मनुष्य एकलिंगी लैगिक प्रजनन करने वाला एवं सजीव प्रजक प्राणी है इसमें लैगिक द्विरूप्ता पाई जाती है। मानव में यौवनारंभ पर होने वाली मुख्य घटनाएं निम्न है:-
1 युग्मक जनन
2 वीर्यसेचन
3 निषेचन
4 युग्मनज का बनना व विकास
5 कोरकपुटी का बनना
6 अन्तरोपण
7 गर्भविधि
8 प्रसव
पुरूष जनन तंत्र (male reproduction system)
1 मुख्य नर जनन अंग :-
मनुष्य (पुरूष) में मख्य जनन अंग के रूप में एक जोडी वृषण पाये जाते है जो 2-3 सेमी चैडे एवं 4-5 सेमी लम्बे होते है। वृषणों पर एक ढीला आवरण पाया जाता है जिसे वृषण कोण;ज्मेजमे ैंब कहते है।
वृषण उदर गुहा के बाहर दोनो टाँगों के मध्य वृषण कोश में स्थित होते है। क्योकि इनका तापमान उदरगुहा की तुलनाम में 2-2.50 degree सेंटीग्रेट से कम होता है जो कि शुक्राणुओ के निर्माण के लिए उपयुक्त होता है।
2 पुरूष सहायक लिंग नलिकाऐं:-
मानव में नर में निम्न सहायक जन नलिकायें पायी जाती है।
वृषण जालिका (rete testis)
शुक्रवाहिकायें (vasa efferentia) वृषण के अन्दर
अधिचृषण (एपिडिमिस )(epididymis) वृषण के लगभग
6 मीटर लम्बी अत्यधिक कुण्डलित।
शुक्रवाहक (vas deferens)
रूखलनीय वाहिनी (ejaculatory ducts)
जनन मूत्र नलिका (Genital urinary canal)
3 बाह्रा जननेन्द्रिय:-
नर में ब्राहा जननेन्द्रिय के रूप में एक लम्बी बेलनाकार पेशिय रचना पाई जाती है जिसे शिशन च्मदपे कहते है। इसका अग्र सिर फुला हुआ होता है। च्मदपे जिसे शिशनमुण्ड ळसंेे चमदपे कहते है। इसके अग्र सिरे पर त्वचा का ढिला आवरण होता है जिसे शिशन घर कहते है इसके नीचे जनन मूत्र छिद्र पाया जाता है।
सामान्य अवस्था में शिशन शिथिल होता तथा मूत्र त्याग का कार्य करता है लैगिक उत्तेजना के समय यह पेशियों के कारण लम्बा एवं कठोर हो जाता है जिससे वीर्यसेचन की क्रिया सुगमतापूर्वक होती है।
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4 नर सहायक जनन ग्रन्थियाँ-
चित्र.
मनुष्य में तीन सहायक जनन ग्रन्थियाँ पाई जाती है।
1- शुक्राशय सेमीनल वेसिकल:- एक जोडी
2- प्रोस्टेट ग्रन्थि जो पुरस्थ ग्रन्थि:- एक होती है।
3- कंद-मूत्र पथ ग्रन्थियाँ (बल्बोयूरिथल ग्लेण्ड) (क्राउपर ग्रन्थि) त्र एक जोडी
कार्य:-
नर सहायक जनन ग्रन्थियों से उत्पन्न स्त्राव को शुक्रीय द्रव ैमउदंस चसंेउं कहते है। इससे ब्ं फेक्टोजैमउपदंस च्संेउं कुछ एन्जाइम पाई पाये जाते है।
कंद:-
मूत्रपथ ग्रन्थि का स्त्राव शीशन को स्नेठन (चिकनाई) प्रदान करता है ताकि मैथून क्रिया के दौरान वीये सेचन की क्रिया सुगमता से हो सके।
वृषण की आन्तरिक संरचना:-
प्रत्येक वृषण पर उपत्वचा का एक मोटा कठोर आवरण होता है जिसे श्वेत कुचुक कहते है प्रत्येक वृषण में लगीाग 250 कक्षक पाणि पाई जाती है। जिनके वृषणपातिका कहते है।
प्रत्येक वृषण पालिका में एक से तीन 1-3 नलिका पाई जाती है जिनहें शुक्रजनन नलिका (seminiferous tubules)कहते है। इनसे निकली सूक्ष्म नलिकाएं वृषण नलिकाएं बनाती है।जो शुक्रवाहिका में खुलती है तथा शुक्रवाहिकायें वृषण से बाहर निकलकर अधिवृषण में खुलती है।
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शुक्रजनक कोशिका में दो प्रकार की कोशिका पाई जाती है।
1 नर जर्म कोशिका शुक्रजन कोशिका स्परमेटोगोनिय:-
यह शुक्राणुओं का निर्माण करती है।
2 सरटोली कोशिका:-
ये पिरमिड के आकार की बडी कोशिका होती है ये शुक्राणुओं को पोषण देती है।
शुक्रजनक केतिका मध्य अवकाश को अन्तराली अवकाश कहते है। इसमें मुख्य रूप से अन्तराली कोशिका लेडिग कोशिका पाई जाती है इनके द्वारा एण्ड्रोजन पुंजन हार्मोन का स्त्रवण होता है जो नर के गौणसेगिन लक्षणों का नियंत्रण करता है इसके अतिरिक्त अंतरीाली अवकाश में तंत्रिका कोशिका, रूधीर कोशिका एवं कुछ प्रतिरक्षी कोशिका पाई जाती है।
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मादा जनन तंत्र
1 मुख्य जनन अंग:- मादा में मुख्य जनन अंग के रूप में एक जोडी अण्डाशय ;व्अमतलद्ध पाये जाते है। जो 2-4 सेमी लम्बे होते है अण्डाशय उदर गुण में श्रेणी प्रदेश में स्थित होते है तथा श्रोणी थित्ति एवं स्नायू द्वारा गर्भााशय से जुडे होते है।
2 सहायक जनन नलिका:-
मनुष्य के मादा में सहायक जनन नलिकाओं के रूप में अण्डवाहिनी, गर्भाशय एवं योनि पाये जाते है।
1- अण्डवाहिनी (oviduct)) (डिम्बवाहिनी):-
यह 10-12 सेमी लम्बी नलि होती है। जो अण्डाशय के समीप स्थित होती है तथा दोनो ओर की अण्डवाहिनी गर्भााशय से जुडी होती है। यह तीन भागों की बनी होती है:-
a कीपक
b . तुम्बिका
c . इस्थमस
अण्डवाहिनी का अगला भाग कीप के समान होता है जिसे कीपक (infundibulam)) कहते है। यह झालरदार होता है जिसके कारण यह अण्डों को आसानी से ग्रहण करता है कीपक के पीछे अण्डवाहिनी का क्रराबो वरेछर भंग तुम्बिका या ampulu कहलाता है। इाके अण्ड वाहिनी एक संकरी नलिका के रूप में गर्भाशय से जुडी होती है जिसे संकीर्ण पथ इस्थमस कहते है।
2-गर्भाशय (Uterus or womb ) बच्चेदानी:-
दोनो ओर की अण्डवाहिनीयाँ एक चैडे थैेले समान संरचना में मिलती है जिसे गर्भाशय कहते है यह उल्टी नाशपति के आकार का होता है इसका निचला भाग गर्भााशय ग्रीवा कहलाता है जो योनि के साथ मिलकर जन्म नाल बनाता है जन्मनाल के द्वारा प्रसव क्रिया के माध्यम से शिशु का जन्म होता है। गर्भाशय की गुफा को गर्भाशय गुहा कहते है।
गर्भाशय की आंतरिक संरचना:-
गर्भाशय की भित्ति तीन स्तरो से बनी होती है।
1 परिगर्भाशय (पेरीमेट्रियन) यह गर्भाशय का सबसे बाहरी स्तर है जो पतला झिल्ली रूपी होता है यह गर्भाशय को सुरक्षा प्रदान करता है।
1. मध्य स्तर (myometrium):- यह गर्भाशय भित्ति-
यह गर्भाशय भित्ति का सबसे भीतरी स्तर है यह चिकनी पेशियों का बना होता है इस स्तर में प्रसव के दौरान संकुचन उत्पन्न होते है।
2. अंत-स्तर एड्रेमेट्रियम:-
यह गर्भाशय भित्ति का सबसे भीतरी स्तर है जो ग्रन्थियों का बना होता है। आर्तव चक्र केदौरीान इस स्तंर की कोशिकाऐ नष्ट हो जाती है।
3. योनि (Vagina):- यह एक सकरी छोटी नलिका होती है जो शुक्राणुओं को ग्रहण करने का कार्य करती है।
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ब्राहा जननेन्द्रिय:-
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मादा में बाहा जननेन्द्रिय के रूप में जघन शैल, वृहद भगोष्ठ, लघु भगोष्ठ, क्लाइटोरिस, हाइमेन पाये जाते है।
जघन शैल-(माँस प्यूबिस):-
मूत्र मार्ग के उपर वसा युक्त ऊतकों की एक गद्दी पाई जाती है जिसे जघन शैल कहते है। यह त्वचा एवं जघन बालों से घिरी होती है।
प्प्ण् वृहद भगोष्ठ (लीबिया मेजोरा):-
योनीद्वार को घेरे हुये ऊतको का मासलवसन पाया जाता है जिसे वृहद्ध भगोष्ठ कहते है।
लघु भगोष्ठ लीबिया माइनरा:-
वृहद भगोष्ठ के भीतर स्थित ऊतों के माँसलवसन को लघु भगोष्ठ कहते है।
प्टण् क्लाइटोरिस (अगसेफ):-
वृहद भगोष्ठ के ऊपरी किनारो पर दोनो वलनो के मिलन बिन्दु पर अंगुली के समान छोटी उभार पाया जाता है जिसे क्लाइटोरिस कहते है। यह नर के शिशन के समतल एक अंतरोधी अंग पाया जाता है।
टण् हाइमेन (योनिच्छद):-
योनिद्वार को ढकने वाली पाली पतली झिल्लीनुमा आवरण को हाइमेन कहते है। हय प्रायः प्रथम बार मैथून करने पर फट जाती है। किन्तु घुडसवारी करने, साइकिल चलाने, व्यायाम करने से भी हाइमेन फट सकती है। इसलिए इसे कौमार्य (कुमारी) का प्रतीक नहीं माना जाता है अर्थात योनिच्छद ;टपतहपदपजलद्ध का फटा हुआ होना योन अनुभव का सुचक्र नहीं है।
4 मादा सहायक जनन ग्रन्थियाँ:-
1- बार्थोलिन ग्रन्थि:-
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मनुष्य के मादा में एक जोडी क्रियाशील स्तरग्रन्थियाँ पाई जाती है जो पसातियों पर अंशीयपेशी द्वारा जुडे हुए होते है, प्रत्येक स्तन ग्रन्थि में वसायुक्त ऊतक ग्रन्थिल कोशिकायें पायी जाती है प्रत्येक स्तर ग्रन्थि में 15-20 पालियां पाई जाती है जिन्हें स्तन पलि कहते है। इसमें कोशिकाओं के गुच्छे पाई जाते है जिनसे कूपिका कहते है। अपिका के गुहा में युग्धका निर्भय होता है जो कूपिका वाहिनी के द्वारा जो स्वन वाहिनी में खुलती है प्रत्येक स्तनपलि से स्तन वाहिनी निकलकर दुग्ध वाहिनी बनाती है जो स्तन परिवेश पर चूचक पर स्थित छिद्रो के द्वारा बाहर खुलती है
1. युग्मक जनन:- जनदों में युग्मकों के बनने की क्रिया युग्मक जनन कहलाती है। यह क्रिया दो प्रकार की होती है।
2. शुक्रजनन:- वृषण में शुक्राणु के निर्माण की क्रिया को शुक्रजनन कहते है।
यौवनारंभपर:-
1 गुणन 2n उत्परिपक्व नर जर्तकोशिका
समसूत्री विभाजन
2 वृद्धि 2n शुकाणुजन कोशिका
प्राथमिक शुक्राणु कोशिका
3 परिपक्व.अर्द्धसूत्री:-I
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शुक्राणुजन की क्रिया का नियंत्रण:-
1 हाइपोथैलेक्स GnRH
(अश्वचेतक) (गोनेडोट्रपिन रिलीज हार्मोन)
पीयूष ग्रन्थि के अग्र भाग से GTH
अथश्चेतक (गोनेडोट्रापिन रिलीज हार्मोन)
LH ल्यूटिनाइजिंग हार्मोन) FSH
पीतपिण्ड हार्मोन (follicle stimulating hormone )
लेडिग कोशिका पुटकोदप्रेरक हार्मोन
(एण्डोजन)पुंजन हार्मोनसरटोली कोशिका
शुक जनन शुक्रजनन में सहायता
शुक्राणु की संरचना:-
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अण्डजनन:-
जन्म से पूर्व:-
1 गुणन 2n आदि जनन कोशिका
-समसूत्री विभाजन
2n अण्डजननी (Oogonia )
2 वृद्धि प्राथमिक पुटक, द्विक्ष्तीयक, तृतीयक कोशिका
2दप्राथमिक अण्ड कोशिका
3 परिपक्व (primary oocyte ))
अर्द्धसूत्री:-I
n n
धु्रवीय काम:-II द्वितीयक अण्ड-कोशिका
(secondary oocyte )
अर्द्धसूत्री-
n n
ध्रुवीय क्रम:-II (Ootid )
मादा प्राइमेट में पाये जाने वाले जनक चक्र को रज चक्र कहते है।
यौवनाराम्भ होने पर मोदा में योनि मार्ग से नियमित अंतवास पर रक्त प्रवाह होता है यह क्रिया जब प्रथम बार होती है उसे रजोदर्शन ;डमदंतबीद्ध कहते है। यह क्रिया प्रायः 13-15 वर्ष की आयु में प्रारंभ होती है यह क्रिया लगभग 40-50 आयु में बंदतो जाती है। जिसे रजो निवृत्ति ;डवदवचनतनेमद्धअंतराल में होने वाली इन क्रियाओं को आर्तव चक्र कहते है। इसकी अवधि 28-30 दिन की होती है।
रजनो दर्शन से निरजोनिवृत्ति तक कोई महिला गर्भाधारण कर सकती है। गर्भावरण करने पर आर्तवचक्र बंद हो जाता है किन्तु आर्तव चक्र का न आना हमेशा गर्भाधारण का सूचक नहीं होता है। कमजोरी, तनाव या अन्य किसी कारणों से अतिव चक्र नहीं हो सकता है।
आर्तव अवस्था:-
यह अर्तवचक्र की प्रथम प्रावस्था है।
यह एक से लेकर 3 या 5 दिनाँक जारी रहती है।
इसमें योनि मार्ग से रक्त स्राव होता है। इसमें गर्भाशय से ़़त्र अतंःस्तर नष्ट हो जाता है तथा रक्त वाहिनियाँ फट जाती है।
पुटकीय अवस्था:-
यह आर्तव चक्र की दूसरी अवस्था है।
यह 8 वे दिन से 13 वें दिन तक पायी जाती है।
अण्डाशयों में पुटकों का विकास होता है।
गर्भाशय की अंतःस्तर एण्डोमेट्रिसम की मरम्मत होती है।
स्भ् व थ्ैभ् की मात्रा में क्रमशः वृद्धि होती जाती है।
अण्डोत्सर्ग:-
यह आर्तव चक्र की तृतीय अवस्था है।
यह 14 वें दिन होती है।
LH हार्मोन का स्त्रवण अधिकतम होता है जिसे स्भ् सर्ज कहते है जो अण्डोत्सर्ग को प्रेरित करता है।
ग्राफी पुरक फट जाता है तथा अण्डाणु का मोचन हो जाता है इस क्रिया को अण्डोत्सर्ग कहते है।
पित पिण्ड अवस्था:-
1 यह आर्वव चक्र की अंतिम अवस्था है
2 15 वे से 28 दिन तक पाई जाती है।
3 फटा हुआ ग्राफी पुटक एक अंस्त्रावी ग्रन्थि में बदल जाता है जिसेपित पिण्ड कहते है।
अपण् निषेचन न होने पर पिण्ड श्वेत पिण्ड में बदल जाता है अगला आर्तव चक्र आरंभ हो जाता है।
आनुवंशिकी
‘आनुवंशिक’ शब्द का उपयोग वेटसन द्वारा 1906 में किया गया था। प्रत्येक जीव में बहुत से ऐसे गुण होते हैं जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी माता-पिता से उनकी संतानों में संचारित होते रहते हैं। जीवों के इन मूल गुणों का संचरण आनुवंशिकता कहलाता है। इसी के कारण ही प्रत्येक जीव के गुण अपने माता-पिता के गुणों के समान होते हैं।
* इन गुणों का संचरण एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में माता-पिता के युग्मकों के द्वारा होता है।
* आनुवंशिकता एवं विभिन्नता का अध्ययन जीव-विज्ञान की जिस शाखा के अन्तर्गत किया जाता है, उसे आनुवंशिकी या जेनेटिक्स कहते हैं।
* ग्रेगर जॉन मेंडल (1822-84) ने मटर के पौधे पर संकरण का प्रयोग कर आनुवंशिकी के क्षेत्र में एक नयी अवधारणा की शुरूआत की। मेंडल को आनुवंशिकी का जनक कहा जाता है।
* आनुवंशिकी के क्षेत्र में मार्गन, ब्रिजेज, मूलर, सटन, बीडल, नौरेनबर्ग एवं डॉ. हरगोविन्द खुराना का कार्य अविस्मरणीय है।
* आणविक आनुवंशिकीः प्रत्येक जीव में गुणसूत्रों की संख्या निश्चित होती है। गुणसूत्र हिस्टोन प्रोटीन एवं न्यूक्लिक अम्ल (डीएनए व आरएनए) से बना होता है। डीएनए एवं आरएनए दोनों ही न्यूक्लियोटाइड के बहुलक होते हैं। न्यूक्लियोटाइड निम्नलिखित पदार्थों से मिलकर बनते हैंः
1. शर्करा
2. नाइट्रोजीनस झार
3. फॉस्फेट
* आनुवंशिक अभियांत्रिकीः यह एक ऐसी आनुवंशिक तकनीक है जिसमें जीवों के जीन का परिचालन किया जाता है, जिसकी वजह से इसमें जेनेटिक कोड स्थायी रूप से बदल जाते हैं।
* डीएनए की सफलतापूर्वक ग्राफ्टिंग सर्वप्रथम पॉलवर्ग द्वारा की गई थी। इसे डीएनए ैट-40 (सिमियन वायरस-40) से लिया गया था और इसे बैक्टीरिया के डीएनए से मिलाया गया।
मेंडल के आनुवंशिकता के नियम
इस नियम के अनुसार युग्मकों के निर्माण के समय कारकों (जीन) के जोड़े के कारक अलग-अलग हो जाते हैं और इनमें से केवल एक कारक ही युग्मक में पहुंचता है। दोनों कारक एक साथ युग्मक में कभी नहीं जाते । इस नियम को युग्मकों की शुद्धता का नियम भी कहा जाता है। मेंडल के नियमों में पहला एवं दूसरा एकसंकरीय क्रॉस के आधार पर तथा तीसरा नियम द्विसंकरीय क्रॉस के आधार पर आधारित है।
लैंगिक जनन
लैंगिक प्रजनन गेमेट्स के उत्पादन में शामिल रहता है और एक पुरूष एवं एक महिला के युग्मक के संयोजन से युग्मनज (जाइगोट) के उत्पादन में भी सम्मिलित रहता है। जीवधारियों में, युग्मक शुक्राणु होते हैं और मादा युग्मक अण्डाणु होते हैं । लैंगिक जनन में दो भिन्न-भिन्न लिंग वाले जीवों-एक नर और एक मादा की सहभागिता की आवश्यकता होती है द्य जनद अर्द्धसूत्री विभाजन द्वारा युग्मक बनाते हैं। लैंगिक जनन, संततियों में गुणों की विविधताओं को बढ़ावा देता है क्योंकि इसमें दो विभिन्न तथा लैंगिक असमानताओं वाले जीवों से आए युग्मकों का संलयन होता है।
आनुवांशिक विपथन या उत्परिवर्तन
जब किसी आनुवंशिक परिवर्तन के कारण किसी जीव के बाहरी रूप (फीनोटाइप) में परिवर्तन होता है, तो इस प्रकार का परिवर्तन उत्परिवर्तन या न्यूटेशन कहलाता है। ये दो प्रकार के होते हैंः
1. क्रोमोसोम उत्परिवर्तनः इसमें क्रोमोसोम की संख्या या उसकी
रचना में परिवर्तन होता है।
2. जीन उत्परिवर्तनः इसमें जीन की रचना परिवर्तित होती है।
गुणसूत्र संख्या
गुणसूत्र केंद्रकों के भीतर जोड़ों में पाये जाते हैं और कोशिका विभाजन के साथ केंद्रक सहित विभाजित किये जाते हैं। इन्हें पूर्वजों के पैतृक गुणों का वाहक कहा जाता है। इनकी संख्या जीवों में निश्चित होती है, जो एक दो जोड़ों से लेकर कई सौ जोड़ों तक हो सकती है। इनमें न्यूक्लिओं-प्रोटीन मुख्य रूप से पाई जाती है। गुणसूत्र में आनुवंशिक गुणों को धारण करने वाली रचनाएं पाई जाती हैं जिन्हें जीन कहते हैं द्य मानव कोशिका में गुणसूत्रों की संख्या 46 होती है जो 23 के जोड़े में होती है।
गुणसूत्र की संरचना
गुणसूत्र की संरचना में दो पदार्थ विशेषतः सम्मिलित रहते हैंः
(1) डिआक्सीरिबोन्यूक्लिक अम्ल या डीएनए तथा
(2) हिस्टोन नामक एक प्रकार का प्रोटीन ।
डीएनए ही आनुवंशिक पदार्थ है। डीएनए अणु की संरचना में चार कार्बनिक समाक्षार सम्मिलित होते हैंः दो प्यूरिन, दो पिरिमिडीन, एक चीनी-डिआक्सीरिबोज और फासफोरिक अम्ल द्य प्यूरिन में ऐडिनिन और ग्वानिन होते है और पिरिमिडीन में थाइमीन और साइटोसिन । डीएनए के एक अणु में दो सूत्र होते हैं, जो एक दूसरे के चारों और सर्पिल रूप में वलयित होते हैं। प्रत्येक डीएनए सूत्र में एक के पीछे एक चारों कार्बनिक समाक्षार इस क्रम से होते हैं-थाइमीन, साइटोसिन, ऐडिनीन और ग्वानिन, एवं वे परस्पर एक विशेष ढंग से जुड़े होते हैं। इन चार समाक्षारों और उनसे संबंधित शर्करा और फास्फोरिक अम्ल अणु का एक एकक टेट्रान्यूक्लीओटिड होता है और कई हजार टेट्रान्यूक्लीओटिडों का एक डीएनए अणु बनता है।
लिंग निर्धारण का आनुवंशिक आधार
लिंग क्रोमोसोमः प्रत्येक मानव कोशिका में 46 क्रोमोसोम या 23 जोड़े होते हैं। 23 जोड़ों में से 22 जोड़े नर और मादा दोनों में समान होते हैं। एक जोड़ा जो नर और मादा में अलग होता है वह लिंग क्रोमोसोम कहलाता है। यही किसी व्यक्ति के लिंग का निर्धारण करता है।
आटोसोम लिंग क्रोमोसोम के अलावा क्रोमोसोम होते हैं और नर एवं मादा में समान होते हैं। वे लिंग निर्धारण नहीं करते हैं।
प्रत्येक मानव कोशिका में
23 क्रोमोसोम के जोड़े = 22 आटोसोम के जोड़े 1 जोड़ा लिंग क्रोमोसोम
मादा = 22 जोड़ा + गग
नर = 22 जोड़ा + गल
विदलन व अंतरोर्पण
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निषेचन के पश्चात् बना युग्मनज तेजी से अण्डवाहिनी के संकीर्ण पथ से गर्भाशय की ओर गति करता है। इस दौरान उसमें होने वाले समसूत्री विभजनों को विदलन कहते है। इससे क्रमशः 2, 4, 8, 16 कोव व दण्ड बनाते है। 8-10 को वक्र खण्डों से बनी संरचना तूतक (माॅरूसा) कहलाती है यह गर्भाशय में प्रवेश करके कोरकपुटीबलाटोसिरट बनाती है इसमें कोशिकाओं का बाहरी स्तर पोठकोरक कहलाता है पोटकोरक के भीतर स्थित कोशिकानी का समूह अंतर कोशिका समूह प्ददमत ब्मसस उंेे कहलाता है। अंतरकोशिका समूह की कुछ कोशिकाएं किसी भी उत्तक अथवा अंग का निर्माण कर सकती है ऐसी कोशिकाओं को स्टेन सैल स्तम्भकोशिका कहते है।
सगर्भता व भ्रूणीय परिवर्तन:-
कोरकपुटी के गर्भाशयक अंत स्तर में स्थापित हो जाना अन्तरोपणपउचसंदजंजपवद कहलाता है इसके साथ ही गर्भधारण हो जाता है जिसे सर्गभता कहते है।
भ्रूण ने अंगुली के समान उभार बन जाते है जिन्हें जरायु अकुंरक कोरिमोनिक विलाई कहते है भू्रूण गर्भाशय एवं मानक ऊतक से अध्वाँदित हो जाता है।
भ्रूण के जरायु अकुंरक एवं गर्भायी ऊतक एक अंतरा अंगुली युक्त संरचना बनाते है जिसे अरा कहते है। वह भ्रूण एवं मातृक ऊतक के मध्य क्रियात्मक संबंध बनाता है।
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अपरा के कार्य:-
1 भ्रूण को आॅक्सीजन एवं पोषक पदार्थे की आपूर्ति करती है।
2 ब्व्2 एवं अन्य अपशिष्ट पदार्थो का उत्सर्जन करता है।
3 भ्रूण व माँ के मध्य आवश्यक पदार्थो का आदान-प्रदान करना जैसे औषधियाँ।
4 हार्मोन स्त्रावण:- अपरा द्वारा चार प्रकार के हार्मोन स्त्रावित होते है।
ए- मानव जरायु गोनेडोसपिन
बी- मानव अपरा लेक्टोजन
सी- प्रोजेस्टेरोन
डी- एस्टोजन
इसके अतिरिक्त सगर्भता के उत्तरार्द्ध में अण्डाशय द्वारा रिलेक्सिन हार्मोन स्त्रावित होता है सगर्भवा के दौरान ही सर्टिसाल, आइराॅक्सिन, प्रोलेक्टिन की मात्रा एवं उत्पादन बढ जाता है। जो माँ की उपाचयी क्रिया, सर्गता बनाये रखने एवं भ्रूण के विकास में सहायक होते है।
तीन जनन स्तरों का निर्माण:-
भु्रण मे ंएक बाहय स्तर का निर्माण होता है जिसे एक्टोडर्म कहते है तथा भीतरी स्तर एण्डोडर्म कहलाता है। कुछ समय पश्चात् दोनो के मध्य एक तीसरा स्तर बनता है जिसे मिजोडर्म कहते है इन तीन जनन स्तरों के साथ ही सभी अंगों एवं तंत्रों का निर्माण होता है।
भ्रूण का विकास:-
दिन :- युग्मनज
1 दिन :- दो कोशिका
2 दिन :- 16 कोशिका
3 दिन
4 दिन :- गर्भाशय में प्रवेश
7-8 दिन :- अंतर्रोपण
1 माह बाद :- हदय की धडकन
2 माह बाद :- पाद व अगुंलिया
5माह बाद :- जननाँग सलित सभी अंग
5 माह बाद:-गतिशीलता
6 माह बाद :- बराॅनियावपलकाँ का निर्माण व शरीर पर कोमल बाल
9 माह बाद :- पूर्ण विकसित शिशु
प्रसव व दुग्ध रक्तवर्ण:-
मनुष्य में सर्गाता की अवधि लगभग 9-5 माह होती है इसे गर्भा विधि कहते है। गर्भा विधि वर्ण होने पर गर्भाशय में सकुंचन होते है जिससे गर्भ शिशु के रूप में बालक आ जाता है इसे शिशु जन्म या प्रसव कहते है।
प्रसव की क्रियाविधि:-
ऊतक की क्रिया तंत्री-अंत स्त्रावी प्रकार की होती है।
प्रसव के लिए संकेत उपरा एवं गर्भाशय सारा उत्पन्न होते है जिससे गर्भाशय में हल्के संकुचन, उत्पन्न होते है इन्हे गर्भउत्क्षेपण प्रतिवर्त कहते है। हय माँ की पीयूष ग्रन्थिसे आक्सिटोसिन केनिकने की क्रिया को प्रेरित करते है। आक्सिट्रोसिन गर्भाशय की पेशियों पर कार्य करता है। जिससे गर्भाशय का संकुचन अधिक जोर से होता है जिससे आक्स्टिोसिन अधिकमा में निकलता है इस प्रकार गर्भााय संकुचन एवं अधिक टोसिन स्वणके कारण सकुंचन तीव्र से तीव्रतर हो जाते है एवं शिशु माँ के गर्भाशय को जोरदार संकुचन के कारण जन्म नाल हास बाहर आ जाता है तथा प्रसव क्रिया संपन्न हो जाती है।
दुग्ध स्त्रवण:-
गर्भावस्था के दौरान मादा कीस्तनग्रन्थियांे में महत्वपूर्ण परिवर्तन होते है तथा सगर्भता के अन्त में स्तर ग्रन्थियों से दूध उत्पन्न होने लगता है इस क्रिया को दुग्ध स्त्रवण लेक्टेशन कहते है।
महत्व:-
1 नवजात शिशु की आहार पूर्ति में मदद।
2 एक स्वस्थ शिशु की वृद्धि एवं विकास में सहायक
3 दुग्धस्त्रवण के शुरूआत के कुछ दिनों में जो दूध निकलता है उसे प्रथम स्तन्य या क्वीस कोलोस्ट्रा कहते है। इसमें कईप्रकार के प्रतिरक्षी तत्व पाये जाते है जो नवजात शिशु में प्रतिरोधी क्षमता उत्पन्न करने हेतु अति आवश्यक होत है।
AIPMT :-. गर्भाविधि:-
सेलामेण्डर :- 100 दिन भैस :- 300 दिन
हाथी :- 624 दिन गाय :- 284 दिन
ऊंट :- 400 दिन मनुष्य :- 280 दिन
गधा :- 365 दिन किरण :- 240 दिन
घोडा :- 350 दिन बंदर, भेड बकरी :- 150 दिन
सुअर :- 114 दिन खरगोश :- 28-30 दिन
चूहा :- 21 दिन ओपोसम :- 12 दिन