एनसीईआरटी नोट्स कक्षा 12वी जीवविज्ञान अध्याय - 02 पुष्पी पादपों में लैंगिक जनन || NCERT NOTES CLASS 12TH BIOLOGY CHAPTER 02 FULL NOTES IN HINDI : ULTIMATE STUDY SUPPORT

कक्षा 12 जीवविज्ञान अध्याय 02 पुष्पी पादपों में लैंगिक जनन




पुष्प के सभी भागों का अध्ययन:- आवर्तबीजी पादपों का आकर्षक भाग:- पुष्पों का हमारे लिए बहुत अधिक महत्व है पुष्पों का साँसारिक, धार्मिक, साँस्कृतिक, आधत्मिक आर्थिड महत्व है। इनका प्रयोग जन्म विवाह, मृत्यु आदि अवसरों पर किया जाता है इसलिए फूलों की खेती बडे पैमाने पर की जाती है जिसे पुष्प कृषि (फ्लोरी कलचर) कहते है। एक जीव वैज्ञानिक की दृष्टि में पुष्प लैगिक जनन के स्थल है। ये जन्म के लिए रूपान्तरित प्ररोह है।

परिभाषा : पुष्प में पुष्पासन नीचे से तीसरी पर्णसंधि पर पुभँग पाये जाते है इसके एक अवयव को पुकेंसर कहते है। यह एक वृत (डण्टल) द्वारा पुष्पांसन से जुडा रहता है जिसे पुतन्तु कहते है। इसका उपरी सिरा (अत्तिम सिरा) द्विपालीत संरचना में समाप्त होता है। जिसे परागकोश कहते है। परागकोश की प्रत्येक पाली में दो कोष्ठ होते है इस प्रकार चारो कोनो में चार कोष्ठ पाये जाते है। जिनमे ंपरागकण भरे होते है। इसलिए इन्हे पुरागकुटि या लघु बीजाणुधानी भी कहते है।
परागकोष की संरचना (structure of anther) : आवृतबीजी पुष्प में उपस्थित पुंकेसर नर जनन संरचना या लघुबीजाणुपर्ण को निरुपित करते है। प्रत्येक पुंकेसर के तीन भाग होते है –
(1) परागकोष (anther)
(2) पुतंतु (Filament)
(3) योजी (connective)
लघुबीजाणु अथवा परागकण परागकोष में बनते है। एक प्रारूपिक परागकोष में सामान्यतया दो पालियाँ होती है जो एक दूसरे से योजी द्वारा जुडी रहती है। योजी एक बंध्य ऊतक होता है।
परागकोष की प्रत्येक पालि दो प्रकोष्ठों में विभेदित होती है जिन्हें परागधानी अथवा लघुबीजाणुधानी भी कहते है।
इस प्रकार दो पालियुक्त परागकोष द्विकोष्ठी कहलाते है और कुल मिलाकर इनमें चार लघुबीजाणुधानियाँ होती है। ऐसे परागकोष को चतुष्बीजाणुधानिक परागकोष कहते है। इसके विपरीत कुछ पौधों , जैसे मालवेसी कुल के सदस्यों और मोरिन्गा के परागकोष में केवल एक ही पालि पाई जाती है। ऐसे परागकोषों को एककोष्ठीय कहते है और इन परागकोषों में केवल दो लघुबीजाणुधानियाँ होती है। अत: इनको द्विबीजाणुधानिक पराग प्रकोष्ठ कहते है।
लेकिन एक परजीवी आवृतबीजी पौधे आरसीथोबियम में परागकोष में केवल एक पालि पायी जाती है अपितु उस एक पालि में भी केवल एक लघुबीजाणुधानी होती है। ऐसे परागकोष को एक बीजाणुधानिक कहते है।
द्विकोष्ठी चतुष्बीजाणुधानिक परागकोष की दो पालियों में से एक छोटी और दूसरी बड़ी होती है। परिपक्व होने पर इन दोनों बीजाणुधानियों के मध्य की भित्ति टूट जाती है , जिससे एक बड़ा कोष्ठक बन जाता है।
लघुबीजाणुधानी का परिवर्धन (development of microsporangium)
एक प्रारूपिक पुंकेसर का परिवर्धन पुष्पासन के ऊपर कुछ विभाज्योतकी कोशिकाओं के सक्रीय हो जाने के कारण होता है। ये विभाज्योतकी कोशिकाएँ बारम्बार विभाजित होकर असंख्य कोशिकाओं का एक समूह बनाती है। ये कोशिकाएँ वृद्धि कर दो पालियों में विभेदित होती है और प्रत्येक पाली से दो प्रकोष्ठ परिवर्धित होते है। इसके बाद धीरे धीरे कोशिकाओं के नीचे की तरफ पुतंतु का विभेदन होता है। इस प्रकार एक प्रारूपिक पुंकेसर का विकास पूरा होता है। परागकोष का परिवर्धन यूस्पोरेंजिएट प्रकार का होता है। इस प्रकार के परिवर्धन में एक से अधिक बीजाणुजन कोशिकाएँ एक बीजाणुधानी का विकास करती है।
शिशु अवस्था में परागकोष एक जैसी समांगी कोशिकाओं का एक समूह होता है जो बाह्यत्वचा परत के आवरण द्वारा ढका रहता है। परिवर्धन के साथ साथ यह संरचना पहले दो और बाद में चार परागधानियों में विभेदित हो जाती है।
प्रत्येक परागधानी में बाह्यत्वचा के नीचे अधोत्वचा परत की कुछ कोशिकाएँ आसपास की अन्य कोशिकाओं की तुलना में बड़ी हो जाती है। इनका जीवद्रव्य गाढ़ा और केन्द्रक भी बड़े और सुस्पष्ट दिखाई देते है। इन कोशिकाओं को प्रपसु कोशिकाएँ कहते है। पौधों की विभिन्न जातियों में प्रपसु कोशिकाओं की संख्या अलग अलग हो सकती है।
प्रपसु कोशिकाओं के परिनतिक विभाजन से सन्तति कोशिकाओं की दो परतें बनती है। बाहरी परत की कोशिकाओं को प्राथमिक भित्ति कोशिकाएँ कहते है और आंतरिक परत की कोशिकाओं को प्राथमिक बीजाणुजन कोशिकाएं कहते है। प्राथमिक भित्तीय कोशिकाएँ फिर से परिनतिक रूप से विभाजित होकर बाहर की तरफ अन्त: स्थीसियम और भीतर की तरफ भित्तीय कोशिकाएं बनाती है। भित्तिय कोशिकायें परिनतिक विभाजनों द्वारा अंतस्थीसियस के नीचे 2-3 कोशिका मोटाई की परत बनाती है। इसे मध्य स्तर कहते है। इसके भीतर एक तथा स्तर का निर्माण होता है जिसे पोषोतक कहते है। इस प्रकार प्राथमिक भित्तीय कोशिका परत से लघुबीजाणुधानी को बहुपरतीय भित्ति का निर्माण होता है।
प्राथमिक बीजाणुजन कोशिका या तो सीधे ही या समसूत्री विभाजनों के बाद लघुबीजाणु मातृ कोशिकाओं में विभेदित होती है जो कि आगे चलकर अर्द्धसूत्री विभाजन द्वारा लघुबीजाणुओं का निर्माण करती है।
कुछ पौधों जैसे डोर्यीन्थिस और होलोप्टेलिया में परागकोष की अधोत्वचा से प्रपसूतक विभेदित नहीं होता। अत: कुछ भीतरी अधोत्वचा कोशिकाएँ सीधे ही प्राथमिक बीजाणुजन कोशिका के रूप में कार्य करती है।

 लघुबीजाणुधानी परिभाषा क्या है लघु बीजाणु धानी किसे कहते है ?
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 लघु बीजाणुधानी में बाहर से भीतर की ओर क्रमशः चार कलर पाये जाते है।
1 ब्राहाचर्य
2 अंतराचर्य
3 मध्यमचर्य
4 टेपीटम (Teptum):- यह लघु बीजणुधानी की सबसे भीतरी परत है।
5 इसमें सघन जीवद्रव्य एवं स्पष्ट बडा केन्द्रक पाया जाता है कई बार इसमें एक से अधिक भी केन्द्रक पाये जाते है ।
6 लघुबीजाणुधानी का स्फुटन (Hypotension):-
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7 लघुबीजाणु जनन(Spermatogenesis):-
लघुबीजाणुधानी के केन्द्र में:-बीजाणुजनउत्तक → राग-मातृकोशिका (2n) → अर्द्धसूत्री विभाजन →लद्यु बीजाणु चतुष्टय →लघुबीजाणु/परागकण
लघुबीजाणुधानी की संरचना (structure of microsporangium)
A. परागकोष भित्ति : परिपक्व परागकोष की भित्ति चार परतों में विभेदित होती है। ये परतें परिधि से केंद्र की तरफ एक निश्चित क्रम में व्यवस्थित रहती है। ये भित्ति पर्तें निम्नलिखित प्रकार है –
1. बाह्यत्वचा
2. अन्त: स्थीसियस
3. मध्य परत
4. टेमीटम अथवा पोषोतक
1. बाह्यत्वचा : यह परागकोष की सबसे बाहरी परत है जिसकी कोशिकायें अरीय रूप से सुदीर्घित (लम्बाई में कम और चौड़ाई में अधिक) होती है। वैसे परागकोष के विकास के साथ साथ ही बाह्यत्वचा कोशिकाओं में भी अपनतिक विभाजन देखे जा सकते है जो बाह्यत्वचा को परागकोष के फैलाव के साथ साथ बनाये रखते है लेकिन मरूदभिदीय पौधों में बाह्यत्वचा कोशिकाओं के मध्य बहुत अधिक खिंचाव पाया जाता है जिसके कारण कई बार तो ये कई स्थानों से फट जाती है और अलग अलग टुकड़ों में बंट जाती है। कुछ पौधों जैसे एलेन्जियम में परागकोष की बाह्यत्वचा में रन्ध्र भी पाए जाते है।
2. अन्त: स्थीसियस : यह बाह्यत्वचा के भीतर उपस्थित भित्ति परत होती है और जब परागकोष प्रस्फुटन के लिए तैयार होते है तो उस समय इनका विकास सर्वाधिक होता है। अन्त: स्थिसियस सामान्यतया एक स्तरीय परत होती है और इनकी कोशिकाएँ सुदीर्घित होती है लेकिन कोक्सीनिया में अन्त: स्थिसियस परत द्विस्तरीय होती है। इन कोशिकाओं की आंतरिक स्पर्शरेखीय भित्तियों पर रेशेदार पट्टियों की उपस्थिति अन्त: स्थीसियम कोशिकाओं का विशेष लक्षण होता है। ये पट्टियाँ सामान्यतया अंग्रेजी अक्षर की U आकृति या गोलाकार होती है लेकिन मेलोथ्रिया में ये पट्टियाँ अतिव्यापी वलय के रूप में होती है। मोमोर्डिका में इनका स्थूलन अनुप्रस्थ पट्टिकाओं के रूप में पाया जाता है।
भ्रूणविज्ञानिको के अनुसार इन कोशिकाओं में स्थूलन पदार्थ इनमें संचित मंड कणों के रूप में होता है। लेकिन डी फोसार्ड (1969) के अनुसार अन्त: स्थिसियस कोशिकाओं में स्थूलन पदार्थ सेल्यूलोस के रूप में पाया जाता है। जिन परागकोषों में अनुदैधर्य स्फुटन होता है वहां प्रत्येक परागकोष की दो लघुबीजाणुधानियों की संधि के चारों तरफ अन्त: स्थीसियस कोशिकाओं में रेशेदार पट्टियाँ नहीं पायी जाती है।
अंत: स्थीसियस कोशिकाओं के विभेदी लक्षण जैसे रेशेदार पट्टियों की उपस्थिति , बाहरी और आन्तरिक स्पर्श रेखीय भित्तियों का विभेदक प्रसार और इनकी आद्रताग्राही प्रकृति परागकोष के प्रस्फुटन में विशेष रूप से सहायक होती है।
हाइड्रोकैरीटेसी कुल के सदस्यों में अन्त: स्थीसियस परत में रेशेदार पट्टिकाओं का स्थूलन अनुपस्थित होता है। इसके अतिरिक्त एनोना , म्यूजा और आइपोमिया आदि कुछ पौधों में भी अन्त: स्थिसियम कोशिकाओं में रेशेदार पट्टिका का स्थूलन नहीं पाया जाता है लेकिन यहाँ परागकोष की बाह्य त्वचा कोशिकाओं पर क्यूटिन और लिग्निन का जमाव देखा जा सकता है।
3. मध्य परत : अंत: स्थिसियम के ठीक निचे मध्य परत कोशिकाएँ 1 से 3 पंक्तियों में व्यवस्थित होती है। इन परतों की कोशिकाएँ अल्पजीवी होती है और लघुबीजाणु अथवा पराग मातृ कोशिकाओं के अर्द्धसूत्री विभाजन पूर्व ही कुचल जाती है।
कुछ पौधों जैसे रेननकुलस और लिलियम में मध्य परत कोशिकाओं की एक या एक से अधिक पंक्तियाँ नष्ट नहीं होती और ये अनिश्चितकाल तक बनी रहती है। कुछ पौधों जैसे साइडा में मध्यपर्त की कोशिकाएँ स्टार्च और अन्य खाद्य पदार्थो का संचय करती है जो पराग मातृ कोशिकाओं द्वारा पोषण हेतु प्रयुक्त होते है।
4. टेपीटम पोषोतक : यह लघुबीजाणुधानी की सबसे भीतरी परत है जो संरचनात्मक और क्रियात्मक दृष्टि से सर्वाधिक महत्वपूर्ण परत मानी जा सकती है क्योंकि क्योंकि परिवर्धनशील लघुबीजाणुओं या परागकणों के लिए उपलब्ध पोषक पदार्थ इस टेपीटम में से होकर ही लघुबीजाणुधानी तक पहुँच पाता है। इस परत की कोशिकाएँ बड़ी आकार की सुदीर्घित , गाढ़े कोशिकाद्रव्य युक्त और बड़े केन्द्रक वाली होती है। शुरू में इन कोशिकाओं में केवल एक केन्द्रक होता है लेकिन बाद में ये बहुकेन्द्रकी हो सकती है। सामान्यतया आवृतबीजी पौधों में टेपीटम कोशिकाएँ केवल एक पंक्ति में पायी जाती है लेकिन कुछ पौधों जैसे कोक्सिनिया में टेपिटम की दो या दो से अधिक पर्तें भी मिल सकती है। ऐसी टेपीटम परत की कोशिकाओं में परिनत विभाजन के कारण हो सकता है। टेपिटम की कोशिकाएं स्वतंत्र रूप से विभाजित होती है और ये परिधि से केंद्र की तरफ फैली हुई पायी जाती है। इन कोशिकाओं के जीवद्रव्य में खाद्य पदार्थो के अतिरिक्त कभी कभी वर्णक भी पाए जाते है , जैसे सेब की टेपीटम कोशिकाओं में लाल रंग के वर्णक और एनीमोन में बैंगनी रंग के वर्णक पाए जाते है |

परागकण गोला सूक्ष्मदर्शीय (25-50 um ) होता है इसकी भित्ति दो परतों की बनी होती है।
1 बाह्य चोल(External Chol):-
यह परागकण की बाहरी परत होती है। यह डिजाईन युक्त उभार वाली होती है यह सर्वाधिक ज्ञात प्रतिरोधी कार्बनिक पदार्थ की बनी होती है। जिसे स्पोरोपोत्निन कहते है। इसका जैविक एवं रासायनिक अपघटन नहीं होता है इस पर उच्च ताप सुदृढ अम्लों, क्षारों की क्रिया नहीं होती है यह किसी भी ज्ञात एकजाइम द्वारा निम्बीकृत नहीं होता है। यही कारण है कि परागकण यही कारण है कि परागकण लम्बे समय तक जीवाश्म के रूप में संरक्षित रहते है। ब्राहय चोल में एक स्थान पर स्पोरोपोलेनिन नहीं पाया जाता है जिससे जननछिद्र कहते है।
2 अन्तः चोल:-
यह परागकण की भीतरी परत है। यह सतत एवं अछिद्रित होती है इस पर कोई अक्षर व डिजाईन नहीं पाई जाती है। यह सेलुलोस व पैप्डिन की बनी होती है। अतः चोल के भीतर प्लाजमा झिल्ली से परिबद्ध (सिरा) कोशिका द्रव्य एवं केन्द्रक पाया जाता है।
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परागकण में समसूत्री विभाजन होती है। इसमें दो कोशिकाएं बनती है।
1- कायिका कोशिका(Actin cell)
2- जनन कोशिका(Germ cell)
अधिकाशं 60 प्रतिशत आवृत बीजी पादपों में परागकण का इसी दो कोशिकीय अवस्था में ही स्फूटन होता है। शेष 40 प्रतिशत आवृत बीजी पादपों में जनन कोशिका दो नर युग्मक बनाती है इसप्रकार तीन कोशिकीय नर युग्मभेदभिद का निर्माण हाता है।
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 परागकणों का महत्व(Importance of pollen grains):-
1 आहार संपूरक:- परागकणों को टेबलेट एवं सिरप के रूप में धवक प्रश्नों तथा खिलाडियों द्वारा अपनी कार्यक्षमता में वृद्धि हेतु प्रयाग किया जाता है।
2 पराग एलर्जी:- कुछ पादपों के परागकण एलर्जी एवं श्वसनी विकार (घना श्वसनी शेध ) उत्पन्न करते है जैसे:- पार्थोनिगम (बाजरधातु)
 परागकणों की जीवन क्षमता (अंकुरण क्षमता):- परागकणों की जीवन क्षमता दो कारकों पर निर्भर करती है।
1- तापमान
2- आर्द्धता
परागकण कुछ घण्टे (गेहू, धान में 1 घण्टा) से 6 लेकर कुछ महीने (साॅलेनेसी, रोजेसी, लेग्यूमिनेसी (मटर) 6 साल अंकुरण क्षमता रखते है।
परागकणों को द्रव नाइट्रोजन 1920 डिग्री सेंटीग्रेट पर अण्डारीत करके पराग बैंक के रूप में फसल प्रजनन में प्रयोग करते है।
pistil in hindi in flower स्त्रीकेसर की परिभाषा क्या है | पुष्प में पादप में स्त्री केसर किसे कहते है ?
(Master ovule , Embryo , ) स्त्रीकेसर, गुरु बीजांड और भ्रुणकोश  बीजाण्ड की संरचना
 स्त्री केंसर:- पुष्पासन पर सबसे उपर की पर्व संधि पर पाए जाने वाले पुष्पी भाग को जायांण कहते है इसके अवयय को अण्डप कहते है। अण्डप के तीन भाग होते है।
1 वर्तिकाण्ड:-
यह अण्डप का सबसे उपरी भाग होता है। यह गालाकार चपटा, द्वि शाखीत, पंखीय, रोमिल, उत्तल, अवतल चिपचिपा हो सकता है। यह परागकणों को ग्रहण करने का कार्य करता है।
2 वर्तिका:-
अण्डाशय व वर्तिकाग्र को जोडने वाली लम्बी पतली नलिका को वर्तिका कहते है। यह परागनलिका को मार्ग प्रदान करती है तथा वर्तिकाग्र को प्रव्यपित ऊंचाई तक उपर उठाई रखती है जिससे वह परागकणों को आसानी से ग्रहणक र सकें।
3 अण्डाशय:-
यह अण्डप का पुष्पासन से जुडा हुआ फूला हुआ भाग होता है इसकी गहा में बीजाण्डसन/अपस द्वारा जुडे हुये बीजाण्ड पाये जाते है।
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स्त्रीकेसर : आवृतबीजी पादपों में पुष्प का सबसे भीतरी चक्र स्त्री जननांग को निरुपित करता है जिसे जायांग कहते है।
जायांग चक्र का प्रत्येक सदस्य अण्डप कहलाता है। जायांग में अंडप एक दुसरे से स्वतंत्र (मुक्तांडपी) अथवा संयुक्त (युक्तांडपी) होते है। प्रत्येक अंडप या संयुक्त जायांग तीन प्रमुख भागों में विभेदित किया जा सकता है –
(1) अंडाशय
(2) वर्तिका
(3) वर्तिकाग्र
अंडाशय अंडप का आधारी फूला हुआ भाग होता है , जिसके ऊपर कोमल नलिका सदृश संरचना वर्तिका निकला रहता है। वर्तिका का दूरस्थ सिरा वर्तिकाग्र कहलाता है। वर्तिकाग्र पालिवत अथवा अन्य आकृति का हो सकता है। अंडपो की संख्या के आधार पर जायांग द्विअंडपी , त्रिअंडपी , चर्तुअंडपी , पंचअंडपी या बहुअंडपी कहलाता है। अंडाशय में कोष्ठकों की संख्या के आधार पर यह एक कोष्ठीय , द्विकोष्ठी अथवा बहुकोष्ठी कहलाता है। अंडाशय की भित्ति पर एक अथवा अधिक बीजाण्ड व्यवस्थित होते है और इनके व्यवस्थाक्रम को बीजाण्डन्यास कहते है।
आवृतबीजी पौधों का बीजाण्ड एक वृन्त जैसी संरचना द्वारा बीजाण्डसन से जुड़ा रहता है। इसे बीजाण्डवृंत कहते है। बीजांड की प्रारूपिक संरचना मृदुतकी बीजाण्डकाय की बनी होती है जिसमें एक बड़ी थैलीनुमा संरचना भ्रूणकोश का निर्माण होता है। बीजाण्डकाय चारों तरफ से ऊपरी सिरे पर छिद्र जैसी संरचना को छोड़कर सामान्यतया दो आवरणों द्वारा घिरा रहता है , इन आवरणों को अध्यावरण कहते है। जिस स्थान पर बीजाण्डवृंत बीजाण्ड की मुख्य संरचना से जुड़ता है उस बिंदु को नाभिक कहते है। कभी कभी बीजाण्डवृन्त के जुड़ाव वाले स्थान पर एक उभरी हुई संरचना , दाँतेदार अथवा कंगूरेदार अतिवृद्धि बन जाती है , जिसे राफे कहते है।
बीजाण्ड की संरचना:-
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गुरूबीजक जनन:-
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इस प्रकार आठ केन्द्रीक्रीय सात कोशिकीय मादा युग्मकोद्भिद (भ्रूणकोश) का निर्माण होता है।
परागण (Pollination):- 
परागकोश के स्फूटन से परागकणों का स्त्रीकेंसर की वर्तिकाग्र तक पहुंचने की क्रियाक को परागण कहते है।
पराग कण के प्रकार:- तीन प्रकार के होते है।
1 स्व-युग्मन (auto gamy )
2 सजातपुष्पी (gateinogamy )
2 पर-परागण (xenogamy )
1- स्व-युग्मन:-
परागकोश के स्फूटन से परागकणों का उसी पुष्प की वर्तिकाग तक पहुंचने की क्रियाको स्व-युग्मन कहते है।
स्व-युग्मन की आवश्यकता/शर्ते:-
1  द्विलिंगीयता:- पुष्प द्विलिंगी होना चाहिए
2  समक्रासपक्वता:- परागकोश एवं स्त्रीकेंसर साथ-2 परिपक्व लेने चाहिए।
पुकेसर एवं स्त्रीकेसर पास- 2 स्थित होनेे चाहिए।
अनुन्मील्यता क्पमेजवहवदल (डिसस्टोगोमी) कुछ पादपों में दो प्रकार के पुष्प पाये जाते है।
।. उन्मील परागण पुष्प:- 
ये पुष्प सामान्य पुष्पों के समान होते है यह पूर्णतः खिले होते है तथा सदैव अनावृत रहते है।
अनुन्मील्य परागण पुष्प:-
कुछ पुष्प हमेशा कलिका अवस्था में रहते है तथा कभी अनावृत नहीं होते ये द्विवलिंगी होते है तथा वर्तिकायत एवं पकेंसर पास-2 स्थित होते है इनमें हमेशा स्व-युग्मन ही होता है। इस प्रकार के पुष्पों को अनुन्मलीन/विलस्टोगेमस) पुष्प कहते है तथा क्रिया को अनुन्मील्यता कते है।
उदाहरण:- वायोला (सामान्य पानसी), आक्सेलिस, कोमेलीना (कनकौआ)
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2 सजात पुष्पी परागण:-
परागकोश के स्फूटन से परागकणों का उसी पादप के अन्य पुष्प की पतिकाग्र तक पहुंचने की क्रिया को सजातपुष्पी परागण कहते है।
सजातपुष्पी परागण क्रियात्मक रूप में पर-परागणहोता है किन्तु आनुवाँशिक रूप से यह स्व परागण ही होता है।
अतः सजातपुष्पी परागणएवं स्वयुग्मन को समम्लित रूप से स्वपरागण में अध्ययन किया जाता है।
स्व. परागण के महत्व:-
 लाभ:-
1 परागकण नष्ट होने की संभावना कम होती है।
2 परागकण की सुनिश्चित अधिक होती है।
3 शुद्ध वंश क्रम पाया जाता है।
 हानि:-
नये लक्षण नहीं आते है।
रोग-प्रतिरक्षा में कमी
अंत प्रजनन अवसादन:- उत्पादन व गुणों में कमी
पर-परागण:-
परागकोश के स्फूटन से परागकणों कानुसी जाति के अन्य पादप के पुष्प के वतिकाग्र तक पहुंचने की क्रिया को पर-परागण कहते है।
 पर-परागण के साधन/अभिकर्मक/वाहक-कारक/प्रकार:-
 अनीवीय कायम:- जल व वायु
 जल परागण:- यह अत्यंत सिमित होता है यह लगभग
उदाहरण:-आवृतबीजी वंशो मे पाया जाता है जिनमें अधिकांश एक बीजपत्री पादप होते है।
जैसे:- वैलेस्नेरिया, इाइट्रिला स्वच्छ जलीय जोस्टेरा समुद्री घास।
अपवाद:- 
वाटरहायसिय व वाटर लिलिन मुकुदिनी में जतीय पाद होते हुए भी वाहु एवं किंटोके द्वारा परागण सम्पन्न होता है।
वैलेस्नेरिया में जल-परागण:-
वैबेस्नेरिया में मादा पुष्प एक लम्बे वृन्त के द्वारा जुडा होता है तथा वृन्त के अकुण्डलित होने से पुष्प जल की सतह पर आ जाता है इसी प्रकार नर पुष्प निष्क्रिय रूप से जलधारा के साथ तैरता हुआ मादापुष्प के सम्पर्क में आ जाता है एवं परागण क्रिया सम्पन्न हो जाती है।
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जोस्टेरा में समुद्री परागण:- 
समुद्री घासों मे ंनर पुष्प जल सतह के नीचे पाया जाता है नर पुष्प एवं परागकण की जल सतह के नीचे तैरते हुए वतिक्राग के सम्पर्क में जाते है तथा परागण क्रिया हो जाती है । इस प्रकार के परागण को अधोजल परागण कहते है।
जलपरागीत पुष्पों की विशेषता:-
1- परागकण लम्बे, फीते के समान होते है।
2- पुष्प रंगहीन व गंधहीन होते है।
3- पुष्प मकरंध हीन होते है।
वायु-परागण:-
वायु परागित पुष्पों की विशेषताएं:-
1 परागकण हल्के व चिपचिपाहट रहित होते है।
2 पुकेसर लम्बे एवं अनावृत होते है।
3 वर्तिकाग्र पीढ़ी होनी चाहिए।
4 अण्डाशन में बीजाण्ड एक एवं बडा होता है।
5 पुष्पाकन में असंख्य पुष्प एक पुच्छे के रूप में होते है।
उदाहण:- घास और मक्का। मक्का में पूंदने टैसेल वृतिका एवं वतिक्राण है जिनसे परागकणों को आसानी से ग्रहण किया जाता है।
ठण् जीविय कारक:- परागण क्रिया में अनेक जीव सहायता करते है जिनमें मधुमक्खी, तितली, भँवरा, बई चिटियाँ, औ, सरी सर्प गिको उपवन छिपकली, वृक्षवासी कृन्तक गिलहरी वानर आदि मुख्य है सभी जीवों में कीटो द्वारा सर्वाधिक परागण होता है तथा इनमें भी लगभग 80 प्रशित परागण क्रिया मधुमक्खी द्वारा होती है।
 कीट परागित पुष्पों की विशेषताएं:-
1 पुष्प रंगीन एवं आकर्षक होते है।
2 पुष्प गंधयुक्त होते है। (मणुमक्खी द्वारापरागित पुष्प कलन)
3 पुष्प में मकरंद या पराग का संग्रह होता है।
4 पुष्प पराग बडे होते है यदि छोटे पुष्प हो तो वे एक पुष्प गुच्छ के रूप में एकत्रित होकर उभारयुक्त हो जाते हैै।
उदाहरण:- सालविया, ऐमोरफोफेलस (लम्बोतर पुष्प 6 फीट) युक्का, अंजीर
5 पादप-कीट संबंध:-
उदाहरण:- युक्का-शलभ अंजीर- बई
6 बहिः प्रजनन युक्तियाँ:-
 पर-परागण को प्रोत्साहित करने वाली घटनाएं:-
 पर-परागण की शर्ते/बलिःप्रजनन युक्तियाँ:-
1 एक लिंगि पुष्प:- अरण्ड, मक्का
2 एकलंगाश्रीयी पादप:-सहतूत, पपीता
3 विसमकाल परिपक्वता:-साल्विया
4 वर्तिकाण एवं पुकेसर के मध्य वाला उत्पन्न होना।
5 स्व-उंष्णता या स्व-असाननंस्यता:- वर्तिकरण द्वारा स्वयं के व्याकणाँ को ग्रहण करना।
ऽ पर-परागण का महत्व:-
ऽ लाभ:-
1 संतति में नये लक्षणों की प्राप्ति होती है।
2 विभिन्नताएं आती है।
3 नयी जातियों का विकास होता है।
ऽ हानि:-
1 परागकणों के नष्टहोने की संभावना अधिक होती है।
2 साधन पर निर्भरता अतः सुनिश्चित क्रम।
3 कभी-2 अवाँछित लक्षणों की प्राप्ति हो जाती है।
परागण
पराग कणों के परागकोष से मुक्त होकर उसी जाति के पौधे के जायांग के वर्तिकाग्र तक पहुंचने की किया को परागण कहते हैं द्य परागण दो प्रकार के होते-
स्वपरागणः जब एक पुष्प के परागकण उसी पुष्प के वर्तिकाग्र पर या उसी पौधे पर स्थित किसी अन्य पुष्प के वर्तिकान पर पहुंचता है, तो इसे स्व-परागण कहते हैं।
पर-परागणः जब एक पुष्प का परागकण उसी जाति के दूसरे पौधे पर स्थित पुष्प के वर्तिकान पर पहुंचता है, तो उसे पर-परागण कहते हैं। पर-परागण कई माध्यमों से होता है। पर परागण पौधों के लिए उपयोगी होता है। पर-परागण के लिए किसी माध्यम की आवश्यकता होती है। वायु, कीट, जल या जन्तु इस आवश्यकता की पूर्ति करते हैं।
पादप के महत्वपूर्ण अंग
पुष्पीय पादपों की उत्पत्ति बीजों द्वारा होती हैं
* पत्तीः इसकी सहायता से पौधे में प्रकाश संश्लेषण की क्रिया होती है।
* पुष्पः पुष्प एक विशेष प्रकार का रूपातंरित प्ररोह है, जो तने एवं शाखाओं के शिखाग्र तथा पत्ती के कक्ष में उत्पन्न होता है। पुष्प पौधे के प्रजनन में सहायक होते हैं।
* तनाः तना प्रांकुर से विकसित होता है एवं सूर्य की रोशनी की दिशा में बढ़ता है। इसमें पर्व एवं पर्वसंधि का पूर्ण विकास होता है। विभिन्न कार्यों को सम्पादित करने के उद्देश्य से तने में परिवर्तन होता है।
तने का रूपान्तरणः यह तीन प्रकार का होता हैः (1) भूमिगत, (2) अर्द्धवायकीय, (3) वायवीय ।
* भूमिगत तना: इनके निम्न प्रकार होते हैंः
प्रकंद – जैसे हल्दी
तना बन्द  – जैसे आलू
बल्ब – जैसे प्याज
धनकन्द  – जैसे आलू जड़
* जड़ः यह पौधे का भूमि की तरफ बढ़ने वाला अवरोही भाग होता है, जो प्रकाश से दूर गुरूत्वाकर्षण शक्ति की तरफ बढ़ता है। यह प्रायः मूलांकुर से उत्पन्न होती है। मूलांकुर से निकलने वाली जड़ को मूसला जड़ कहते हैं। कुछ जड़ें जिनमें भोज्य पदार्थ का संग्रहण होने के कारण वे रूपांतरित हो जाती हैं, वे हैंहल्दी, गाजर, शलजम, मूली आदि ।
* बीजः यह अध्यारणी गुरूबीजाणुधानी का परिपक्व रूप होता है। प्रत्येक बीज का बीजावरण, बीजांड के अध्यावरणों के रूपान्तरण से बनता है। जड़ एवं तना का निर्माण क्रमशः बीज के मूलांकुर और प्रांकुर से होता है।
फल
फल का निर्माण अण्डाशय से होता है, हालांकि परिपक्व अण्डाशय को ही फल कहा जाता है, क्योंकि परिपक्व अण्डाशय की भित्ति फल-भित्ति का निर्माण करती है। पुष्प के निषेचन के आधार पर फल के मुख्यतः दो प्रकार होते हैंः
सत्य फलः यदि फल के बनने में निषेचन प्रक्रिया द्वारा पुष्प में मौजूद अंगों में केवल अण्डाशय ही भाग लेता है, तो वह सत्य फल होता है। जैसेः आम
असत्य फल फल के बनने में जब कभी अण्डाशय के अतिरिक्त पुष्प के अन्य भागदृबाह्यदल, पुष्पासन आदि भाग लेते हैं, तो वह असत्य फल या कूल फल के वर्ग में आता है। जैसे-सेब के बनने में पुष्पासन भाग लेता है। फलों व उनके उत्पादन के अध्ययन को पोमोलॉजी कहते हैं।
* सरल फलः जब किसी पुष्प के अण्डाशय से केवल एक ही फल बनता है, तो उसे सरल फल कहते हैं।
ये दो प्रकार के होते हैं- सरस फल और शुष्क फल ।
* सरस फलः ये रसदार, गूदेदार व अस्फुटनशील होते हैं। सरस फल भी छः प्रकार के होते हैंः
 अष्ठिल फलः नारियल, आम, बेर, सुपारी आदि ।
 पीपोः तरबूज, ककड़ी, खीरा, लौकी आदि।
हेस्पिरीडियमः नीबू, संतरा, मुसम्मी आदि ।
बेरीः केला, अमरूद, टमाटर, मिर्च, अंगूर आदि ।
पोमः सेब, नाशपती आदि ।
बैलस्टाः अनार ।
शुष्क फलः ये नौ प्रकार के होते हैंः
कैरियोप्सिसः जौ, धान, मक्का, गेहूं आदि ।
सिप्सेलाः गेंदा, सूर्यमुखी आदि ।
नटः लीची, काजू, सिंघाड़ा आदि
फलीः सेम, चना, मटर आदि ।
सिलिक्युआः सरसों, मूली आदि ।
कोष्ठ विदाकरः कपास, भिण्डी आदि ।
लोमेनटमः मूंगफली, इमली, बबूल आदि ।
क्रेमोकार्यः सौंफ, जीरा, धनिया आदि ।
रेग्माः रेड़ी
पुंजफल इसके अन्तर्गत एक ही बहुअण्डपी पुष्प के श्वियुक्ताण्डपी अण्डाशयों से अलग-अलग फल बनता है, लेकिन वे समूह के रूप में रहते हैं। पुंजफल भी चार प्रकार के होते हैं।
बेरी का पुंजफलः शरीफा
अष्ठिल का पुंजफलः रसभरी
फालिकिन का पुंजफलः चम्पा, सदाबहार, मदार आदि
एकीन का पुंजफल रू स्ट्राबेरी, कमल आदि ।
फल और उसके खाने योग्य भाग
फल खाने योग्य भाग
सेब पुष्पासन
नाशपाती मध्य फलभित्ति
लीची पुष्पासन
नारियल एरिल
अमरूद भ्रूणपोष
पपीता फलभित्ति
मूंगफली बीजपत्र एवं भ्रूण
काजू बीजपत्र
बेर बाह्य एवं मध्य फलभित्ति
अनार रसीले बीजचोल
अंगूर फलभित्ति
कटहल सहपत्र, परिदल एवं बीज
गेहूं भ्रूणपोष
धनिया पुष्पासन एवं बीज
शरीफा फलभित्ति
सिंघाड़ा बीजपत्र
नींबू रसीले रोम
बेल मध्य एवं अन्तः फलभित्ति टमाटर फलभित्ति एवं बीजाण्डसन शहतूत सहपत्र, परिदल एवं बीज
संग्रहित फलः जब एक ही सम्पूर्ण पुष्पक्रम के पुष्पों से पूर्ण फल बनता है, तो उसे संग्रहितध्संग्रथित फल कहते हैं। ये दो प्रकार के होते हैंः
सोरोसिसः जैसे-शहतूत, कटहल, अनानास आदि ।
साइकोनसः जैसे-गूलर, बरगद, अंजीर आदि ।
परागकण एवं परिभाग के रासायनिक घटकों के मध्य होने वाली पारस्परिक क्रिया को पराग-स्त्रीकेसव संकर्षण कहते है। वतिक्रण पर पहुंचने वाले परागकण को इस क्रिया के द्वारा पहचाना जाता है यदि परागकण अयोज्य है तो उसकी अवमति होती है। यदि परागकण योग्य है तो उसकी प्रोन्नति होती है परागकणों का अंकुरण होता है तथा पराग-पश्य घटनाओं को प्रोत्साहन मिलता है।
पर्याप्त जल, पोषक पदार्थ एवं रासायनिक घटकांे की उपस्थित सारा पराग स्त्रीकेशर संकर्षण में हेर-फेर करके अयोग्य परागकणों का भी अंकुरण हो सकता है तथा इस प्रकार संकर संतति बनायी जा सकती है।
एक स्लाइड पर मटर घना, सदाबहार, बालसम आदि के परागकण होते है इन्हें 10 प्रतिशत शर्करा के विलयन में रखते है इन्हें 15-20 मिनट बाद कण शक्ति के माइक्रोसम में दिख्ने पर पराग नली अंकुरित दिखाई देती है।
चित्र
दोहरा निषेचन (द्वि-निषेचन) (Double fertilization) कृत्रिम संकरण क्या है , परिभाषा , प्रकार Artificial hybridization
दो जनकों के दो या अधिक उत्तम लक्षणों को एक ही संतति में प्राप्त करने हेतु उनके मध्य कोश कराने की क्रिया कृत्रिम संकरण कहते है।
कृत्रिम -संकरण की तकनियाँ:-
1 दो जनकों के दो या अधिक ऊतक लक्षणों को एक ही संतति में प्राप्त करने हेतु उनके मध्य कोश कराने की क्रिया कृत्रिम-शँकरण कहते है।
2 कृत्रिम संकरण की तकनियाँ:-
1  विपुंसन (emasculation):- परागकोश के स्फूटन से पहले पुकेसर को हटाने की क्रिया विपुसन कहलाती है पुकेसरों को चिमटी द्वारा अथवा गर्म पानी या एल्कोहाॅल में डूबोकर हटा देते है।
विपूंसन के महत्व:-
1 द्विलिंगी पुष्पों में स्व-पराण को रोकने हेतु
2 थेलीकरण या ओरावतावरण:-
पुष्प के कलिका अवस्था में उनके बत्तीकेसर को एक पतली कागज की थैली (बटर पेपर) के द्वारा ढकने की क्रिया थैलीकरण कहलाती है। वतिक्राग के परिपक्व होने पर थैली को हटाकर वाँछित परागकण डालने के बाद पुनः थैली द्वारा ढक देते है।
महत्व:- अवंाछित परागकणों के संदूषण से बचाने के लिए थैलीकरण की क्रिया की जाती है।
 दोहरा निषेचन (द्वि-निषेचन) (Double fertilization):-
परागनलिका से होती हुई अण्डाशय तक पहुंचती हे तथा बीजाण्डद्वारी सिरे से बीजाण्ड में प्रवेश करती है परागनलिका के दोनो नर युग्मक तक सासकोशिका में युक्त कर दिये जाते है।
1 युग्मक संलयन (दि-संलयन):-
एक नर युग्मक + अण्ड कोशिका =  युग्मनज   भ्रूण
 
2 त्रिसंलयन:-
दूसरा नर युग्मक +  केन्द्रीय कोशिका के  =  प्राथमिक   भूणकोष
ध्रुवीय केन्द्रक शूणकोण केन्द्रक
 
दोहरा निवेचन =   युग्मक संलयन  +    निसंलयन
 निषेचन पश्च संरचनाऐ व घटनाऐं:- निषेचन के पश्चात् युग्मनज से भ्रूण का तथा प्राथमिक भूण पोष केन्द्रक से भ्रूणपोष का विकास होता है तथा अण्डाशय फल में एवं बीजाण्ड बीज में बदल जाता है। इन सब क्रियाओं को निषेचन पश्च घटनाऐं कहते है।
चित्र
भ्रुणपोष :-
प्राथमिक भूणकोण केन्द्रक से भूणणोव का विकास निर्माण होता है भूणपोण का विकास निर्माण होता है भूणपोस का विकास उत्तरोर रूप से भ्रूण के विकास के साथ होता है। महत्व यह आवृतबीजी पादपों में पाया जाने वाला एक प्रकार का अनुकुलन है। जब प्राथमिक भूणपोष केन्द्र के उत्तरोत्तर रूप से विभाजन के द्वारा अनेक केन्द्रक बनते है तो इस प्रकार के भ्रूणपोष को मुक्त केन्द्रीय भूणपोष कहते है। कोशिका अन्य विभाजन के द्वारा अनेक कोशिकाओं का निर्माण होता है। इस प्रकार के भूणपोषको कोशिकीय भूणपोष कहते है।
उदाहरण:- नारियल में नारियल पानी युक्त केन्द्रकीय भूणपोष का तथा इसका सफेद गुदा (घिरी) कोशिकीय भ्रूणपोष का उदाहरण है।
भूणपोष के आधार पर बीजों के प्रकार:-
1  अभ्रुणपोषी बीज(non albuminous seed  ):- 
भ्रूण के विकास के दौरान भ्रूणपोस का पूर्णतः उपयेाग कर लिया जाता है तथा बीजों में भ्रूणपोष नहीं पाया जाता है तो ऐसे बीजों को अभ्रूण पोषी बीज कहते है। उदाहरण:- चना, मटर, सेव मूंगफली
चित्र
2  भ्रुणपोषी बीज (albuminous seed):- 
भूण के विकास के दौरान भूणपोष का पूर्णत उपयोग नहीं किया जाता है। तथा बीजों में अवशिष्ट भ्रूणपोष पाया जाता है जिसका उपयोग बीजों के अंकुरण के दौरान होता है इनके भूणपोषी कहते है।
उदाहरण:- बाजरा, गेहूं, मक्का, अरण्ड, नारियल, सूरजमुखी कुछ बीजों में बीजाण्डकाय भी अवशेष के रूप में पाया जाता है इनमें परिभ्रूणपोही बीज कहते हे। उदाहरण:- चुकन्दर, काली मिर्च
चित्र
बहुलित भ्रूणकोष (multiple embryo sac)
सामान्य परिस्थिति में एक बीजाण्ड में केवल एक ही गुरुबीजाणु होता है जो विकसित होकर एक भ्रूणकोष बनाता है लेकिन अनेक पौधों जैसे केजुराइनेसी और रेननकुलेसी कुल के सदस्यों में एक बीजाण्ड में एक से अधिक भ्रूणकोष पाए जाते है। इस प्रकार एक ही बीजाण्ड में पाए जाने वाले एक से अधिक भ्रूणकोष , बहुलित भ्रूणकोष कहलाते है।
बहुलित भ्रूणकोष , एक ही बीजाण्ड में अनेक कारणों से विकसित हो सकते है जो कि निम्नलिखित प्रकार से है –
1. बीजाण्डकाय में बहुकोशिकीय प्रपसूतक , की उपस्थिति , जैसे – केजुराइनेसी , फेगेसी , रेननकुलेसी , लिलियेसी और रोजेसी कुल के सदस्यों में।
2. कुछ पौधों जैसे एस्टेरेसी कुल के कुछ सदस्यों के बीजाण्डकाय में यद्यपि केवल एक प्रपसू कोशिका ही पाई जाती है लेकिन इससे विकसित चार गुरुबीजाणुओं में से एक से अधिक अर्थात 2 अथवा 3 गुरुबीजाणु भ्रूणकोषों के रूप में विकसित हो जाते है। इस प्रकार के यौगिक भ्रूणकोष , सामान्यतया अंत: स्तर कोशिका पर्त से आवरित होते है।
अधिकांश उदाहरणों में यह देखा गया है कि बहुलित भ्रूणकोष में से केवल एक ही भ्रूणकोष अंत में परिपक्व होता है और शेष विघटित हो जाते है।
प्रश्न और उत्तर
प्रश्न 1 : अगुणित कोशिका होती है –
(अ) गुरुबीजाणु
(ब) गुरुबीजाणु मातृ कोशिका
(स) अंडाशय
(द) बीजाण्डासन
उत्तर : (अ) गुरुबीजाणु
प्रश्न 2 : आवृतबीजी का बीजांड है –
(अ) लघुबीजाणु पर्ण
(ब) गुरुबीजाणुधानी
(स) लघु बीजाणु
(द) गुरूबीजाणु पर्ण
उत्तर : (ब) गुरुबीजाणुधानी
प्रश्न 3 : बीजाण्डद्वार से पराग नलिका प्रवेश को कहते है –
(अ) संयुग्मन
(ब) निभागी प्रवेश
(स) अंडद्वार प्रवेश
(द) मध्य प्रवेश
उत्तर : (स) अंडद्वार प्रवेश
प्रश्न 4 : पोलीगोनम प्रकार का भ्रूणकोष होता है –
(अ) द्विबीजाणुक
(ब) चतुष्क बीजाणुक
(स) चार कोशिकीय
(द) एक बीजाणुक
उत्तर : (द) एक बीजाणुक
प्रश्न 5 : सरसिनोट्रोपस बीजाण्ड पाया जाता है –
(अ) नागफनी में
(ब) सरसों
(स) पोलीगोनम
(द) ड्रुसा में
उत्तर : (अ) नागफनी में

भ्रुण :-
युग्मनाज से भू्रण का विकास होता है। यह भूणपोष से पोषण प्राप्त करके प्राक्भूण के रूप में विकसित होता है तथा उत्तरोत्तर रूप से गोलाकार भू्रण, हदयाकार भूण बनता हुआ परिपक्व भूण बनता है।
 द्विबीजपत्री भ्रुण का विकास:-
द्विबीजपत्री पादपों में दो बीज पत्र पाये जाते है जो भूणीय अक्ष पर लगे होते है भू्रणीय अक्ष का बीजपत्रों के स्थर से उपर का भाग बीजफोपरिक कहलाता है। यह प्राकूर के शीर्ष के रूप में समाप्त होता है। भूणीय अक्ष का नीचला बेलनाकार प्रोटीन से बना भाग बीजपत्राधार hypocotyl  कहलाता है। यह मूलाँकुर में समाप्त होता है मूलाँकूर मूलगोप द्वारा ढका होता हे।
 एकबीजपत्री भ्रुण का विकास:-
एकबीजपत्री पादपों एक ही बीजपत्र पाया जाता है जो भूणीय अक्ष के पाश्र्व एक ओर कम्र में लगा होता है घास कुल में इसे स्कुटेलम प्रश्लक कहते है। भू्रणीय अक्ष में स्कुटलाम के जुडने से उपर वाला भग बीजपत्रोपरिक कहलाता है। यह प्राकुर शीर्ष में समाप्त होता है जो प्राकुर घेल द्वारा घिरा होता है स्कूटेलम के जुडाव से नीचे का भाग बीजपत्रधार कहलाता है अतः मूलाकर में समाप्त होता है। मूलाकुर चोल द्वारा ढका होता ह।
चित्र
 बीज का निर्माण:-
बीजाण्ड :- बीज
अध्यावरण :- बीजचोल
बीजाण्डकाय :- आपहसित
बीजाण्डवृन्त :- बीजवृन्त
बीजाण्डद्वार :- बीजदार
बीजद्वार बीज के अंकुरण के समय उसे आॅक्सीजन एवं जल के अवशेष में समाप्त करता है।
 बीजों में प्रसुप्तावस्था या बीजकुरण:-
बीजों के परिपक्व होने पर उनसे जल की मात्रा कम हो जाती है तथावे क्रमशः शुष्क हो जाते है। उनकी आपचयी क्रिया मन्द हो जाती है इसे प्रस्फुटनावस्था कहते है।
अनुकूल परिस्थितियों में बीज अंकुरित होता है बीजाकुरण हेतु पर्याप्त नयी आॅक्सीजन तथा तापमान की आवश्यकता होती है।
बीज छिटकने के बाद कुछ दिनों से कुछ महीनो की प्रसुप्ती के पश्चात अंकुरित हो जाते है किन्तु कुछ बीजों में बहुत लम्बी अवधि तक प्रसुप्तावस्था पाई गई है।
1 फायोनिक्स डेक्टीलेफेरा खजूर:-
के बीज 2000 वर्ष की प्रसुप्तावस्था बाद अंकुरित हुये। इनसे मृत सागर के पास किंग/हैराल्ड महल की खुदाई के दौरान प्राप्त किया।
उदाहरण-2 ल्यूपिनास आर्कटीकस ल्युपाइन:- का बीज 10000 वर्ष के पश्चात् अंकुरित हुआ इसे आर्कटिक टुण्ड्रा से स्वनित किया गया
2 बीजों का महत्व:-
(A) आवृत बीजी पादपों में महत्व:-
1- स्वयं पर निर्भर:- बीज प्रजनन क्रिया हेतु पूर्णतया स्वतंत्र होता है।
2- अन्य क्षेत्रों में बसने में मदद:-
बीजों में पर्याप्त आरक्षित खाद्य सामग्री होती है तथा बीज चोल इन्हें सुरक्षा प्रदान करता है।
3- विविधता:- बीज लैगिक जनन के उत्पाद है। जिनसे विविधताएं आती है।
(B)कृषि में:-
1- कृषि का आधार:- बीज हमारी कृषि का आधार है। इनमें बीजों का प्रसुव्तावस्था एवं निर्जलीकरण का गुण बहुत महत्वपूर्ण है इनके कारण हम बीजों का वर्षभर स्वाधाय के रूप में प्रयोग करते हे। तथा अगले वर्ष उनके फसल के रूप में बेचा जा सकता है।
फल का निर्माण:-
बाहयदल
दल
पुमंग अपहासिल (छोड जाना)
वर्तिका, वर्तिकाग्र
अण्डाशय भित्ति फल भित्ति
बीजाण्ड बीज
फल सरस/गुदेदार (आम, अमरूद्ध) या शुष्क (सरसों, मुंगफली) हो सकते है।)
फल के निर्माण में केवल अण्डाशय का निर्माण होता है। ऐसे फलो को सत्य वास्तविक ;ज्तनस थ्तनपजेद्ध कहते है।
जब फल के निर्माण में अण्डाशय के अतिरिक्त पुष्पों के अन्य भागों का प्रयोग होता है तो उन्हें कुट/आभासी/मिथ्या ;थ्ंसेमद्ध कहते है।
उदाहरण:- सेव, अखरोट, स्ट्रोबेरी इनमें खाने योग्य भाग पुष्पासन होता है।
चित्र
किसी फल के बीज की संख्या बीजाण्ड पर निर्भर करती है कुछ फलों में बहुत अधिक बीज पाये जाते है ।
उदाहरण:- 
1- (आर्किक लगभग $ 1000 सूक्ष्म बीज)
2- अंकीर (असंख्य बीज)
3- परजीवी – स्ट्राइगा, औराबैन्की
भ्रुणपोष :-
प्राथमिक भूणकोण केन्द्रक से भूणणोव का विकास निर्माण होता है भूणपोण का विकास निर्माण होता है भूणपोस का विकास उत्तरोर रूप से भ्रूण के विकास के साथ होता है। महत्व यह आवृतबीजी पादपों में पाया जाने वाला एक प्रकार का अनुकुलन है। जब प्राथमिक भूणपोष केन्द्र के उत्तरोत्तर रूप से विभाजन के द्वारा अनेक केन्द्रक बनते है तो इस प्रकार के भ्रूणपोष को मुक्त केन्द्रीय भूणपोष कहते है। कोशिका अन्य विभाजन के द्वारा अनेक कोशिकाओं का निर्माण होता है। इस प्रकार के भूणपोषको कोशिकीय भूणपोष कहते है।
उदाहरण:- नारियल में नारियल पानी युक्त केन्द्रकीय भूणपोष का तथा इसका सफेद गुदा (घिरी) कोशिकीय भ्रूणपोष का उदाहरण है।
भूणपोष के आधार पर बीजों के प्रकार:-
1  अभ्रुणपोषी बीज(non albuminous seed  ):- 
भ्रूण के विकास के दौरान भ्रूणपोस का पूर्णतः उपयेाग कर लिया जाता है तथा बीजों में भ्रूणपोष नहीं पाया जाता है तो ऐसे बीजों को अभ्रूण पोषी बीज कहते है। उदाहरण:- चना, मटर, सेव मूंगफली
चित्र
2  भ्रुणपोषी बीज (albuminous seed):- 
भूण के विकास के दौरान भूणपोष का पूर्णत उपयोग नहीं किया जाता है। तथा बीजों में अवशिष्ट भ्रूणपोष पाया जाता है जिसका उपयोग बीजों के अंकुरण के दौरान होता है इनके भूणपोषी कहते है।
उदाहरण:- बाजरा, गेहूं, मक्का, अरण्ड, नारियल, सूरजमुखी कुछ बीजों में बीजाण्डकाय भी अवशेष के रूप में पाया जाता है इनमें परिभ्रूणपोही बीज कहते हे। उदाहरण:- चुकन्दर, काली मिर्च
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बहुलित भ्रूणकोष (multiple embryo sac)
सामान्य परिस्थिति में एक बीजाण्ड में केवल एक ही गुरुबीजाणु होता है जो विकसित होकर एक भ्रूणकोष बनाता है लेकिन अनेक पौधों जैसे केजुराइनेसी और रेननकुलेसी कुल के सदस्यों में एक बीजाण्ड में एक से अधिक भ्रूणकोष पाए जाते है। इस प्रकार एक ही बीजाण्ड में पाए जाने वाले एक से अधिक भ्रूणकोष , बहुलित भ्रूणकोष कहलाते है।
बहुलित भ्रूणकोष , एक ही बीजाण्ड में अनेक कारणों से विकसित हो सकते है जो कि निम्नलिखित प्रकार से है –
1. बीजाण्डकाय में बहुकोशिकीय प्रपसूतक , की उपस्थिति , जैसे – केजुराइनेसी , फेगेसी , रेननकुलेसी , लिलियेसी और रोजेसी कुल के सदस्यों में।
2. कुछ पौधों जैसे एस्टेरेसी कुल के कुछ सदस्यों के बीजाण्डकाय में यद्यपि केवल एक प्रपसू कोशिका ही पाई जाती है लेकिन इससे विकसित चार गुरुबीजाणुओं में से एक से अधिक अर्थात 2 अथवा 3 गुरुबीजाणु भ्रूणकोषों के रूप में विकसित हो जाते है। इस प्रकार के यौगिक भ्रूणकोष , सामान्यतया अंत: स्तर कोशिका पर्त से आवरित होते है।
अधिकांश उदाहरणों में यह देखा गया है कि बहुलित भ्रूणकोष में से केवल एक ही भ्रूणकोष अंत में परिपक्व होता है और शेष विघटित हो जाते है।
प्रश्न और उत्तर
प्रश्न 1 : अगुणित कोशिका होती है –
(अ) गुरुबीजाणु
(ब) गुरुबीजाणु मातृ कोशिका
(स) अंडाशय
(द) बीजाण्डासन
उत्तर : (अ) गुरुबीजाणु
प्रश्न 2 : आवृतबीजी का बीजांड है –
(अ) लघुबीजाणु पर्ण
(ब) गुरुबीजाणुधानी
(स) लघु बीजाणु
(द) गुरूबीजाणु पर्ण
उत्तर : (ब) गुरुबीजाणुधानी
प्रश्न 3 : बीजाण्डद्वार से पराग नलिका प्रवेश को कहते है –
(अ) संयुग्मन
(ब) निभागी प्रवेश
(स) अंडद्वार प्रवेश
(द) मध्य प्रवेश
उत्तर : (स) अंडद्वार प्रवेश
प्रश्न 4 : पोलीगोनम प्रकार का भ्रूणकोष होता है –
(अ) द्विबीजाणुक
(ब) चतुष्क बीजाणुक
(स) चार कोशिकीय
(द) एक बीजाणुक
उत्तर : (द) एक बीजाणुक
प्रश्न 5 : सरसिनोट्रोपस बीजाण्ड पाया जाता है –
(अ) नागफनी में
(ब) सरसों
(स) पोलीगोनम
(द) ड्रुसा में
उत्तर : (अ) नागफनी में

भ्रुण :-
युग्मनाज से भू्रण का विकास होता है। यह भूणपोष से पोषण प्राप्त करके प्राक्भूण के रूप में विकसित होता है तथा उत्तरोत्तर रूप से गोलाकार भू्रण, हदयाकार भूण बनता हुआ परिपक्व भूण बनता है।
 द्विबीजपत्री भ्रुण का विकास:-
द्विबीजपत्री पादपों में दो बीज पत्र पाये जाते है जो भूणीय अक्ष पर लगे होते है भू्रणीय अक्ष का बीजपत्रों के स्थर से उपर का भाग बीजफोपरिक कहलाता है। यह प्राकूर के शीर्ष के रूप में समाप्त होता है। भूणीय अक्ष का नीचला बेलनाकार प्रोटीन से बना भाग बीजपत्राधार hypocotyl  कहलाता है। यह मूलाँकुर में समाप्त होता है मूलाँकूर मूलगोप द्वारा ढका होता हे।
 एकबीजपत्री भ्रुण का विकास:-
एकबीजपत्री पादपों एक ही बीजपत्र पाया जाता है जो भूणीय अक्ष के पाश्र्व एक ओर कम्र में लगा होता है घास कुल में इसे स्कुटेलम प्रश्लक कहते है। भू्रणीय अक्ष में स्कुटलाम के जुडने से उपर वाला भग बीजपत्रोपरिक कहलाता है। यह प्राकुर शीर्ष में समाप्त होता है जो प्राकुर घेल द्वारा घिरा होता है स्कूटेलम के जुडाव से नीचे का भाग बीजपत्रधार कहलाता है अतः मूलाकर में समाप्त होता है। मूलाकुर चोल द्वारा ढका होता ह।
चित्र
 बीज का निर्माण:-
बीजाण्ड :- बीज
अध्यावरण :- बीजचोल
बीजाण्डकाय :- आपहसित
बीजाण्डवृन्त :- बीजवृन्त
बीजाण्डद्वार :- बीजदार
बीजद्वार बीज के अंकुरण के समय उसे आॅक्सीजन एवं जल के अवशेष में समाप्त करता है।
 बीजों में प्रसुप्तावस्था या बीजकुरण:-
बीजों के परिपक्व होने पर उनसे जल की मात्रा कम हो जाती है तथावे क्रमशः शुष्क हो जाते है। उनकी आपचयी क्रिया मन्द हो जाती है इसे प्रस्फुटनावस्था कहते है।
अनुकूल परिस्थितियों में बीज अंकुरित होता है बीजाकुरण हेतु पर्याप्त नयी आॅक्सीजन तथा तापमान की आवश्यकता होती है।
बीज छिटकने के बाद कुछ दिनों से कुछ महीनो की प्रसुप्ती के पश्चात अंकुरित हो जाते है किन्तु कुछ बीजों में बहुत लम्बी अवधि तक प्रसुप्तावस्था पाई गई है।
1 फायोनिक्स डेक्टीलेफेरा खजूर:-
के बीज 2000 वर्ष की प्रसुप्तावस्था बाद अंकुरित हुये। इनसे मृत सागर के पास किंग/हैराल्ड महल की खुदाई के दौरान प्राप्त किया।
उदाहरण-2 ल्यूपिनास आर्कटीकस ल्युपाइन:- का बीज 10000 वर्ष के पश्चात् अंकुरित हुआ इसे आर्कटिक टुण्ड्रा से स्वनित किया गया
2 बीजों का महत्व:-
(A) आवृत बीजी पादपों में महत्व:-
1- स्वयं पर निर्भर:- बीज प्रजनन क्रिया हेतु पूर्णतया स्वतंत्र होता है।
2- अन्य क्षेत्रों में बसने में मदद:-
बीजों में पर्याप्त आरक्षित खाद्य सामग्री होती है तथा बीज चोल इन्हें सुरक्षा प्रदान करता है।
3- विविधता:- बीज लैगिक जनन के उत्पाद है। जिनसे विविधताएं आती है।
(B)कृषि में:-
1- कृषि का आधार:- बीज हमारी कृषि का आधार है। इनमें बीजों का प्रसुव्तावस्था एवं निर्जलीकरण का गुण बहुत महत्वपूर्ण है इनके कारण हम बीजों का वर्षभर स्वाधाय के रूप में प्रयोग करते हे। तथा अगले वर्ष उनके फसल के रूप में बेचा जा सकता है।
फल का निर्माण:-
बाहयदल
दल
पुमंग अपहासिल (छोड जाना)
वर्तिका, वर्तिकाग्र
अण्डाशय भित्ति फल भित्ति
बीजाण्ड बीज
फल सरस/गुदेदार (आम, अमरूद्ध) या शुष्क (सरसों, मुंगफली) हो सकते है।)
फल के निर्माण में केवल अण्डाशय का निर्माण होता है। ऐसे फलो को सत्य वास्तविक ;ज्तनस थ्तनपजेद्ध कहते है।
जब फल के निर्माण में अण्डाशय के अतिरिक्त पुष्पों के अन्य भागों का प्रयोग होता है तो उन्हें कुट/आभासी/मिथ्या ;थ्ंसेमद्ध कहते है।
उदाहरण:- सेव, अखरोट, स्ट्रोबेरी इनमें खाने योग्य भाग पुष्पासन होता है।
चित्र
किसी फल के बीज की संख्या बीजाण्ड पर निर्भर करती है कुछ फलों में बहुत अधिक बीज पाये जाते है ।
उदाहरण:- 
1- (आर्किक लगभग $ 1000 सूक्ष्म बीज)
2- अंकीर (असंख्य बीज)
3- परजीवी – स्ट्राइगा, औराबैन्की
असंगाजनन एवं बहुभूणता ,  अनिषेकफलन (parthenogenesis definition in hindi) की परिभाषा , असंगाजनन एवं बहुभूणता किसे कहते है :-
बिना निषेचन के अण्डाशय के फलों में बदलने की क्रिया अनिषेक कहलाती है। इस प्रकार के फलों का अनिषेकफल कहते है। उदाहरण:-कैला।
 असंगाजनन एवं बहुभूणता:-
बिना निषेचन के बीज के निर्माण की क्रिया के असंगाजनन कहते है। कोई अण्डकोशिका बिना अर्द्धसूत्री विभाजनके बनती है तथा यह सिधे ही भू्रण का निर्माण करती है। उदाहरण:-ऐस्ट्रेसिया, घास
 महत्व:-
1-असंगजनन की क्रिया में अर्द्धसूत्री विभाजन नहीं होता है अतः जीव विनिभय की क्रिया के अभाव के कारण संतति में नये लक्षण नहीं आते है। अतः इस प्रकार बनी संतति को एक पूर्वज संतति (क्लोन) कह सकते है।
2- असंगजन से बनी संतति में नये लक्षण नहीं आते है। यदि किसान संमहित संकर बीजों का प्रयोग करता है तो संतति में लक्षण बदल सकते है। जबकि असंगजनन द्वारा प्राप्त बीजों से उत्तम लक्षण नहीं बदलते है अतः किसान इनका प्रयोग प्रतिवर्ष कर सकता है तथा उसे प्रतिवर्ष संकर बीजों के खरीदने की आवश्यकता नहीं होती है। एक से अधिक भूणों की उपस्थिति बहुभूणता कहलाती है। बीजाण्डकाय की कोई कोशिका सीधे ही भूण में बदल जाती है।
उदाहरण:-नीबू, संतरा।
अनिषेकफलन (parthenocarpy in hindi) : सामान्यतया आवृतबीजी पौधों में फल का निर्माण और विकास परागण के पश्चात् होता है परन्तु कुछ पौधों में फल का विकास परागण अथवा निषेचन या अन्य किसी ऐसे ही उद्दीपन के अभाव में हो जाता है। यह प्रक्रिया अनिषेकफलन कहलाती है। दूसरे शब्दों में बिना निषेचन के फल बनाने की क्रिया अनिषेकफलन कहलाती है। यहाँ फल से वैज्ञानिक अर्थों में हमारा तात्पर्य परिपक्व और निषेचित अंडाशय से है। जब पौधों में निषेचन के पश्चात् फल बनना प्रारंभ होता है तो अंडाशय में अनेक कार्यिकी प्रक्रियाएँ संचालित होने लगती है , जिनके परिणामस्वरूप अंडाशय फल में परिवर्तित हो जाता है। अत: फल बनने की वह प्रक्रिया जिसके अंतर्गत बीजाण्ड में तो निषेचन नहीं होता लेकिन अंडाशय फल में परिवर्तित हो जाता है , अनिषेकफलन कहलाती है।
यहाँ यह उल्लेख कर देना भी तर्कसंगत है कि जब बीजाण्ड में निषेचन नहीं होता तो बीज का निर्माण आवश्यक रूप से नहीं होता लेकिन जैसा कि हम जानते है कुछ आवृतबीजी पौधों में प्राकृतिक रूप से अथवा कृत्रिम संसाधनों द्वारा बीजाण्ड को उद्दीप्त करके बीज प्राप्त कर लिए जाते है , यह परिघटना अनिषेकजनन कहलाती है। अत: अनिषेकजनन और अनिषेकफलन दोनों अलग अलग और सर्वथा भिन्न परिघटनाएं है , एक में बीज का निर्माण होता है , जबकि दूसरी में बीज का निर्माण नहीं होता और बीजरहित फल बनते है , बीज या तो रुद्रवृद्धि (abortive) वाले अविकसित या पूर्णतया अनुपस्थित होते है।
विन्कलर (1908) के अनुसार – बीज रहित फलों की उत्पत्ति को अनिषेकफलन कहते है।
आर्थिक महत्व के अनेक फलों जैसे – केला , संतरा , अंगूर और अनानास में , अनिषेकफलन अथवा बीजरहित फलों का पाया जाना एक सामान्य परिघटना है। विभिन्न पौधों में अनिषेकफलन के सामान्य कारणों में परागण की अनुपस्थिति , निषेचन की असफलता और युग्मनज की बंध्यता आदि उल्लेखनीय है।
अनिषेकफलन का वर्गीकरण (classification of parthenocarpy)
निट्स (1963) के अनुसार उत्पत्ति मूलक कारकों के आधार पर अनिषेकफलन को तीन निम्नलिखित श्रेणियों में विभेदित किया जा सकता है –
1. पर्यावरण अनिषेकफलन (environmental parthenocarpy)
2. आनुवांशिकीय अनिषेकफलन (genetical parthenocarpy)
3. रासायनिक अनिषेकफलन (chemically induced parthenocarpy)
1. पर्यावरण अनिषेकफलन (environmental parthenocarpy) : विभिन्न प्रकार के जलवायु कारक , जैसे कोहरा , धुंध और तापमान में अत्यधिक कमी और ओलावृष्टि ये कुछ ऐसी परिस्थितियाँ है जो पुष्पों की जनन संरचनाओं के सामान्य कार्यकलाप में बाधक होती है और इनसे पौधों में अनिषेकफलन अभिप्रेरित होता है। अत: पर्यावरण कारकों के प्रभाव के कारण उत्पन्न बीजरहित फल बनने की प्रक्रिया को पर्यावरण अनिषेकफलन कहते है। इसके कुछ प्रमुख उदाहरण निम्नलिखित प्रकार से है –
(i) स्मिथ और कोक्रेन (smith and cochran 1935) के अनुसार टमाटर के पौधे में 10 डिग्री सेल्सियस पर परागकण का अंकुरण और परागनलिका की वृद्धि बहुत धीमी होती है। परिणामस्वरूप पराग नलिका बीजाण्ड तक नहीं पहुँच पाती और बीजरहित फल बनते है।
(ii) कोक्रेन (cochran 1936) के अनुसार मिर्च अथवा केप्सीकम के पौधों को पराग परिवर्धन के समय यदि अपेक्षाकृत कम तापमान में रखा जाए तो बीजरहित फल बनते है।
(iii) ल्यूइस (lewis 1942) द्वारा किये गए प्रयोगों में यह देखा गया है कि यदि नाशपाती के पुष्पों को 3 से 19 घंटे तक गलनांक अथवा हिमकारी ताप में रखा जाए तो इनमें अनिषेकफलन होता है।
इसके अतिरिक्त परागण निरोधी पर्यावरण अवस्थाएँ भी अनिषेक फलन को प्रोत्साहित करती है।
2. आनुवांशिकीय अनिषेकफलन (genetic parthenocarpy) : सामान्य परिस्थितियों में यह देखा गया है कि पौधों में कुछ आनुवांशिकीय अनियमितताओ जैसे उत्परिवर्तन , असामान्य अर्धसूत्री विभाजन , बहुगुणिता अथवा संकरण ऐसी परिस्थितियाँ है जो अनिषेकफलन को प्रोत्साहित करती है। फलोत्पादक पौधों में बीजयुक्त और बीजरहित दोनों प्रकार की किस्में पायी जाती है , उदाहरणतया नारंगी में प्रसिद्ध बीजरहित फल की नस्ल , एक बीजयुक्त पौधे की शाखा के उत्परिवर्तन से प्राप्त हुई है। इसके अतिरिक्त , ककड़ी , केला , जामुन , अंगूर और निम्बू की अनेक किस्मों में भी आनुवांशिक अनिषेकफलन पाया जाता है परन्तु गुस्ताफसन (1939) ने कुछ प्रयोगों के आधार पर सिद्ध करने का प्रयास किया है कि साइट्रस वंश की कुछ किस्मों में ऑक्सीन्स की बहुलता के कारण अनिषेकफलन होता है।
3. रासायनिक अनिषेकफलन (chemically induced parthenocarpy) : कुछ रासायनिक पदार्थो के उपचार द्वारा अनेक पौधों में बीजरहित फल प्राप्त किये जा सकते है , इस प्रक्रिया को रासायनिक अनिषेकफलन कहते है। कुछ हार्मोन्स अथवा संश्लिष्ट रासायनिक पदार्थ जैसे – 3-IBA (3 indole butyric acid) , 2-NAA (2-naphthalene acetic acid) आदि के उपचार से अनेक पौधों में अनिषेकफलन को प्रोत्साहित किया जा सकता है।
थीमेन (1934) ने अपने प्रयोगों के आधार पर यह निष्कर्ष प्राप्त किया कि अनेक पादप प्रजातियों के परागकणों में ऑक्सिन्स और अन्य वृद्धि हार्मोन्स पाए जाते है। इसके बाद अनेक वैज्ञानिकों ने इन्डोल एसिटिक अम्ल (IAA) और नेफ्थलीन एसिटिक एसिड (NAA) , जिबरेलिक एसिड और फिनाइल एसिटिक एसिड आदि वृद्धि हारमोंस के 0.5 से 1 प्रतिशत घोल पौधों के वर्तिकाग्र पर छिद्रक कर बीज रहित फल प्राप्त किये .बालासुब्रह्यण्यम और रंगास्वामी (1959) ने अमरूद की विशेष नस्ल “इलाहाबाद गोल” के परागकणों के जलीय निष्कर्षण को विपुंसित पुष्पों के वर्तिकाग्र पर छिडक कर बीजरहित फल प्राप्त करने में सफलता प्राप्त की है। अन्य स्वादिष्ट फलोत्पादक पौधों में बीजयुक्त किस्मों का परागण अवरुद्ध करके अथवा विभिन्न रसायनों द्वारा वर्तिकाग्र पर उपस्थित परागकणों को निष्क्रिय करके अनिषेक फल प्राप्त करने का प्रयास किया गया है।
यासुदा (1939) ने प्रेरित अनिषेकफलन के बारे में निम्नलिखित विशेष तथ्य प्रस्तुत किये ही –
1. आवश्यक उद्दीपन के लिए यदि परागनलिका को केवल वर्तिका के आधारीय भाग तक पहुँचने दिया जाए तो बीजरहित फल प्राप्त किया जा सकते है।
2. परागनलिका से विशेष प्रकार के रसायन का स्त्राव होता है जो अंडाशय के ऊतकों में पहुँचकर फल के विकास को अभिप्रेरित करता है।
3. प्रौढ़ परागकणों से (जो कि निषेचन के लिए सर्वथा अनुपयोगी होते है ) वर्तिकाग्र को परागित करवाकर अथवा परागकणों के घोल को वर्तिकाग्र पर छिडकाव करके भी बीजरहित फल प्राप्त किये जा सकते है। यासुदा के अनुसार पराग कणों में वृद्धिकारी हार्मोन्स अथवा ऑक्सिन होते है जो अनिषेकफलन को प्रोत्साहित करते है।
अनिषेकफलन का महत्व (significance of parthenocarpy)
इस प्रक्रिया का विशेष महत्व विभिन्न खाद्योपयोगी फलों जैसे अंगूर , चेरी , सेब , नाशपाती आदि की स्वादिष्ट और बीजरहित उत्तम गुणवत्ता की किस्में प्राप्त करने में है।
कृत्रिम अनिषेकफलन की सहायता से फलों में उत्पन्न विभिन्न प्रकार की विकृतियों की रोकथाम भी की जा सकती है।
प्रश्न और उत्तर
प्रश्न 1 : अनिषेकजनन होता है –
(अ) अंडकोशिका से
(ब) अंडाशय से
(स) बीजाण्ड से
(द) निभाग से
उत्तर : (अ) अंडकोशिका से
प्रश्न 2 : अनिषेकजनन में अंडाशय से फल बनने की प्रक्रिया –
(अ) अपबिजाणुता
(ब) अनिषेक फलन
(स) अपयुग्मन
(द) संयुग्मन
उत्तर : (ब) अनिषेक फलन
प्रश्न 3 : संवर्धन प्रयोगों की पूर्व निर्धारित आवश्यकता है –
(अ) स्वस्थ पुष्प
(ब) स्वस्थ पादप
(स) उचित पोषण माध्यम
(द) परागण
उत्तर : (स) उचित पोषण माध्यम
प्रश्न 4 : पर्यावरणीय कारकों द्वारा बीज रहित फल बनने की प्रक्रिया कहलाती है –
(अ) बाह्य फलन
(ब) अन्त: फलन
(स) अनिषेकजनन
(द) पर्यावरणीय अनिषेक फलन
उत्तर : (द) पर्यावरणीय अनिषेक फलन

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