ब्रम्हांड और जैव विकास आधार भूत जानकारी प्रश्नोत्तर हिंदी में - ULTIMATE STUDY SUPPORT

बहुचयनात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
सृष्टि बनने के पहले क्या उपस्थित था?
(क) जल।
(ख) सत
(ग) असत
(घ) इनमें से कोई नहीं
प्रश्न 2.
किस वैज्ञानिक ने स्थिर ब्रह्माण्ड के विचार को पुनः जीवित किया था?
(क) डार्विन
(ख) ओपेरिन
(ग) आइंसटीन
(घ) स्टेनले मिलर
प्रश्न 3.
ब्रह्माण्ड की उत्पति के विषय में सर्वाधिक मान्यता प्राप्त अवधारणा कौनसी है?
(क) स्थिर ब्रह्माण्ड
(ख) बिग-बैंग
(ग) जैवकेन्द्रिकता
(घ) भारतीय अवधारणा
प्रश्न 4.
लगभग कितने वर्ष पूर्व पृथ्वी पर प्रकाशसंश्लेषी जीवन उपस्थित था?
(क) 4 अरब
(ख) 3 अरब
(ग) 5 अरब
(घ) अनिश्चित
प्रश्न 5.
पीढ़ी दर पीढ़ी अपने स्वरूप को बनाए रखने में सक्षम जीव समूह को क्या कहा जाता है?
(क) वंश
(ख) संघ
(ग) समुदाय
(घ) जाति
उत्तरमाला-
1. (घ)
2. (ग)
3. (ख)
4. (क)
5. (घ)

अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न–
प्रश्न 6.
ऋग्वेद के किस सूक्त में ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के विषय में विस्तार से चर्चा की गई है?
उत्तर-
ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के विषय में विस्तार से चर्चा की गई है।
प्रश्न 7.
क्या जीवन को अणुओं का समूह माना जा सकता है?
उत्तर-
जीवन अणुओं का समूह नहीं है।
प्रश्न 8.
वर्तमान जीवन किस अणु पर आधारित माना जाता है?
उत्तर-
डीएनए अणु।
प्रश्न 9.
पृथ्वी के प्रारम्भिक वायुमण्डल के विषय में वैज्ञानिक सोच में क्या परिवर्तन हुआ है?
उत्तर-
प्रारम्भिक वायुमण्डल मीथेन, अमोनिया, हाइड्रोजन तथा जलवाष्प से बना होने के कारण अत्यन्त अपचायक रहा होगा।
प्रश्न 10.
प्रत्येक जाति के विकसित होने के इतिहास को क्या कहते हैं ?
उत्तर-
इस इतिहास को जाति का जातिवृत्त कहते हैं।


लघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 11.
लुप्त हो चुके जीवों के विषय में जानकारी कैसे मिलती है?
उत्तर-
लुप्त हो चुके जीवों के विषय में जानकारी उनकी निशानियाँ मिलने के कारण मिलती हैं। प्राचीन जीवों की निशानियों को ही जीवाश्म कहते हैं। लाखों वर्ष पूर्व जीवों के मिट्टी या अन्य पदार्थ में दब जाने से जीवाश्म बने हैं। हाथी जैसे एक जीव के बर्फ में दबे जीवाश्म इतने सुरक्षित मिले हैं कि देखने पर लगता है यह जीव लाखों वर्ष पूर्व नहीं अभी कुछ समय पूर्व ही मरे हैं।
प्रश्न 12.
आर्कियोप्टेरिस का जीवाश्म किस रूप में मिला था?
उत्तर-
आर्कियोप्टेरिस का जीवाश्म चित्र के रूप में मिला था। इस चित्र को देखकर पता चला कि पक्षियों की उत्पत्ति रेंगने वाले जीवों से हुई है।
प्रश्न 13.
अवशेषांग किसे कहते हैं? मानव शरीर के एक अवशेषांग का नाम लिखो।
उत्तर-
जीवों के शरीर में कुछ ऐसे अंग पाये जाते हैं, जिनका कोई उपयोग नहीं है। इन्हें अवशेषांग कहते हैं। उदाहरण के लिए, मानव में अक्कल दाढ़, आन्त्र पर पाई जाने वाली ऐपिन्डिक्स आदि का कोई उपयोग नहीं है।
प्रश्न 14.
क्या पृथ्वी के बाहर से पृथ्वी पर जीवन आ सकता है?
उत्तर-
हाँ, पृथ्वी के बाहर से पृथ्वी पर जीवन आ सकता है। पृथ्वी पर वातावरण जीवन के बहुत ही अनुकूल सिद्ध हुआ है। पृथ्वी पर कई जातियों की उत्पत्ति हुई है तथा कई जातियाँ नष्ट भी हुई हैं। प्रथम जीव भी पृथ्वी पर नहीं जन्मा अपितु अन्तरिक्ष के किसी पिण्ड से ही आया है।
निबन्धात्मक प्रश्न
प्रश्न 15.
सृष्टि की उत्पत्ति के विषय में भारतीय सोच को समझाइए।
उत्तर-
भारतीय संस्कृति में ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के विषय में वैदिककाल से ही विचार होता रहा है। ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के विषय में विस्तार से चर्चा की गई है। स्वामी विवेकानंद ने वैदिक ज्ञान को समझाते हुए कहा कि चेतना ने एक से अनेक होते हुए ब्रह्माण्ड का निर्माण किया। संसार में भिन्न-भिन्न प्रकार के जीव व वस्तुएँ दिखाई देती हैं लेकिन वे मूल रूप से उस चेतना के ही रूप हैं। इस विश्वास को अद्वैत कहते हैं।
सृष्टि में चारों ओर नजर दौड़ाने पर देखते हैं कि प्रत्येक वस्तु एक बीज से प्रारम्भ होती है। विकास करते हुए अपने चरम पर पहुँचती है तथा अन्त में बीज बना कर नष्ट हो जाती है। पक्षी एक अण्डे से अपना जीवन प्रारम्भ करता है और उसका अस्तित्व भी अण्डे द्वारा ही आगे बना रहता है। अण्डे और पक्षी का चक्र बार-बार दोहराया जाता है। यही सम्पूर्ण सृष्टि का नियम है। कहा जा सकता है कि परमाणु जिस प्रकार बनता है उसी प्रकार ब्रह्माण्ड भी बनता है। प्रत्येक कार्य के पीछे कारण छिपा होता है। महर्षि कपिल ने कहा है कि ‘नाशः कारणालयः’ अर्थात् किसी का नाश होने का अर्थ उसके कारण में मिल जाना है। स्वामी विवेकानंद ने कहा है कि सृष्टि की उत्पत्ति और विकास कैसे हुआ इस प्रश्न का उत्तर कई बार दिया गया है और अभी कई बार और दिया जाएगा।

वृक्ष से बीज बनता है लेकिन बीज तुरन्त ही वृक्ष नहीं बन सकता। बीज को भूमि में कुछ इन्तजार करना होता है। अपने को तैयार करना होता है। इसी प्रकार ब्रह्माण्ड भी कुछ समय के लिए आवश्यक, अव्यक्त भाव से सूक्ष्म रूप से कार्य करता है। इसे ही प्रलय या सृष्टि के पूर्व की अवस्था कहते हैं। जगत के कुछ समय सूक्ष्म रूप में रहकर फिर प्रकट होने के समय को एक कल्प कहते हैं। ब्रह्माण्ड इसी प्रकार के कई कल्पों से चला आ रहा है। सृष्टि रचनावाद (डिजाइन थ्योरी) उपरोक्त भारतीय विचार के समान ही है। स्वामी विवेकानन्द भौतिकवादियों की इस बात से सहमत हैं कि बुद्धि ही सृष्टिक्रम का चरम विकास है।
प्रश्न 16.
सृष्टि की उत्पत्ति की जैवकेन्द्रिकता की अवधारणा समझाइए। भौतिक अवधारणा तथा इसमें प्रमुख अन्तर क्या है?
उत्तर-
जैवकेन्द्रिकता की सिद्धान्त – समूह यह मानता था कि विश्व की सब वस्तुएँ अलग-अलग दिखाई देती हैं लेकिन वास्तव में एक दूसरे से जुड़ी होती हैं। सभी का अस्तित्व महासागर रूपी परमब्रह्म की बूंद की तरह है। इस बात को स्पष्ट करते हुए नोबल पुरस्कार विजेता चिकित्साशास्त्री राबर्ट लान्जा ने खगोलशास्त्री बोब बर्मन के साथ 2007 में जैवकेन्द्रिकता का सिद्धान्त प्रतिपादित किया। इस सिद्धान्त के अनुसार इस विश्व का अस्तित्व जीवन के कारण ही है। सरलरूप में कहें तो जीवन के सृजन व विकास हेतु ही विश्व की रचना हुई है। अतः चेतना ही सृष्टि के स्वरूप को समझने का सच्चा मार्ग हो सकती है। बिना चेतना के विश्व की कल्पना नहीं की जा सकती।
जैवकेन्द्रिकता के सिद्धान्त में दर्शनशास्त्र से लेकर भौतिकशास्त्र के सिद्धान्तों को शामिल किया गया है। मानव की स्वतन्त्र इच्छा शक्ति को निश्चितता व अनिश्चितता दोनों ही तरह से नहीं समझा जा सकता है। विश्व के भौतिक स्वरूप को निश्चित मानने पर इसकी प्रत्येक घटना की पूर्व घोषणा सम्भव होगी और अनिश्चित मानने पर पूर्व में कुछ भी नहीं कहा जा सकेगा। संसार में जीव निश्चित व अनिश्चित इच्छा का प्रदर्शन स्वतन्त्र रूप से करता रहता है। इसे जैवकेन्द्रिकता द्वारा ही समझा जा सकता है।
लान्जा के विचार को प्राचीन रहस्यवादी विचारों से प्रभावित मानकर अधिकांश भौतिकविदों ने उस पर कोई ध्यान नहीं दिया। लेकिन कुछ समय बाद में कई अन्य वैज्ञानिकों ने आधुनिक वैज्ञानिक तथ्यों के सन्दर्भ में जैवकेन्द्रिकता को समझाने का प्रयास किया। सम्बन्धात्मक क्वाण्टम यान्त्रिकी को आधार बना कर दृढ़ भाषा में प्रस्तुत किया गया।
भौतिक अवधारणा से प्रमुख अन्तर—जैवकेन्द्रिकता सिद्धान्त के अनुसार आइन्स्टीन की स्थान व समय की अवधारणा का कोई भौतिक अस्तित्व नहीं है अपितु ये सब मानव चेतना की अनुभूतियाँ मात्र हैं। लान्जा का मानना है कि चेतना को केन्द्र में रख कर ही भौतिकी की कई अबूझ पहेलियों जैसे हाइजेनबर्ग का अनिश्चितता का सिद्धान्त, दोहरी झिरी प्रयोग तथा बलों के सूक्ष्म सन्तुलन विभिन्न स्थिरांक व नियम का सजीव दृष्टि के अनुरूप होना आदि को समझा जा सकता है। वैज्ञानिक आइन्सटीन भी समय से ही यूनिफाइड फील्ड थ्योरी के रूप में सम्पूर्ण भौतिकी को एक साथ लाने के लिए प्रयास करते रहे हैं लेकिन सफलता अभी तक नहीं मिली है। राबर्ट लान्जा का कहना है कि जीवन को केन्द्र रखने पर ही समस्या हल हो सकती है।
जैवकेन्द्रिकता सिद्धान्त के पक्षधरों का कहना है कि प्रकृति की प्रत्येक घटना मानव हित में घटित हुई लगती है। पृथ्वी पर अरबों वर्ष पूर्व हुआ उल्कापात भी मानव हित में ही हुआ जिससे डायनोसोर के नष्ट होने के कारण स्तनधारियों का तीव्र गति से विकास हो सका। यदि उल्का अपने आकार से कुछ और बड़ी होती या उसके पृथ्वी के वायुमण्डल में प्रवेश होते समय कोण कुछ अलग होता तो सम्पूर्ण जीवन नष्ट हो सकता था। व्हीलर जैसे भौतिकशास्त्रियों का कहना है कि वर्तमान ही भूतकाल को निरोपित करता है तो भी विकास को पूर्व नियोजित मानना होगा। जैवकेन्द्रिकता का सिद्धान्त डार्विन के विकासवाद को स्वीकार नहीं करता। जैवकेन्द्रिकता के सिद्धान्त के अनुसार जीवन भौतिकी व रसायनशास्त्र की किसी दुर्घटना का परिणाम नहीं हो सकता जैसा कि विकासवाद मानता है।

प्रश्न 17.
सृष्टि की उत्पति की बिगबैंग अवधारणा क्या है? भारतीय अवधारणा तथा इसमें प्रमुख अन्तर क्या है?
उत्तर-
बिगबैंग अवधारणा–बिगबैंग अवधारणा में माना गया है कि ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति, एक अत्यन्त सघन व अत्यन्त गर्म पिण्ड से, 13.8 अरब वर्ष पूर्व महाविस्फोट के कारण हुई है। किसी वस्तु में विस्फोट होने के बाद उसके टुकड़े दूर-दूर तक फैल जाते हैं। बिगबैंग अवधारणा के पक्ष में कई प्रमाण भी प्राप्त हुए हैं। ब्रह्माण्ड में हल्के तत्वों की अधिकता, अन्तरिक्ष में सूक्ष्मविकिरणों की उपस्थिति, महाकाय संरचनाओं की उपस्थिति व हब्बल के नियम को समझाने में सफलता ऐसे ही प्रमाण है।
चित्र : बिगबैंग अवधारणा को प्रदर्शित करता रेखाचित्र
विस्फोट के बाद हुए विस्तार से ब्रह्माण्ड ठण्डा हुआ तब उप-परमाणीय कणों की उत्पत्ति हुई। उप-परमाणीय कणों से बाद में सरल परमाणु निर्मित हुए। परमाणुओं से प्रारम्भिक तत्त्वों, हाइड्रोजन, हीलियम व लीथियम के दैत्याकार बादल निर्मित हुए। गुरुत्व बल के कारण संघनित होकर दैत्याकार बादलों ने तारों व आकाशगंगाओं को जन्म दिया।
भारतीय अवधारणा के अनुसार स्वामी विवेकानन्द ने वैदिक ज्ञान को समझाते हुए कहा कि चेतना ने एक से अनेक होते हुए ब्रह्माण्ड का निर्माण किया। जैन धर्म में सृष्टि को कभी नष्ट नहीं होने वाली माना गया है। जैन दर्शन के अनुसार, यौगिक हमेशा से अस्तित्व में है और हमेशा रहेंगे। जैन दर्शन के अनुसार यौगिक शाश्वत है। ईश्वर या किसी अन्य व्यक्ति ने इन्हें नहीं बनाया।
प्रश्न 18.
जैव विकास से आप क्या समझते हैं? आपके अनुसार जैव विकास कैसे हुआ होगा? समझाइये।
उत्तरे-
जैव विकास इस शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम हरबर्ट स्पेन्सर ने किया था। प्राचीन काल में लोग कहते थे कि जीव ईश्वरीय चमत्कार से उत्पन्न हुआ है। प्राचीन ग्रीक दार्शनिक जीवों की स्वतः उत्पत्ति पर विश्वास रखते थे। एम्पीडोक्लीज को विकास कल्पना का जनक कहते हैं। इनके अनुसार-“अधूरी, त्रुटिपूर्ण जीव-जातियों का विनाश होता रहता है तथा इनके स्थान पर पूर्ण विकसित जातियाँ विकसित होती रहती हैं।” ओसबोर्न के अनुसार अर्जित लक्षण वंशागत होते हैं। अरस्तू का मानना था कि-“प्रकृति में एक सीढ़ी जैसी क्रमबद्धता दिखाई देती है।” आधुनिक काल में लैमार्क, चार्ल्स डार्विन, ह्यूगो डी वीज ने ठोस प्रमाणों के आधार पर जैव विकास के सिद्धान्त प्रस्तुत किये। इन
सभी वैज्ञानिकों का एक ही आधार है जीवों के क्रमिक एवं निरन्तर परिवर्तनशील विकास को जैव विकास कहा जाता है। . जैव विकास का उद्भव-जीवों के वर्गीकरण का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि एककोशीय जीवों से बहुकोशीय जीवों का क्रमिक विकास हुआ है। चित्र में दिखाया गया है कि मनुष्य, चीता, मछली तथा चमगादड़ भिन्न-भिन्न जीव हैं फिर भी मनुष्य के हाथ, चीते की अगली टाँग, मछली के फिन्स तथा चमगादड़ के पंख के कंकाल की मूलभूत रचना एक समान होती है। यह इस बात का प्रमाण है कि इन सभी जीवों का उद्गम एक ही पूर्वज से हुआ होगा। सभी बहुकोशीय जीवों का शरीर यूकैरियोटिक कोशिकाओं से बना होता है। प्रोटीन का पाचन करने वाला एन्जाइम ट्रिप्सिन एक कोशीय जीव से लेकर मनुष्य तक क्रियाशील होता है। जीवों के गुणों को नियंत्रित करने वाला डीएनए सभी जीवों में समान प्रकार से कार्य करता है। ये सभी बातें जैव विकास को प्रमाणित करती हैं।
चित्र : मनुष्य के हाथ, चीते की अगली टाँग,
मछली के फिन्स तथा चमगादड़ के पंख के कंकाल की मूलभूत रचना एक समान होती है।

अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर
वस्तुनिष्ठ प्रश्न
प्रश्न 1.
‘दी ओरिजन ऑफ स्पेशीज’ पुस्तक किसने लिखी?
(अ) लैमार्क
(ब) डार्विन
(स) वीजमैन
(द) लुई पाश्चर
प्रश्न 2.
निम्न में से अवशेषी अंग नहीं है
(अ) कर्ण पल्लव
(ब) पुच्छीय कशेरुक
(स) दाँत
(द) अक्ल दाढ़
प्रश्न 3.
ऑपेरिन के सिद्धान्त द्वारा जीव की उत्पत्ति को कितने चरणों में विभाजित किया गया है?
(अ) 5
(ब) 6
(स) 7
(द) 8
प्रश्न 4.
‘डिस्कवरी ऑफ इण्डिया’ पुस्तक किसने लिखी?
(अ) डार्विन
(ब) लैमार्क
(स) स्वामी विवेकानन्द
(द) जवाहर लाल नेहरू
प्रश्न 5.
उत्परिवर्तन का सिद्धान्त किसने दिया?
(अ) डार्विन
(ब) वीजमैन
(स) ह्यूगो डी ब्रीज
(द) लैमार्क
उत्तरमाला –
(1) ब
(2) स
(3) स
(4) द
(5) स।

अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
ब्रह्माण्ड विज्ञान किसे कहते हैं ?
उत्तर-
ब्रह्माण्ड से सम्बन्धित अध्ययन को ब्रह्माण्ड विज्ञान कहते हैं।
प्रश्न 2.
जैवकेन्द्रिकता के सिद्धान्त में किसको सम्मिलित किया गया ?
उत्तर-
जैवकेन्द्रिकता के सिद्धान्त में दर्शनशास्त्र से लेकर भौतिकशास्त्र के सिद्धान्तों को सम्मिलित किया गया है।
प्रश्न 3.
एक्सापायरोटिक मॉडल के बारे में लिखिए।
उत्तर-
प्रिंसटन विश्वविद्यालय के पॉल स्टेइंहार्ट ने एक्सापायरोटिक मॉडल प्रस्तुत कर कहा है कि ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति दो त्रिविमीय ब्रह्माण्डों के चौथी विमा में टकराने से हुई
प्रश्न 4.
मिलरने अपने प्रयोग के लिए कौनसा उपकरण निर्मित किया?
उत्तर–
मिलर ने अपने प्रयोग के लिए एक विद्युत विसर्जन उपकरण बनाया।
प्रश्न 5.
मानव शरीर में पाये जाने वाले दो अवशेषी अंगों के नाम लिखिए।
उत्तर-
(i) निमेषक पटल
(ii) बाह्य कर्णपेशियाँ।

लघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
आधुनिक पृथ्वी के वायुमण्डल में CO2 व N2 गैस कैसे बनी?
उत्तर-
प्रकाश संश्लेषी सूक्ष्म जीवों द्वारा मुक्त ऑक्सीजन के मीथेन व अमोनिया के साथ क्रिया करने से CO2 व N2 बनी।
प्रश्न 2.
अद्वैतवाद क्या है?
उत्तर-
स्वामी विवेकानन्द ने वैदिक ज्ञान को समझाते हुए कहा कि चेतना ने एक से अनेक होते हुए ब्रह्माण्ड का निर्माण किया। संसार में भिन्न-भिन्न प्रकार के जीव व वस्तुएँ दिखाई देती हैं लेकिन वे मूलरूप से उस चेतना के ही रूप है। इस विश्वास को अद्वैत एवं इस वाद को अद्वैतवाद कहते है।
प्रश्न 3.
पृथ्वी की उत्पत्ति के संदर्भ में हाल्डेन के विचार स्पष्ट कीजिये।
उत्तर-
हाल्डेन के विचार–हाल्डेन ने पृथ्वी की उत्पत्ति से लेकर संकेन्द्रकीय कोशिका की उत्पत्ति तक की घटनाओं को आठ चरणों में विभाजित कर समझाया। हाल्डेन ने कहा कि सूर्य से अलग होकर पृथ्वी धीरे-धीरे ठण्डी हुई तो उस पर कई प्रकार के तत्त्व बन गए। भारी तत्त्व पृथ्वी के केन्द्र की ओर गए तथा हाइड्रोजन, नाइट्रोजन, ऑक्सीजन तथा ऑर्गन से प्रारम्भिक वायुमण्डल निर्मित हुआ। वायुमण्डल के इन तत्त्वों के आपसी संयोग से अमोनिया व जलवाष्प बने।
इस क्रिया में पूरी ऑक्सीजन काम आ जाने के कारण वायुमण्डल अपचायक हो गया था। सूर्य के प्रकाश व विद्युत विसर्जन के प्रभाव से रासायनिक क्रियाओं का दौर चलता रहा और कालान्तर में अमीनो अम्ल, शर्करा, ग्लिसरोल आदि अनेकानेक प्रकार के यौगिक बनते गए। इन | यौगिकों के जल में विलेय होने से पृथ्वी पर पूर्वजैविक गर्म सूप
बना जिसके ठण्डे होने पर पृथ्वी का निर्माण हुआ।
प्रश्न 4.
समजात व समवृत्ति अंग किसे कहते हैं?
उत्तर-
समजात अंग विभिन्न वर्गों के जीवों के वे अंग जो कि संरचना और विकास में समान हों, लेकिन भिन्न-भिन्न कार्य करते हैं, समजात अंग कहलाते हैं। उदाहरण मेंढ़क के अग्रपाद, पक्षियों के पंख और मनुष्य के हाथ। समवृत्ति अंग-विभिन्न वर्गों के जीवों में पाये जाने वाले वे अंग हैं जो कि समान क्रियाएँ करते हैं, लेकिन संरचना एवं विकास में भिन्न होते हैं। उदाहरण-पक्षी और कीट के पंख, चमगादड़ और पक्षी के पंख।
प्रश्न 5.
जीवाश्म किसे कहते हैं? एक जीवाश्म पक्षी का नाम बताइये।
उत्तर-
करोड़ों वर्षों पूर्व के जीवों के अवशेष या उनकी छाप पृथ्वी की चट्टानों में परिरक्षित रूप में पायी जाती है

निबन्धात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
मिलर के प्रयोग को चित्र द्वारा समझाइए।
उत्तर-
मिलर का प्रयोग – ऑपेरिन व हाल्डेन की परिकल्पना की वैज्ञानिक पुष्टि करने के लिए मिलर ने सन् 1953 में एक प्रयोग किया। उन्होंने प्रयोगशाला में आद्य पृथ्वी की परिस्थितियों की पुनर्रचना की। इसके लिए उन्होंने काँच के एक विशिष्ट उपकरण के एक कक्ष (फ्लास्क) में हाइड्रोजन, अमोनिया, मीथेन का मिश्रण लिया। इस कक्ष तक वह गर्म जल वाष्प नलिकाओं द्वारा पहुँचाते रहे। गैसीय कक्ष में लगे इलेक्ट्रोडों में विद्युत स्पार्क द्वारा व ऊष्मा के रूप में ऊर्जा प्रदान की गई। इस
चित्र : मिलर के प्रयोग का आरेखीय निरूपण
गैसीय कक्ष से काँच की नलिकाओं द्वारा जुड़े दूसरे कक्ष में उन्होंने संघनित द्रव को एकत्रित किया। एक सप्ताह बाद इस द्रव का विश्लेषण करने पर ज्ञात हुआ कि इसमें एलानिन, ग्लाइसीन, ग्लिसरॉल व अन्य कार्बनिक पदार्थ थे। इस प्रयोग से यह निष्कर्ष निकला कि आज से 3-4 अरब वर्ष पूर्व पृथ्वी पर जीवन का उद्भव इसी प्रकार रासायनिक विकास की प्रक्रिया द्वारा हुआ होगा।
प्रश्न 2.
निम्न पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए
(i) उपार्जित लक्षणों की वंशागति
(ii) प्राकृतिक वरण का सिद्धान्त
(iii) उत्परिवर्तनवाद।
उत्तर-
(1) उपार्जित लक्षणों की वंशागति–उपार्जित क्षणों की वंशागति का सिद्धान्त लैमार्क ने प्रतिपादित किया।
इस सिद्धान्त के अनुसार जीव के जीवन काल में वातावरण के परिवर्तन के कारण या अंगों के उपयोग तथा अनुपयोग से नये लक्षण बन जाते हैं, उन्हें उपार्जित लक्षण कहते हैं। ये लक्षण एक पीढ़ी से आगामी पीढ़ी में वंशागत होते रहते हैं। कई पीढ़ियों तक इन उपार्जित लक्षणों की वंशागति से नई पीढ़ियाँ उत्पन्न हो जाती हैं जो अपने पूर्वजों से भिन्न होती हैं। इस प्रकार एक नयी जाति बन जाती है।
अपने सिद्धान्त की पुष्टि के लिए लामार्क ने निम्न उदाहरण प्रस्तुत किया
लामार्क के अनुसार आज के जिराफ के पूर्वज छोटी गर्दन एवं छोटे अग्रपाद वाले थे। जिराफ के पूर्वज अफ्रीका के घने जंगलों में निवास करते थे। उस समय मैदानों पर पर्याप्त मात्रा में घास-फूस थी जिसे जिराफ खाते थे। वातावरण के परिवर्तनों के कारण मैदानों की घास कम होने लगी, मैदान मरुस्थलों में बदल गये एवं जिराफ को वृक्षों की पत्तियों तक पहुँचने के लिये अग्रपाद एवं गर्दन को तनाव के साथ ऊपर उठाना पड़ता था। इससे इन अंगों की लम्बाई बढ़ गयी जिससे आज के जिराफ का विकास हुआ। यह उपार्जित लक्षण वंशागत होता रहा।
(ii) प्राकृतिक वरण का सिद्धान्त – चार्ल्स डार्विन ने प्राकृतिवरण का सिद्धान्त प्रतिपादित किया। डार्विन ने प्राकृतिक वरण के माध्यम से जातियों की उत्पत्ति को समझाया। डार्विन ने कहा कि प्रत्येक जाति के जीव बड़ी संख्या में उत्पन्न होते हैं। कोई भी दो जीव एक समान नहीं होते। जीवों के अधिक होने पर उनमें भोजन, स्थान व अन्य साधनों के लिए संघर्ष होता है। संघर्ष होने पर प्रकृति के अनुसार जो सर्वश्रेष्ठ होता है उसकी संतानों की संख्या अधिक होती जाती है और एक नई जाति बन जाती है।

(iii) उत्परिवर्तनवाद–ह्यूगो डी वीज ने आइनोथेरा लेमार्किएना पौधे की अनेक पीढ़ियों का अध्ययन कर पाया कि इनमें कुछ पौधों में परिवर्तन अकस्मात् हुए जिसे उन्होंने उत्परिवर्तन की संज्ञा दी। इनके अनुसार जीवों में नये एवं स्पष्ट लक्षणों की अचानक उत्पत्ति को उत्परिवर्तन कहा जाता है। इस सिद्धान्त को ‘उत्परिवर्तनवाद’ कहते हैं। ह्यूगो डी ब्रीज के उत्परिवर्तन सिद्धान्त (Mutation theory) के अनुसार नई जातियों की उत्पत्ति छोटीछोटी क्रमिक भिन्नताओं के कारण नहीं होती बल्कि उत्परिवर्तन के फलस्वरूप नई जातियों की उत्पत्ति होती है। जैव विकास का मूल आधार विभिन्नताएँ (Variations) होती हैं। विभिन्नताएँ पर्यावरण के प्रभाव से या जीन ढाँचों में परिवर्तन के फलस्वरूप उत्पन्न होती हैं। ह्यूगो डी ब्रीज ने वंशागत विभिन्नताओं की उत्पत्ति का मूल कारण उत्परिवर्तन को बताया। अत: उत्परिवर्तन जैव विकास में सहायक होता है।
प्रश्न 3.
उदाहरण देकर समझाइए कि प्रकृति में जाति उद्भव कैसे होता है?
उत्तर-
यदि झाड़ी पर पाए जाने वाले भुंग एक पर्वत श्रृंखला के वृहद् क्षेत्र में फैल जाएँ। इसके परिणामतः समष्टि का आकार भी विशाल हो जाता है। परन्तु व्यष्टि भंग अपने भोजन के लिए जीवन भर अपने आस-पास की कुछ झाड़ियों पर निर्भर करते हैं। वे बहुत दूर नहीं जा सकते। अत: भंगों की इस विशाल समष्टि के आस-पास उप-समष्टि होगी क्योंकि नर एवं मादा शृंग जनन के लिए आवश्यक है अत: जनन प्रायः इन उप-समष्टियों के सदस्यों के मध्य ही होगा। हाँ, कुछ साहसी भुंग एक स्थान से दूसरे स्थान पर जा सकते हैं अथवा कौआ एक शृंग को एक स्थान से उठाकर बिना हानि पहुँचाए दूसरे स्थान पर छोड़ देता है। दोनों ही स्थितियों में आप्रवासी श्रृंग स्थानीय समष्टि के साथ ही जनन करेगा।
परिणामतः आप्रवासी भुंग के जीन नई समष्टि में प्रविष्ट हो जायेंगे। इस प्रकार का जीन-प्रवाह उन समष्टियों में होता रहता है जो आंशिक रूप से अलग-अलग हैं, परन्तु पूर्णरूपेण अलग नहीं हुए हैं। परन्तु, यदि इस प्रकार की दो उप-समष्टियों के मध्य एक विशाल नदी आ जाए, तो दोनों समष्टियाँ और अधिक पृथक् हो जायेंगी। दोनों के मध्य जीन-प्रवाह का स्तर और कम हो जाएगा।
उत्तरोत्तर पीढ़ियों में आनुवांशिक विचलन विभिन्न परिवर्तनों का संग्रहण प्रत्येक उप-समष्टि में हो जाएगा। भौगोलिक रूप से विलग इन समष्टियों में प्राकृतिक चयन का तरीका भी भिन्न होगा। भृगों की इन पृथक् उप-समष्टियों में आनुवांशिक विचलन एवं प्राकृतिक-वरण (चयन) के संयुक्त प्रभाव के कारण प्रत्येक समष्टि एक-दूसरे से अधिक भिन्न होती जाती है। यह भी संभव है कि अंततः इन समष्टियों के सदस्य आपस में एक-दूसरे से मिलने के बाद भी अंतरप्रजनन में असमर्थ हों। इस प्रकार भंग की नई जाति स्पीशीज बन जाती है।
प्रश्न 4.
जैव विकास के सिद्धान्त डार्विनवाद को समझाइए।
उत्तर-
डार्विनवाद के कुछ मुख्य तथ्य एवं आधार
(1) प्रत्येक प्राणी में संतानोत्पत्ति की प्रचुर शक्तिसंसार के प्रत्येक प्राणी में अधिक से अधिक संतान उत्पन्न कर परिवार वृद्धि करने की भावना एवं शक्ति होती है।
(2) जीवन संघर्ष सभी प्राणियों को पैदा होते ही जल, भोजन, प्रकाश एवं सुरक्षित स्थान आदि की आवश्यकता होती है। जब अधिक संख्या में प्राणी पैदा हो जाते हैं तो अपनी इन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सभी प्राणियों में संघर्ष छिड़ जाता है। यह संघर्ष निम्न तीन प्रकार का हो सकता है –
(i) अन्तर्जातीय संघर्ष (Inter-specific struggle)यह केवल एक ही जाति के प्राणियों के बीच होता है।
(ii) अंतरा-जातीय संघर्ष (Intra-specific struggle)यह संघर्ष भिन्न-भिन्न जातियों के प्राणियों के बीच होता है।
(iii) जीवों तथा वातावरण कारकों के बीच संघर्षयह संघर्ष जीवों तथा वातावरण के अनेक कारकों (जैसे ताप, वायु, जल आदि) के बीच चलता रहता है। इस संघर्ष में अधिकतर प्राणी मर जाते हैं। डार्विन के मतानुसार वातावरण के अनुकूलन (adaptability) जीवन संघर्ष में सफलता के लिए अधिक महत्त्वपूर्ण है। अनुकूलन की क्रिया में सबल तथा उपयुक्त जीव ही सफल हो पाते हैं। कमजोर, निकम्मे तथा असमर्थ जीव इसमें नष्ट हो जाते हैं।
(3) विभिन्नताएँ एवं आनुवांशिकता-संसार में मिलने वाले एक ही जाति के प्राणियों में कुछ-न-कुछ भिन्नता अवश्य होती है, जैसे मानव जाति में मोहन और डेविड को, हरि और कृष्ण को तथा प्रीति और प्रियंका को उनकी भिन्नताओं के आधार पर पहचाना जा सकता है। इन भिन्नताओं में जीवों के लिए कुछ तो बेकार होती हैं, कुछ हानिकारक तथा कुछ लाभदायक होती हैं। प्रकृति में जीव लाभदायक, उपयोगी भिन्नताओं के कारण ही जीवित रहते हैं। धीरे-धीरे ये लाभदायक विभिन्नताएँ स्थायी हो जाती हैं और संतानों में चली जाती हैं। इसी कारण नई जातियाँ उत्पन्न होती रहती हैं।

(4) योग्यतम की उत्तरजीविता-डार्विन के अनुसार जीवन संघर्ष में केवल वही प्राणी सफलता प्राप्त करते हैं जिनमें उस वातावरण के प्रति लाभदायक विभिन्नताएँ उत्पन्न हो जाती हैं अर्थात् वातावरण में रहने के लिए सबसे योग्य होते हैं। जिन प्राणियों में वातावरण के अनुकूल विभिन्नताएँ नहीं होती हैं, कुछ समय बाद नष्ट हो जाते हैं। वातावरण में योग्य जीवों का जीवित रहना ही योग्यतम की उत्तरजीविता कहलाती है। जो विभिन्नताएं लाभदायक होती हैं वे एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में पहुँचती रहती हैं। ये विभिन्नताएँ एकत्र होती रहती हैं तथा जीवधारियों में नई जातियों का विकास करती हैं। इस प्रकार वातावरण के अनुकूल जीवों के जीवित रहने तथा प्रतिकूल जीवों के नष्ट होने की क्रिया को ही प्राकृतिक वरण कहते हैं।
(5) नई जातियों की उत्पत्ति डार्विन के अनसार छोटीछोटी विभिन्नताएँ अधिक महत्त्वपूर्ण होती हैं। ये विभिन्नताएँ इकट्ठी होकर प्राणी की रचना में परिवर्तन ला देती हैं। इसी कारण कई पीढ़ियों के पश्चात् नई तथा स्थायी जातियाँ उत्पन्न हो जाती हैं।

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NCERT + CGBSE Class 8,9,10,11,12 Notes in Hindi with Questions and Answers By Bhushan Sahu - ULTIMATE STUDY SUPPORT

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