रकार से है –


1. जड़ों द्वारा कायिक प्रवर्धन (vegetative propagation by roots) : कुछ पौधों , जैसे शकरकन्द , डहेलिया और शतावरी आदि की जड़ें कंदिल होती है और इनमें प्रचुर मात्रा में खाद्य पदार्थ संचित रहते है। इस प्रकार की कंदिल जड़ों को जब विशेष रूप से तैयार उपजाऊ मिट्टी की क्यारियों में बोया जाता है तो इनसे अपस्थानिक कलिकाएँ विकसित होती है जो आगे चलकर पर्णिल प्ररोहों के रूप में परिवर्धित हो जाती है। पर्णिल प्रोहो को स्लिप्स कहते है। कंदिल जड़ें बड़े आकार की होती है और इनमें प्रचुर मात्रा में खाद्य पदार्थ संगृहीत रहते है। अत: इनके प्रत्येक कंद से बहुसंख्य स्लिप्स का विकास होता है। ये तरुण स्लिप्स आगे चलकर कंद की मुख्य संरचना से पृथक हो जाते है और नये पौधे के रूप में परिवर्धित होते है।


कुछ अन्य बहुवर्षीय काष्ठीय पौधों जैसे सिरस , कामिनी और शीशम में भूमि की सतह के ठीक निचे पायी जाने वाली जड़ों की शाखाओं से थोड़ी थोड़ी दूरी अथवा अंतराल पर अपस्थानिक कलिकाएँ विकसित होती है। इन कलिकाओं में आगे चलकर प्ररोह शाखाएँ परिवर्धित होती है जो कि नए पौधे का निर्माण करती है। मुख्य पादप शरीर से अलग होने पर ये स्वतंत्र रूप से नये पौधे के रूप में जीवनयापन करते है।


उद्यानों में उगाये जाने वाले अनेक शोभाकारी पौधों जैसे फ्लाक्स और डहेलिया आदि में भी जड़ों के द्वारा कायिक प्रवर्धन होता है। इन जड़ों को टुकडो में काटकर मिट्टी में दबा देते है या ये प्राकृतिक रूप से मुख्य पादप शरीर से अलग होकर नए स्वतंत्र पौधे के रूप में विकसित हो जाते है।


2. तने द्वारा कायिक प्रवर्धन (vegetative propagation by stem) :या कायिक प्रवर्धन की अति सामान्य और बहु प्रचलित विधि है। यहाँ विभिन्न प्रकार के रूपान्तरित भूमिगत और वायवीय तने जैसे प्रकन्द , कंद , शल्क कंद , उपरिभूस्तारी अन्त: भूस्तारी और विरोही अथवा भूस्तारी आदि कायिक प्रवर्धन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है।


(i) कन्द (tuber) : यह रूपान्तरित भूमिगत तना है। यह भूमिगत तने की शाखाओं के शीर्ष पर खाद्य पदार्थो के संचयन से बनते है। कन्द की पर्वसन्धियों पर कक्षीय कलिकाएँ होती है जिन्हें आँख कहते है।


अनुकूल परिस्थितियों में कलिका वृद्धि कर नव पादप में विकसित हो जाती है। उदाहरण आलू , हाथीचक आदि।


(ii) प्रकन्द (rhizome) : यह रूपान्तरित भूमिगत तना है जो मोटा , माँसल , चपटा और क्षैतिज वृद्धि करता है। इसमें स्पष्ट और सुविकसित पर्व और पर्व सन्धियाँ पायी जाती है। पर्वसंधियों पर शल्क पत्र उपस्थित होते है और इनकी कक्ष में कक्षीय कलिकाएँ होती है। ये कलिकाएँ प्रसुप्तावस्था में रहती है और अनुकूल परिस्थितियों में अंकुरण द्वारा वायवीय प्ररोह में विकसित हो जाती है। उदाहरण – अरबी , अदरक , हल्दी आदि।


(iii) शल्क कन्द (bulb) : यह अत्यधिक हासित भूमिगत स्तम्भ होता है। यह प्राय: उत्तल अथवा शंक्वाकार अथवा बिम्ब के समान होता है जिसकी ऊपरी सतह माँसल पत्तियां और निचले भाग पर अपस्थानिक मूलों का गुच्छ उपस्थित होता है। कन्द के मध्य (मांसल पत्तियों द्वारा परिबद्ध) शीर्षस्थ कलिका स्थित होती है जिसके अंकुरण द्वारा नव पादप विकसित होता है। उदाहरण – प्याज , लहसुन आदि।


(iv) धनकन्द (corm) : यह एक रूपान्तरित प्रकन्द है जो उर्ध्वाकार वृद्धि करता है। यह गोलाकार और हासित पर्वों युक्त होता है। पर्वसंधियों पर भूरे , सूखे शल्कपत्रों की कक्ष में कक्षीय कलिकाएँ होती है। अनुकूल परिस्थितियों में प्रत्येक कलिका से प्ररोह विकसित होता है। उदाहरण – क्रोकस , ग्लेडियोलस आदि।


(v) उपरिभूस्तारी (runner) : यह बेलनाकार , पतली , श्यान वायवीय शाखाएँ है जो मृदा सतह पर क्षैतिज रेंगती हुई वृद्धि करती है। इनके पर्व लम्बे होते है। पर्व सन्धि की निचली सतह पर अपस्थानिक मूल विकसित होती है और कक्षीय कलिकाएँ नयी शाखाओं का निर्माण करती है। शाखाएँ मातृ पादप से पृथक होकर स्वतंत्र पादप में विकसित हो जाती है। उदाहरण – दूबघास , खट्टीबूटी , फ्रेगेरिया आदि।


(vi) भूस्तारी (stolon) : इसमें तने के भूमिगत भाग से लम्बी पतली शाखाएँ विकसित होकर भूमि के अन्दर क्षैतिज वृद्धि करती है। कुछ दूरी पर इनकी अन्तस्थ कलिका से एक वायवीय प्ररोह और अपस्थानिक मूल परिवर्धित हो जाती है तथा एक पादप बन जाता है। इन शाखाओं को भूस्तारी कहते है। उदाहरण – इक्जोरा , कोलोकेसिया आदि।


(vii) अन्त:भूस्तारी (sucker) : तने के भूमिगत आधारी भाग की कक्षस्थ कलिकाओं से बनने वाली शाखाएँ तिरछी वृद्धि करते हुए भूमि से बाहर निकलकर वायवीय प्ररोह बनाती है। इन शाखाओं को अंत:भूस्तारी कहते है। ये मातृ पादप से पृथक होकर नव पादप में विकसित हो जाती है , क्योंकि इनकी आधारी पर्व संधियों पर अपस्थानिक मूल विकसित हो जाती है। उदाहरण – गुलदाउदी , पुदीना आदि।


गन्ने में तने का वह भाग जिसमें एक अथवा एक से अधिक पर्व सन्धियाँ और कलिकाएँ होती है , इसे काटकर मिट्टी में रोप दिया जाता है। इनमें कुछ समय बाद पर्वसन्धियों से अपस्थानिक जड़ें और कलिकाओं से वायवीय प्ररोह विकसित होते है। इसी प्रकार नागफली नामक केक्टस में और अन्य केक्टसों में तने का एक टुकड़ा (पर्णाभ स्तम्भ) मुख्य पौधे से अलग होकर मिट्टी में गिर जाता है और स्वतंत्र रूप ने नए पौधे में विकसित होता है।




लैंगिक जननक्या है , Sexual reproduction in hindi की परिभाषा , जीव विज्ञान definition


लैंगिक जनन(Sexual reproduction):-


जब जनन प्रक्रिया में दो जीव जनक भाग लेते है तो उसे लैंगिक जनन कहते है इसमे अर्धसूत्री विभाजन एवं निश्चेतन की क्रिया होती है नर युग्मक एवं नया युग्मक बनते है जिनके संयोजन से बने युग्ननास के द्वारा नया जीव बनता है। लैंगिक जनन में बनी संतति आपस में एवं जनको से समरूप वाली होती है। लैगिक जनन की क्रियामें अधिक समय लगता है। तथा यह एक जटिल विस्तरित एवं धीमी प्रक्रिया है।


किशोरावस्था (पादपों में कायिक अवस्था):- जीव में अवस्था के पूर्व कायिक अंडो में वृद्धि होती है तथा जीव परिपक्वता प्राप्त करता है। इस अवस्था को किशोरावस्था कहते है। किशोरावस्था की अवधि भिन्न-2 में जीवों में अलग-2 होती है। इस अवस्था के अन्त में जीव में अनेक आकारिकी एवं शारीरिकी पवित्रन होते है तथा वह जनन अवस्था के लिए तैयार होता है।


व्यस्कावस्था जनन अवस्था:- किशोरावस्था की समाप्ति पर जीव अपने समान ही संतति को जन्म देता है इस अवस्था को जनक अवस्था कहते है।


3 . जीर्णमान/जीर्णता/वृद्धावस्था:- व्यस्कावस्था की समाप्ति पर जीवन के अन्तिम चरण में उत्तरोत्तर रूप से अनेक परिवर्तन होते है जिससे उपापचय क्रियाऐं मंद हो जती है इस अवस्था को वृद्धावस्था कहते है तथा इन्के अन्त में मृत्यु हो जाती है।


जनन चक्र(Genital cycle) क्या है , प्रजनको के प्रकार(Types of breeders) in hindi


प्रजनको के प्रकार(Types of breeders):- दो प्रकार के होते है।


1- मौसमी(Seasonal):– वे जीव जो पर्यावरण की अनुकूल परिस्थिति में निश्चित ऋतु में अपने समान सन्तान को जन्म देते है उनके मौसमी जन कहते है।


उदाहरण:- आम, अमरूद्ध, कटहल आदि तथा पक्षी, मेढक, छिपकली एवं प्रकृति में रहने वाले जीव/असामान्य पुष्पीकरण:- नीला कुंरेन्जी (स्ट्रेबोलिन्थल कुनिआना)


सतत् प्रजनक(Continuous breeders):- जो जीव अपनी पूरी जनन अवस्थामें जनन के लिए सक्रिय रहते है उनके सतत् प्रजनक कहते है।


अधिकाँश स्तनधारी जैसे मनुष्य बन्दर एवं संरक्षण में रहने वाले पक्षी कुकुमुट फार्म


जनन चक्र(Genital cycle):-


व्यस्कावस्था में जन्तुआंे के अण्डाशय की सक्रियता के कारण उसमें चक्रिय परिवर्तन होते है जिससे हाॅरमोनो में बदलाव आता है। इन चक्रिय परिवर्तनो का जन्म चक्र कहते है। यह दो प्रकार के होते है।


1 मद चक्र(oestrous cycle):- नान प्राइमेंट में होने वाले जनन चक्रों को मद चक्र कहते है।


उदाहरण:- गाय बकरी, हिरण, कुत्ता चीता आदि।


2 रज चक्र(menstrual cycle):- प्राइमेंट में होने वाले जनन चक्र को राज चक्र कहते है।


उदाहरण मनुष्य बन्दर।


लैंगिक जनन की घटनाएं(Sexual incidence events):- लैगिक जनन के दौरान होने वाली घटनाओं को तीन भागों में बाँटा गया है।


1 निर्वचन पूर्ण घटनाऐं:-


(a) युग्मक जनन


(b) युग्मकों का स्थानान्तरण/परिवहन


(a) युग्मक जनन:- युग्मकों के बनने की क्रिया युग्मक जनन कहलाती है युग्मको के निर्माण के दौरान अर्द्धसूत्री विभाजन होता है तथा अगुणित युग्मक बनते है।


युग्मकीट भिद पीढ़ी में बिना अर्द्धसूची विभाजन के युग्मकों का निर्माण होता है। जो अधुणित होता है। युग्मकों में गुणसूत्रों की संख्या आती होती है। जैसे मनुष्य में 2दत्र 46 युग्मक द त्र 23


फल मक्खी :- 8 मक्का :- 20


घरेलू मक्खी :- 12 धान :- 24


बिल्ली :- 38 कुत्ता :- 78


चुहा :- 42 सेव :- 34


प्याज :- 38 आलू :- 48


तितली :- 380


AIPMT :-


पादपो में जन्तुओं में


सबसे कम -हैप्लोटैप्ल्स:-04 सबसे कम:- ऐस्केरिस मेलानियंता-28


सबसे अधिकः- ओफियोग्लोसम-1260 सबसे अधिक:- रेडियोलेरिया (ओलोकेसा)- 1500


अन्य:-


गेहूं :- 42 चिंपेजी :- 48


मटर :- 14 अकीषा :- 500-600


मेढक :- 24 रेशम कीट :- 56


खरगोश :- 44


युग्मकों के प्रकार(Types of gametes):-


युग्मक दो प्रकार के होते है।


1.समयुग्मक(Homozygous):- जब नव औव मादा युग्मक आकारिकी रूप से पूर्णतया समान होते है तो इन्हें समयुग्मक कहते है इनमें नर युग्मक एवं मादा युग्मक के आधार पर कोई अन्तर नहीं होता है।


उदाहरण:- शैवाल जैसे:- क्लेमइडोमोनास


चित्र


2 विषमयुग्मक(Heterozygote):– जब नर एवं मादा युग्मक असमान होते है तो इन्हे विषमयुग्मक कहते है। नर युग्मक आकार में छोटा तथा मादा युग्मक आकार में बे होते है नर युग्मक को पुमंशु या शुक्राणु तथा मादा युग्मक को अण्डाणु या अण्डा कहते है।


(b) युग्मकों का स्थानान्तरण/परिवहन:-


नर तथा मादा युग्मकों का कायिक रूप से एक दूसरे के नजदीक पहुंचने की क्रिया की युग्मक का स्थानान्तरण कहते है।


प्रायः नर युग्मक गतिशील होना है तथा मादा युग्मक अचल होता है। कुछ शैवालों में नर तथा मादा दोनो युग्मक गतिशील होते है। निवेचन क्रिया हेतु युग्मकों के स्थानान्तरण हेतु जलीय माध्यम की आवश्यकता होती है अधिकाँश पादपों जैसे:-बायोफाइडा, टेरिडोफाइटा आदि में नर युग्मक जलीय माध्यम में गति करके मादा युग्मक तक पहुुंचता है। उच्च पादपों में पराग की क्रिया पाई जाती है जिनके द्वारा नर युग्मक (परागकण) मादा युग्मक तक पहुंचता है।


१ जन्तुओं में लैंगिकता :-


दो प्रकार के होते है।


1 एक लिंगियता :-


2 द्वि लिंगियता :-


(A) एक लिंगीयता:-


वे जीव जिनके शरीर में एक ही प्रकार के जनन अंग पाये जाते है तथा वे एक ही प्रकार के युग्मक (नर अथवा मादा) उत्पन्न करते है उन्हें एकलिंगी जीव कहते है इस क्रिया को एक लिंगीयात कहते है।


उदाहरण:- तिलचट्टा एवं सभी स्तनधारी


(B)द्वि लिंगियता/उभयलिंगीयता:-


वे जीव जिनके शरीर में नर एवं मादा जनंनाग दोनों पाये जाते है तथा वे नर एवं माा दोनों प्रकार के युग्मक उत्पन्न करते है उन्हें द्विलिंगी जीव कहते है तथा इस क्रिया को द्वि लिंगियता कहते है।


उदाहरण:- हाइड्रा, स्पंज, फीता कृमि (टेपकर्म) केचुआ आदि।


२ पादपों में लैंगिकता:-


(A)एकलिंगी पुष्प:-


पुष्प में या तो पुकेंसर पाये जाते है या स्त्री केसर पाये जाते है। ऐसे पुष्पों ो एकलिंगी पुष्प कहते है। पुकेसर के पाये जाने पर पुष्प पुकेसरी तथा जायंाग के पाये जाने पर पुष्प स्त्री केंसरी कहलाता है।


उदाहरणः-मक्का, नारियल, पपीता, शहतूत।


(B) द्विलिंगी पुष्प/उभयलिंगी पुष्प:- पुष्प में नर जननाँग पुकेसर एवं माता जनंनाग स्त्री केंसर दोनो की उपस्थिति हो तो ऐसे पुष्प को द्विलिंगी पुष्प कहते है।


उदाहरण:- मटर, गुडहल, सरसों, पिटूनिया आदि।


(C) एकलिंगाश्रयी पादप:- जिस पादप पर एक ही प्रकार के पुष्प पाये जाते है उसे एकलिंगीश्रयी पादप कहते है।


उदाहरण:- पपीता, शहतूत शैवालों में ऐसे पाद विष्मथैलस कहलाते है। उदाहरण:-मारकेश्यिा


(D) द्विलिंगाश्रयी पादप:- ऐसे पादप जिन पर दोनो प्रकार के पुष्पा नर मादा या उभयलिंगी पुष्प पाये जाते हो उसे द्विंिगाश्रयी पादप कहते है।


उदाहरण:- मक्का, नारियल, कुक्कुरबीया (खीर ककडी) शैवालों में जब एक ही थेलस पर नर एवं मादा जननाँग दोनों पाये जाते है तो इनके समथैलस कहत है।


उदाहरण:-कारा


निषेचन (Fertilization):- नर तथा मादा युग्मकों के संयोजन की क्रिया को निषेचन कहते है। इससे द्विगुणित युग्मनज का मिर्माण होता है।


चित्र


बाह्य निषेचन (External fertilization):- जब निषेचन की क्रिया शरीर के बाहर हो तो उसे बाहा्र निषेचन कहते है उदाहरण:- मेढक, अस्धील मछलियाँ


इस प्रकार के निषेचन हेतु जलीय माध्यम की आवश्यकता होती है इसमें नर युग्मक अधिक संख्या में उत्पन्न किये जाते है क्योकि स्थानान्तरण के दौरान बहुत युग्मकों के नष्ट होने की संभावना रहती है।


आंतरिक निषेचन (Internal fertilization):-जबनिषेचन की क्रिया मादा शीरर के अन्दर होती है तो इसे आन्तरिक निषेचन कहते है।


उदाहरण:- अनुष्य, बन्दर


अनिषेक जनन(Non-fertilization):- बिना निषेचन के जनन की क्रिया को अभिषेक जनन कहते है। इसमें मादा युग्मक नर युग्मक से संयोजित हुये बिना ही युग्मनज में बदल जाता है।


उदाहरण:- रोटिकेश, मधुमक्खी, कुवर छिपकलियाँ एवं कुमक्षी


निषेचन (fertilization in hindi) : नर और मादा युग्मकों के संलयन की प्रक्रिया को निषेचन कहते है। आवृतबीजी पादपों में निषेचन का अध्ययन सर्वप्रथम स्ट्रासबर्गर (strasburger 1884) ने लिलियम में किया था।


आवृतबीजी पादपों में नर युग्मक परागकोष में स्थित परागकणों (नरयुग्मकोदभिद) में बनते है। इसी प्रकार बीजाण्ड में स्थित भ्रूणकोष मादा युग्मकोदभिद का प्रतिनिधित्व करता है जिसमें विकसित अंड कोशिका मादा युग्मक को निरूपित करती है।


निषेचन की क्रिया के लिए यह आवश्यक है कि परागकण परागकोष से विमुक्त होकर अंडप के वर्तिकाग्र पर पहुँचे। परागकणों के परागकोष के विमुक्त होकर पुष्प की वर्तिकाग्र पर स्थानान्तरण की क्रिया को परागण कहते है। परागकोष से मुक्त हुए परागकण विभिन्न साधनों जैसे कीट , जल , वायु और अन्य जन्तुओं के माध्यम से अंडप के वर्तिकाग्र पर पहुँचते है।


निषेचन की प्रक्रिया के संचालन के लिए नर और मादा युग्मकों का सम्पर्क में आना आवश्यक है अत: वर्तिकाग्र पर पहुँच कर , परागकण अंकुरित होते है जिससे परागनलिका का निर्माण होता है।


नर युग्मक को बीजाण्ड और भ्रूण कोष और इसमें उपस्थित मादा युग्मक अथवा अंड कोशिका तक ले जाने का कार्य परागनलिका के द्वारा किया जाता है इसलिए आवृतबीजी पौधों में निषेचन की प्रक्रिया को नाल युग्मनी माना जाता है।


परागनलिका वर्तिका से होकर बीजांड में प्रवेश करती है। यह बीजाण्ड में स्थित भ्रूणकोष में प्रवेश कर दोनों नर युग्मकों को मुक्त कर देती है। एक नर युग्मक अंडकोशिका से संलयित होकर युग्मनज का निर्माण करता है जबकि दूसरा नर युग्मक ध्रुवी केन्द्रकों या द्वितीयक केन्द्रक से संयुक्त होकर प्राथमिक भ्रूणपोष केन्द्रक बनाता है। इस प्रकार के निषेचन को द्विनिषेचन कहते है। जिसमें दोनों नरयुग्मक निषेचन में भाग लेते है।


आवृतबीजीयों में निषेचन क्रिया का अध्ययन अग्र बिन्दुओं के अंतर्गत किया जा सकता है –


परागकणों का अंकुरण


परागनली की संरचना और वृद्धि


परागनली का मार्ग


परागनली का बीजाण्ड में प्रवेश


परागनली का भ्रूणकोष में प्रवेश


युग्मकों का विसर्जन


युग्मक संलयन


1. परागकणों का अंकुरण (germination of pollen grains)


पूर्णतया विकसित होने के पश्चात् परागकोष के स्फुटन के द्वारा परागकण मुक्त हो जाते है। ये स्वतंत्र , परागकण विभिन्न वातावरणीय कारकों जैसे – तापक्रम , तेज धूप और शुष्कता आदि के प्रति पूर्णतया प्रतिरोधी होते है और आवश्यकतानुसार अवधि के लिए जीवनक्षम होते है। आवृतबीजी पुष्पों में परिपक्व जायांग के वर्तिकाग्र से एक चिपचिपा द्रव स्त्रावित होता है जिसमें परागण क्रिया द्वारा स्थानांतरित परागकण चिपक जाते है या अटक जाते है। यह स्त्रावित द्रव पिटुनिया में चिपचिपा और कॉस्मोस में म्यूसीलेजयुक्त और अन्य आवृतबीजी पौधों में जलरागी प्रोटीन से युक्त होता है। परागकण इस द्रव को अवशोषित करके फूल जाते है और इनके आयतन में वृद्धि होती है। इसके साथ ही इनका अपेक्षाकृत सख्त और दृढ़ बाह्यचोल नर्म हो जाता है और झिल्ली युक्त अन्त: चोल किसी एक जनन छिद्र से नलिकाकार अतिवृद्धि के रूप में बाहर आ जाता है। इस छोटी नलिका को जनन नलिका कहते है। बाद में यही नलिका आगे वृद्धि करके पराग नलिका बनाती है।


परागकण कोशिका के विभाजन से निर्मित जनन कोशिका जो कि विभाजन के द्वारा दो नर युग्मकों के निर्माण के लिए उत्तरदायी होती है , वह जनन कोशिका यदि परागकण में विभाजन नहीं करती है तो फिर इसका विभाजन पराग नलिका में होता है तथा दो नर युग्मक बनते है। वर्तिकाग्र के ऊपरी हिस्से पर वृद्धिशील पराग नलिका में आगे नलिका कोशिका और इसके पीछे जनन कोशिका के विभाजन से निर्मित दो नर युग्मक पाए जाते है।


वर्तिकाग्र पर पहुँचने के बाद परागकण के अंकुरण अर्थात जनन नलिका के विकास में जो समय लगता है उसे अंकुरण काल कहते है। यह अंकुरण काल अथवा अवधि विभिन्न आवृतबीजी पौधों में भिन्न भिन्न हो सकती है , जैसे – रीसेडा में तीन घंटे , मक्का में पाँच मिनट , बीटा वलगेरिस में दो घंटे और गेराया इलिप्टिका में तीन दिवस का अंकुरण काल होता है। परागनलिका की लम्बाई भी विभिन्न आवृतबीजी पौधों में अलग अलग होती है। सामान्यतया यह वर्तिका की लम्बाई पर निर्भर करती है। कुछ पौधों जैसे बीटा वलगेरिस में परागनलिका की लम्बाई केवल कुछ मिलीमीटर तक की होती है जबकि मक्का में 45 सेंटीमीटर लम्बी परागनलिका देखी गयी है। सामान्यतया एक परागकण से केवल एक परागनलिका उत्पन्न होती है। इस प्रकार के परागकण को एकनलिकीय कहते है। जबकि कुछ पौधों जैसे – एल्थिया रोजिया में 10 और मालवा नेग्लेक्टा में चौदह परागनलिका पायी जाती है। ऐसे परागकणों को बहुनलिकिय कहते है।


यहाँ उल्लेखनीय तथ्य यह है कि बहुनलिकिय अवस्था में भी केवल एक ही परागनलिका क्रियाशील होती है। एमन्टफेरी वर्ग के सदस्यों में शाखित परागनलिका पायी जाती है और इस शाखित परागनलिका की वह शाखा आगे चलकर वृद्धि करती है , जिसमें नर युग्मक उपस्थित होते है। साथ ही ऐसे पौधे जिनमें परागकण का परागकोष से विसर्जन परागपिण्ड अथवा चतुष्कों के रूप में सामूहिक रूप से होता है। जैसे कैलोट्रोपिस और माइमोसा आदि में तो वहां वर्तिकाग्र पर एक साथ सभी परागकणों से परागनलिकाएँ उत्पन्न होती है।


वर्तिकाग्र के कार्य (function of stigma)


किसी पुष्प के जायांग का वर्तिकाग्र एक ग्राही संरचना के रूप में कार्य करता है।


इसके अतिरिक्त यह परागकण को पर्याप्त स्थान प्रदान करता है।


अंकुरण हेतु नमी प्रदान करता है। जब तक परागनलिका वर्तिका में प्रविष्ट नहीं हो जाती तब तक उसे ये पर्याप्त नमी प्रदान करता है।


2. परागनली की संरचना और वृद्धि (path of pollen tube)


अंकुरण के पश्चात् सामान्यतया परागनली की समस्त अंतर्वस्तुए परागनलिका में आ जाती है। परागनली की वृद्धि उसके अग्र क्षेत्र द्वारा होती है और अधिकांश कोशिका द्रव्य इस क्षेत्र में एकत्र हो जाता है। परागनलिका के शेष भाग और स्वयं परागकण बड़ी रिक्तिका द्वारा भर जाता है। परागनलिका के अग्र भाग में कोशिका द्रव्य को सिमित रखने के लिए नलिका में केलोज प्लग बन जाते है। जैसे जैसे परागनली की वृद्धि होती है। केलोज प्लग बनते जाते है। इसलिए लम्बी परागनलिकाओं में अनेक केलोज प्लग थोड़े थोड़े अंतराल पर देखे जा सकते है और इनकी उपस्थिति से परागनलिका छोटे छोटे खण्डों में विभक्त हो जाती है। केलोज प्लग नलिका की भीतरी भित्ति पर एक वल्य के रूप में विकसित होते है जिनकी अभिकेन्द्री वृद्धि होती है और अन्तत: नली की अवकाशिका बंद हो जाती है।


परागनली के शीर्ष पर एक अर्धचन्द्राकर पारभाषी क्षेत्र पाया जाता है जिसे आच्छद ब्लॉक क्षेत्र कहते है। परागनली की वृद्धि समाप्त होने पर यह क्षेत्र अदृश्य हो जाता है। आच्छद क्षेत्र में कोशिकांगों का अभाव होता है। इस क्षेत्र के कोशिकाद्रव्य में अनेक छोटी रिक्तिकाएँ पायी जाती है जिनमें पोली सैकेराइड और RNA बहुतायत से पाए जाते है। आच्छद ब्लॉक के पीछे स्थित भाग के कोशिका द्रव्य में माइटोकोंड्रिया , गोलजीकाय , अन्त:द्रव्यी जालिका और लिपिड्स प्रचुर मात्रा में पाए जाते है।


परागनलिका की भित्ति सेल्यूलोज और पेक्टिन की बनी होती है। आच्छद ब्लॉक क्षेत्र में पेक्टिन की अधिकता पायी जाती है और पीछे की तरफ इसकी मात्रा क्रमशः कम होती है। परागनली की वृद्धि एकदिशीय दिशा में अर्थात सदैव वर्तिकाग्र से अंडाशय की तरफ होती है। यह एकदिशीय वृद्धि संभवतः यांत्रिक , जलानुवर्ती और रसायनानुवर्ती कारकों के फलस्वरूप होती है। इसके अतिरिक्त परागनली के शीर्ष भाग में शरीर क्रियात्मक सक्रीय पदार्थों की सान्द्रता पायी जाती है जो इसकी एकदिशीय वृद्धि के लिए उत्तरदायी होती है। परागनली जब वर्तिका के आधार पर पहुँचती है तो अंडाशय और बीजाण्ड का रसायनुवर्ती उद्दीपन इसे बीजाण्ड की तरफ आकर्षित करता है। इसके अतिरिक्त अनेक पौधों के बीजांड पर उपस्थित विशिष्ट संरचनाएँ जिन्हें सेतुक कहते है। परागनलिका की वृद्धि को बीजाण्डद्वार की तरफ प्रेरित करते है।




 निषेचन के पश्चात् युग्मनाज से भू्रण या निर्माण होता है तथा उससे नया जीव बनता है इस क्रिया को भूर्णोदभव कहते है।


युग्मनज → भ्रूण → नया जीव


कोशिका विभाजन विभेदन:-


भ्रूण के निर्माण की क्रिया दो कारकों पर निर्भर करती है।


1 पर्यावरण:-


2 जीव का जीवन चक्र:-


उदाहरण:- शैवालों में युग्मनज पर एक मोटी भित्ति बन जाती है जो उसकी प्रतिकूल परिस्थितियों (सूखा,ठंड) से रक्षा करती है एवं लम्बे समय तक विश्रारित अवस्था में रहने के पश्चात् अनुकूल परिस्थितियों में यह अंकूरित होकर नयी संतति को जन्म देता है। उदाहरण:-द्विगुणित तक जीवन चक्र वाले पादपों में युग्मनज में अर्द्धसूत्री


उदाहरण:-विभाजन होता है तथा उसकसे अगुणित जीव बनता है।


पुष्पी पादपों में निषेचन पश्च घटनाएं(Fertile backbone events in flowering plants):-


पुष्पी पादपों ने पुष्प के बाह्रा दल पुकेसर झड जाते है तथा केवल स्त्री केंसर ही निषेचन के पश्चात् लगा रहता है। कुछ पादपों में ब्राह्रा दल फल बनने के पश्चात् भी पाये जाते है।


उदाहरण:-टमाटर, बैंगन, भिंडी।


निषेचन के पश्चात पुष्पीय भागों में निम्न प्रकार परिवर्तन होता है।


अण्डाशय :- फल


अण्डाशय भित्ति :- फल भित्ति


बीजाण्ड :- बीज


बीज विकर्ण के पश्चात् अनुकुल परिस्थितियों में अंकुरित हाकर नये पादप को जन्म देता है।


अण्ड प्रजक व सजीव प्रजक परिभाषा क्या है , उदाहरण


युग्मनज के विकास के आधार पर जन्तुओ के प्रकार : दो प्रकार के होते है।


1 अण्ड प्रजक:-


वे जीव जिनमें युग्मनज का विकास मादा के शीरर के बाहर होता है तथा वे कैल्शियम युक्त कठोर कवच से ढके रहते है उन्हें अण्ड प्रजक कहते है। इनमें अण्डे के स्फूटन से शिशु संतति उत्पन्न होती है।


उदाहरण:-पक्षी, मेढक, सरीसर्व आदि इनमें प्रायः ब्राहा निषेचन होता है इनमें युग्मकों एवं युग्मनाज के नष्ट होने की संभावना अधिक होती है


अतः इनका उत्तर जीवन कम होता है।


2 सजीव प्रजक:-


वे जीव जिनमें युग्मनाज का विकास मादा के शीरर के न्दर होता है तथा निश्चित समय अवधि बाद प्रसव क्रिया के द्वारा शिुशु को जन्म दिया जाता है


उनके सजीव प्रजक कहते है।


उदाहरण:-मनुष्य, बन्दर, गाय, खरगोश


उदाहरण:-इनमें उचित देखभाल तथा संरक्षण के कारण इनकी उत्तरजीविता अधिक होती है।




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