प्रदूषण क्या है , प्रदूषण परिभाषा , कारण , कारक , प्रभाव , रोकथाम के उपाय किसे कहते है ? प्रकार , अर्थ या मीनिंग हिंदी में
प्रदूषण :-
वायु, जल, भूमि या मृदा के भौतिक रासायनिक और जैविक लक्षणों के होने वाले अवाँच्छित लक्षण जो हानिकारक होते है। ऐेसे परिवर्तनों को प्रदूषण कहते है।
अवांछित परिवर्तन उत्पन्न करने वाले कारको को प्रदूषण कहते है। प्रदूषण की रोकथाम के लिए पर्यावरण (सुरक्षा) अधिनियम 1986 में बनाया गया।
प्रदूषण : पर्यावरण प्रदुषण आधुनिक युग की सबसे अधिक गंभीर समस्या का रूप धारण कर चूका है तथा विकसित और विकासशील देश समान रूप से चिंतित है। सर्वप्रथम भूतपूर्व प्रधानमंत्री स्व. श्रीमती इंदिरा गाँधी ने पर्यावरण प्रदूषण के बढ़ते खतरे पर काबू पाने के लिए एक स्वतंत्र केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय की स्थापना की थी। तब से अब तक सरकारी तथा गैर सरकारी स्तर पर अनेकों विचार गोष्ठियों में समस्या के समाधान के उपाय ढूंढने का प्रयास किया जा रहा है। अनेकों पर्यावरण रक्षा कानून भी बना दिए गए है। जब तक आम आदमी को पर्यावरण प्रदूषण एवं उसके संभावित खतरों का स्पष्ट ज्ञान नहीं कराया जाता है , तब तक इस समस्या के समाधान की कल्पना करना भी ठीक नहीं होगा। हमें जन साधारण को यह समझना होगा कि पर्यावरण प्रदुषण आखिर है क्या ?
साधारणतया हम जिस स्थान में निवास करते है , उसके आस पास के सभी प्राकृतिक साधन जैसे जल , मिट्टी , वायु , वनस्पतियाँ , धूप , वन और वन्य प्राणी आदि हमारा पर्यावरण अथवा प्राकृतिक वातावरण बनाते है। इन्ही साधनों का हमारी रचना , स्वास्थ्य एवं मन पर सीधा प्रभाव पड़ता है। स्पष्ट है कि पर्यावरण के प्राकृतिक साधन जितने स्वच्छ और सुन्दर होंगे , हमारा शरीर , स्वास्थ्य एवं मन भी उतना ही स्वस्थ तथा अच्छा रहेगा। प्राचीन काल में भारतीय ऋषि मुनियों को भी यह ज्ञान था , जिसका वर्णन वेदों , उपनिषदों , पुराणों और अन्य प्राचीन ग्रंथो में मिलता है। औषधि विज्ञान के आदिगुरु चरक ने भी जीवन के लिए जल , वायु एवं देश मिट्टी को आवश्यक कारकों के रूप में बताया है। महाकवि कालिदास के अभिज्ञान शाकुन्तलम तथा मेघदूत जैसे अमर काव्यों में भी मन पर पर्यावरण का प्रभाव दर्शाया गया है।
प्रदूषण की परिभाषा : यह स्वयंसिद्ध है कि सभी प्राणी जन्म से लेकर मृत्यु तक सम्पूर्ण जीवनकाल में अपने पर्यावरण के सभी प्राकृतिक साधनों का मुक्त रूप से उपयोग करते हुए अपनी जैविक क्रियाएँ सम्पादित करते है।
“कोई भी ऐसी प्रक्रिया जो प्राकृतिक साधनों के मुक्त उपयोग में बाधा उत्पन्न करती है , उसे प्रदूषक कहते है एवं परिणामस्वरूप उत्पन्न स्थिति को पर्यावरण प्रदूषण कहते है। “
अन्य शब्दों में , प्राकृतिक साधनों की शुद्धता को प्रभावित करके उनकी जीवन उपयोगिता को नष्ट अथवा कम करने वाले पदार्थ प्रदूषक एवं ऐसी प्रक्रिया प्रदूषण कहलाती है।
वायु प्रदूषण(air pollution):-
वायु के भौतिक रासायनिक और जैविक लक्षणों में होने वाले अवाच्छित व हानिकारक परिवर्तनों को वायु प्रदूषण कहते है।
कारण(air pollution causes):-
चार कारण होते है-
1-उद्योगों के कारण।
2- रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशी पदार्थाे के कारण
3- ईधन के अपूर्ण दहन से।
4- जनरेटर एवं पटाखों द्वारा
5- परमाणवीय परिक्षण एवं दुर्घटना द्वारा ।
6 – स्वचालित वाहनों के कारण।
वायु प्रदूषण के कारक(Air Pollution Factors):-
CO , CO2 , NO , N2 के यौगिक, H2S , SO2 जैसी गैसे धूल, धुंआ एवं कणीय पदार्थ 2.5mm से कम व्यास के कण अधिक हानिकारक होते है।
प्रभाव(air pollution effects):-
1- ये मनुष्य में शवसन तंत्र संधित रोग उत्पन्न करते है। वायु प्रदूषण से फेफड़ों का केन्सर गले का कैंसर, श्वसनी शोध सृजन वात स्पती, सिसिकोसित, ऐस्वेस्टोसिस, एलजी, दमा, आदि रोग उत्पन्न होते है।
2- ये पशुओं के श्वसन तंत्र को भी प्रभावित करते है जलीय जीव जैसे मछलियाक आदि की मृत्यु होने लगती है।
3- पशुओं की वृद्धि रूक जाती है उत्पादन कम होता है। पत्तियाँ पीली पड़ जाती है। पादपों की अपरिपक्व मृत्यु हो जाती है।
4- ऐतिहासिक इमारतों, पूलों, रेल की पटरियों आदि का संक्षारण होने लगता है।
वायु प्रदूषण की रोकथाम(Prevention of air pollution):-
1- औद्योगिक प्रदूषण की रोकथाम:-
(A) कणीय पदार्थो को दूर करने के लिए स्थिर वैद्युत अवक्षेपित का प्रयोग करना चाहिए इसके द्वारा लगभग 90 प्रतिशत से अधिक अशुद्धियाँ दूर हो जाती है।
इलेक्ट्राॅन चित्र
इसमे एक इलेकट्राॅड होता है तथा इसे उच्च वोल्टज प्रदान की जाती है। जिससे इलेक्ट्राॅन उत्सर्जित होते है। ये इलेक्ट्राॅन धूल के कणों से चिपक जाते है तथा उन्हें ऋणावेशित कर देते है। ये भू-समपर्कित संग्रातक प्लेट के द्वारा गुजारे जाते है। जिससे कणीय पदार्थ इन प्लेटों पर चिपक जाते है तथा स्वच्छ वायु निर्वातक से बाहर निकलती है।
सावधानी:- कणीय पदार्थो का वेग कम होना चाहिए।
(B) SO2 जैसी गैसों के लिए मार्जक का उपयोग करते है। जब मार्जक के निचले सिरे से अशुद्ध वायु को गुजरते है। तथा मार्जक के ऊपर वाले सिरे से जल डालता जाता है। जिसे अशुद्ध वायु के कण पैदंे में बैठ जाते है तथा शुद्ध; वायु निर्णातक से बाहर निकल जाती है।
2- स्वचालित वाहन प्रदूषण की रोकथाम:-
1 वाहनों की उचित देखभाल एवं रखरखाव।
2 पुराने वाहनों को समय≤ पर चलन से बाहर करना।
3 सीसा रक्षित पेट्रोल एवं डीजल का प्रयोग करना।
4 वाहनों में CNG का उपयोग।
1 CNG डीजल व पेट्रोल से सस्ती होती है।
2 प्रदूषण रहित।
3 मिलावट की संभावना नहीं
4 सुरक्षित होती है।
CNG के प्रयोग में समस्या।
पाईप लाईन द्वारा वितरण की समस्या तथा अवाँछित आपूर्ति की समस्या।
5 उत्प्रेरकों परिवर्तकों का उपयोग करना चाहिए।
– ये कीमती धातुओं जैसे:- सोडियम प्लेटे, प्लेटेनम आदि के बनेे होते है। तथा विषैली गैसों के उत्सर्जन को कम करते है। इनके द्वारा अदगध बिना जला हुआ हाइड्रोकार्बन CO2 व H2O में दब जाता है तथा CO-CO2 में एवं NO-NO2 में बदल देता है।
सावधानी (air pollution caution) :-
वाहन में सीसा रहित पेट्रोल/डीजल का प्रयोग करना चाहिए। क्योंकि सीसा उत्प्रेरक परिवर्तक को नष्ट कर देता है।
वाहन चालाने के नियमों, मार्गदर्शी सिद्धान्तों एवं प्रदूषण के मानकों का कठोरता से पालन करना।
यूरो मानकों भारत स्टेज का उपयोग करना चाहिए।
यूरो मानक:- 2 के अनुसार गंधक की मात्रा डीजल में 305 पीपीएम तथा पेट्रोल में 150 PPM से अधिक नमी होनी चाहिए। इसी प्रकार यूरो मानक चतुर्थ एवं यूरो मानक-चतुर्थ लागू किये गये।
दिल्ली वाहन प्रदूषण का एक अध्ययन(A study of Delhi vehicle pollution):-
दिल्ली 1990 में एक सर्वेक्षण के अनुसार सर्वाधिक प्रदूषित 41 शहरों में चैथे स्थान पर था। यहाँ वाहनों की संख्या पश्चिम बंगाल एवं गुजरात से अधिक थी। अतः स्वचालित वाहनों द्वारा उत्पन्न वायु प्रदूषण बहुत अधिक था। स्वचालित वाहनों द्वारा प्रदूषण की रोकथाम हेतु अपनाये गये उपायों के कारण 2005 में वाहनों की संख्या बढ़ने के बावजूद वायु प्रदूषण से कम वृद्धि हुई।
ध्वनि प्रदूषण :
अवाँछित उच्च स्तर को शोर प्रदूषण कहते है। इसका मानक डेसीबल कइ है तथा 80 db से अधिक ध्वनि स्तर को ध्वनि प्रदूषण कहा जाता है।
ध्वनि प्रदूषण के कारण(noise pollution causes):-
1 उद्योगों के कारण
2 स्वचालित वाहनों के कारण
3 जेट विमान, राॅकेट आदि
4 जनरेटर के कारण
5 ध्वनि विस्तारक यंत्रों के कारण
6 पठाखों के कारण
प्रभाव(noise pollution effects):–
ए- श्रवण संबंधित:- अस्थाई बहरापन, कान का परदा फटना तथा स्थाई बहरापन होना।
ब- अन्य प्रभाव:- सिरदर्द हदृय स्पंदन दर बढ़ना, श्वसन दर बढ़़ना उल्टी, चक्कर आना, नींद न आना, तनाव व चिड़चिड़ापन।
रोकथाम(noise pollution prevention):-
1 वाहनों में साइलेंसर का प्रयोग।
2 उद्योगों में ध्वनि अवशोधक यंत्रों का प्रयोग।
3 ध्वनि विस्तारक यंत्रों की समय सीमा व ध्वनि स्तर का निर्धारण
4 साइलेंसर जनरेटर का प्रयोग
5 उच्च ध्वनि उत्पादन करने वाले प्रदूषणों के प्रयोग पर रोक।
उपाय(noise pollution solution):-
1 उद्योगों को आबादी से दूर स्थापित करना।
2 उद्योगों के आस-पास एवं सडकों के किनारे सघन वृक्षारोपण करना।
3 नियमों का कठोरता से पालन करना।
नियम(noise pollution rules and regulations):-
वायु प्रदूषण की रोकथाम के लिए वायु प्रदूषण निबोध व नियंत्रण अधिनियम 1981 में साकर किया गया। 1981 में इसमें ध्वनि प्रदूषण को भी शामिल किया गया।
ध्वनि प्रदूषण (noise pollution)
यह सिद्ध हो गया है कि ध्वनि प्रदूषण, वायु प्रदूषण का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, जिसे पहले वस्तुगत प्रदूषण का हिस्सा माना जाता था।
* लगातार शोर खून में कोलस्ट्रॉल की मात्रा बढ़ा देता है जो कि रक्त नलियां को सिकोड़ देता है जिससे हृदय रोगों की संभावनायें बढ़ जाती हैं।
* स्वास्थ्य विशेषज्ञों का मानना हैं कि बढ़ता शोर स्नायु संबंधी बीमारी, नर्वसब्रेक डाउन आदि को जन्म देता है।
* शोर, हवा के माध्यम में संचरण करता है।
* ध्वनि की तीव्रता नापने की निर्धारित इकाई को डेसीबल कहते हैं।
* विशेषज्ञों का कहना है कि 100 डेसीबल से अधिक की ध्वनि हमारी श्रवण शक्ति को प्रभावित करती है। मनुष्य को यूरोटिक बनाती है।
* विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 45 डेसीबल की ध्वनि को, शहरों के लिए आदर्श माना है। लेकिन बड़े शहरों में ध्वनि की माप 90 डेसीबल से अधिक हो जाती है। मुम्बई संसार का तीसरा सबसे अधिक शोर करने वाला नगर है। दिल्ली ठीक उसके पीछे है।
* विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार भारत की राजधानी दिल्ली विश्व के 10 सबसे अधिक प्रदूषित शहरों में से एक है।
* एक अलग अध्यययन के अनुसार, वाहनों से होने वाला प्रदूषण 8 प्रतिशत बढ़ा है जबकि उद्योगों से बढ़ने वाला प्रदूषण चैगुना हो गया है।
* भारत के प्रदूषणों में वायु प्रदूषण सबसे अधिक गंभीर समस्या है।
ई-कचरा
ई-कचरा क्या है? इसका जवाब देना तो बहुत आसान है मगर इसके प्रभावों से मानव जाति को होने वाले नुकसान का अंदाजा लगा पाना अभी मुश्किल है।
पुरानी सीडी व दूसरे ई-वेस्ट को डस्टबिन में फेंकते वक्त हम कभी गौर नहीं करते कि कबाड़ी वाले तक पहुंचने के बाद यह कबाड़ हमारे लिए कितना खतरनाक हो सकता है, क्योंकि पहली नजर में ऐसा लगता भी नहीं है। बस, यही है ई-वेस्ट का मौन खतरा।
* ई-कचरे से निकलने वाले रासायनिक तत्व लीवर और किडनी को प्रभावित करने के अलावा कैंसर, लकवा जैसी बीमारियों का कारण बन रहे हैं। खास तौर से उन इलाकों में रोग बढ़ने के आसार सबसे ज्यादा हैं जहां अवैज्ञानिक तरीके से ई-कचरे की रीसाइक्लिंग की जा रही है।
* ई-वेस्ट से निकलने वाले जहरीले तत्व और गैसें मिट्टी व पानी में मिलकर उन्हें बंजर और जहरीला बना देते हैं।
* भारत में यह समस्या 1990 के दशक से उभरने लगी थी।
* ई-कचरे कि वजह से पूरी खाद्य श्रृंखला बिगड़ रही है।
* ई-कचरे के आधे-अधूरे तरीके से निस्तारण से मिट्टी में खतरनाक रासायनिक तत्व मिल जाते हैं जिनका असर पेड़-पौधों और मानव जाति पर पड़ रहा है।
* पौधों में प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया नहीं हो पाती है जिसका सीधा असर वायुमंडल में ऑक्सीजन के प्रतिशत पर पड़ रहा है।
* कुछ खतरनाक रासायनिक तत्व जैसे पारा, क्रोमियम, सीसा, सिलिकॉन, निकेल, जिंक, मैंगनीज, कॉपर आदि हमारे भूजल पर भी असर डालते हैं।
* अवैध रूप से रीसाइक्लिंग का काम करने से उस इलाके का पानी पीने लायक नहीं रह जाता है।
असल समस्या ई-वस्ट की रीसाइकलिंग और उसे सही तरीके से नष्ट (डिस्पोज) करने की है। घरों और यहां तक कि बड़ी कंपनियों से निकलने वाला ई-वेस्ट ज्यादातर कबाड़ी उठाते हैं। वे इसे या तो किसी लैंडफिल में डाल देते हैं या फिर कीमती मेटल निकालने के लिए इसे जला देते हैं, जोकि और भी नुकसानदेह है।
आजकल विकसित देश भारत को डंपिंग ग्राउंड की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं क्योंकि उनके यहां रीसाइकलिंग काफी महंगी है। जबकि हमारे देश में ई-वेस्ट की रीसाइकलिंग और डिस्पोजल, दोनों ही सही तरीके से नहीं हो रहे ।
* हमारे देश में सालाना करीब चार-पांच लाख टन ई-वेस्ट पैदा होता है और 97 फीसदी कबाड़ को जमीन में गाड़ दिया जाता है।
सतत् जैव संचयी प्रदूषक पदार्थ
* सीसा, पारा, कैडमियम और पॉलीब्रोमिनेटेड सभी सतत, जैव विषाक्त पदार्थ हैं।
* जब कंप्यूटर को बनाया जाता है, पुनर्चक्रण के दौरान गलाया जाता है तो ये पदार्थ पर्यावरण और स्वास्थ्य के लिए खतरनाक हो सकते हैं।
* पीबीटी विशेष रूप से खतरनाक स्तर के रसायन होते हैं जो वातावरण में बने रहते हैं और जीवित ऊत्तकों को नुकसान पहुंचाते है।
* पीबीटी मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए खतरनाक होते हैं और ये कैंसर, तंत्र को नष्ट करने और प्रजनन जैसी बीमारियों से की संभावना को बढ़ाने से संबंधित होते हैं।
कार्यस्थल में शोर
अमेरिका द्वारा अनुशंसी औद्योगिक शोर
स्तर 90 डेसिबल /8 घंटा है।
पाश्चात्य संगीत से शोर : मनमोहक संगीत भी यदि तेज स्वर में बजाया जाए तो कानों को अच्छा नहीं लगता। आज के समय रॉक एंड रोल , पॉप संगीत , शोर प्रदूषण के कारणों में नयी कड़ी है। ऐसे संगीत से मस्तिष्क तंत्रिकाओं में आराम की जगह तनाव बढ़ता है। भारत में भी इसके प्रचलन के कुछ ही समय बाद से लोग कम सुनने की शिकायत करने लगे है।
यातायात शोर
पिछले कुछ वर्षो में यातायात की बढ़ी हुई संख्या –
1960 = 100 m वाहन
1970 = 200 m वाहन
1980 = 300 m वाहन
लाउडस्पीकरों के अनावश्यक प्रयोगों के कारण शोर : आजकल हमारे देश में धार्मिक स्थलों पर लाउडस्पीकरों का अनावश्यक प्रयोग होने लगा है। सभी सामाजिक पर्वों , रैलियों में भी हम लाउडस्पीकरों का खुलकर प्रयोग करने लगे है जिनका प्रभाव हमारे कान के नाजुक पर्दों पर पड़ता है।
मोटर साइकिलों , हवाई जहाजों , जेट वायुयानों , कल कारखानों तथा लाउडस्पीकरों का शोर अधिक घातक है तथा उसे नियंत्रित करने की सख्त जरुरत है। मनुष्य को 115 डीबी में 15 मिनट , 110 डीबी में आधा घंटा , 105 डीबी में एक घंटा , 100 डीबी में आठ घंटे से अधिक नहीं रहना चाहिए।
यह सही है कि अभी हम विश्व के सर्वाधिक कोलाहलपूर्ण शहर “रियो डि जेनीरो” के स्तर पर नहीं पहुँचे है , जहाँ पर ही शोर का स्तर 120 डेसीबल (डीबी) को छू लेता है। लेकिन धीरे धीरे हम भी उसी स्तर तक पहुँच रहे है। अन्तर्राष्ट्रीय मानकों के अनुसार ध्वनि का स्तर अधिक से अधिक 45 डेसिबल (ध्वनि नापने की इकाई) होना चाहिए लेकिन हमारे महानगरों में यह स्तर 120 डीबी तक पहुँच गया है। अखिल भारतीय आर्युविज्ञान संस्थान (AIIMS) के एक सर्वेक्षण के अनुसार किसी भी महानगर में ध्वनि का स्तर 60 डीबी से नीचे नहीं है। दिल्ली , मुंबई तथा कोलकाता में 60 से 120 डीबी तक का ध्वनि प्रदूषण पाया गया है।
दिल्ली , मुंबई , कोलकाता जैसे बड़े शहरों में शोर का औसत स्तर 90 डीबी पाया गया है। ये मुश्किल से कभी 60 डीबी से नीचे आता है। ताजा रिपोर्ट्स के अनुसार भारतीय महानगरों में पिछले 20 वर्षो में शोर आठ गुना बढ़ गया है तथा यदि इसे नियंत्रित करने के लिए तत्काल प्रभावी कदम नहीं उठाये गए तो आने वाले 20 वर्षो में शहरी आबादी का एक अच्छा खासा हिस्सा बहरा हो जायेगा।
बड़े शहरों में निजी वाहनों की संख्या में तीव्र वृद्धि के साथ साथ परिवहन कोलाहल में 10 डीबी वार्षिक बढ़ोतरी हो रही है। परिवहन ही क्यों , गृहणी की मिक्सी से लेकर ट्रांजिस्टर , स्टीरियो , लाउडस्पीकर , वायुयान , कल कारखाने , टेलिफोन , टाइपराइटर , घरेलु झगडे आदि कुछ भी ध्वनि प्रदूषण के प्रसार से मुक्त नहीं है।
शोर या ध्वनि प्रदूषण के प्रभाव
आज हमें सुरक्षा करने वाली सभी साधनों से उत्पन्न शोर परोक्ष रूप से हमारे स्वास्थ्य पर निरंतर घातक प्रभाव डालते है। वैज्ञानिकों ने अनेक प्रयोगों के आधार पर यह माना कि 30 डीबी के शोर से निद्रा टल जाती है , 75 डेसिबल की ध्वनि से टेलीफोन वार्ता प्रभावित होती है , 90 डीबी से अधिक ध्वनी होने पर स्वाभाविक निद्रा में लीन व्यक्ति जाग उठता है। 50 डीबी शोर पर एकाग्रता और कार्यकुशलता कम होती है , 120 डीबी शोर का प्रभाव गर्भस्थ शिशु को भी प्रभावित करता है , व्यक्ति चक्कर आने की शिकायत करता है। एक अनुसन्धान के आधार पर यहाँ माना गया है कि 120 डीबी से अधिक तीव्रता की ध्वनि चूहे बर्दाश्त नहीं कर पाए। कई चूहों की तो जीवनलीला ही समाप्त हो गयी।
विश्व के अधिकांश देशों में शोर की अधिकतम सीमा 75 से 85 डीबी के मध्य निर्धारित की गयी है। कई अनुसंधानों के आधार पर यह माना जाता है कि शोर से “हाइपरटेंशन” हो सकता है। जिससे ह्रदय और मस्तिष्क रोग भी हो सकते है , आदमी समय से पूर्व बुढा हो सकता है। शोर के कारण अनिद्रा और कुंठा जैसे विकार उत्पन्न होते है। घातक प्रभावों के कारण शोर को धीरे धीरे मारने वाला कारक कहा जा सकता है।
बहरापन तो ध्वनि प्रदूषण का एक स्थूल पहलू अथवा परिणाम है।
अन्यथा वह रक्तचाप बढाने ,
रक्त में श्वेत कोशिकाओं को कम करने , रक्त में कोलेस्ट्रोल (जो ह्रदय के लिए खतरनाक है ) को बढाने ,
गेस्ट्रिक अल्सर पैदा करने ,
भूख कम करने
स्वभाव में चिडचिडेपन और
गर्भस्थ शिशुओं की मौत तक का कारण बन सकता है।
85 डीबी से ऊपर की ध्वनि के प्रभाव में लम्बे समय तक रहने से व्यक्ति बहरा हो सकता है , 120 डीबी की ध्वनि से अधिक ध्वनी गर्भवती महिलाओं और उनके शिशुओं पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है। अधिकांश राष्ट्रों ने शोर की अधिकतम सीमा 75 से 85 डीबी निर्धारित की है।
अनुसंधानों से पता चलता है कि पर्यावरण में शोर की तीव्रता 10 वर्ष में दुगुनी होती जा रही है।
इसका मुख्य प्रभाव निम्नलिखित तालिका दर्शाती है –
तीव्रता (dB) प्रभाव 0 सुनने की शुरुआत 30 स्वाभाविक निद्रा में से जागरण 50 निद्रा न आना 80 कानों पर प्रतिकूल असर 90 कार्यकुशलता का कम होना 130 संवेदना आरम्भ 140 पीड़ा आरम्भ 130-135 मितली , चक्कर आना , स्पर्श और पेशी संवेदना में अवरोध 140 कान में पीड़ा , बहुत देर होने पर पगला देने वाली स्थिति 150 (बहुत देर तक) त्वचा में जलन 160 (बहुत देर तक) छोटे मगर स्थायी परिवर्तन 190 बड़े स्थायी परिवर्तन थोड़े समय में
डेसिबल शोर की तीव्रता को मापने का वैज्ञानिक पैमाना है तथा मानव के लिए 40 से 50 डीबी की ध्वनि सहनीय समझी जाती है।
कथन की पुष्टि निम्नलिखित आंकड़े करते है जो हमारे दिन प्रतिदिन के इस्तेमाल की चीजों एवं व्यवहार से उत्पन्न शोर की कहानी स्वयं कहते है।
कानों पर प्रतिकूल प्रभाव: इस बारे में ध्वनि वैज्ञानिकों ने विशलेषणात्मक आँकड़े दिए है। मसलन 80 डीबी वाली ध्वनि कानों पर अपना प्रतिकूल असर शुरू कर देती है। 120 डीबी युक्त ध्वनि कान के पर्दों पर भीषण दर्द उत्पन्न कर देती है तथा यदि ध्वनि की तीव्रता 150 डीबी अथवा उससे अधिक हो जाए तो कान के पर्दे फाड़ सकती है , जिससे व्यक्ति बहरा हो सकता है।
मानसिक रोगों का कारण: वायुयान क्रांति ने सुविधा संपन्न वर्ग के सफ़र को तथा लम्बी दूरी को घंटो तथा मिनटों में तो जरुर बदला है लेकिन हवाई अड्डो के आसपास रहने वाले रोगों के स्वास्थ्य की कीमत पर एक ब्रितानी मनोचिकित्सक डॉ. कोलिम मेरिज ने एक अध्ययन में पाया है कि लन्दन के हीथ्रो हवाई अड्डे के समीप रहने वाले व्यक्ति अन्य क्षेत्रों में रहने वाले व्यक्तियों के मुकाबले अधिक संख्या में मानसिक अस्पतालों में भर्ती किये जाते है , यानी उनमें मानसिक बीमारियाँ अधिक पाई गयी है।
एक फ़्रांसिसी अध्ययन के अनुसार पेरिस में मानसिक तनाव और बीमारियों के 70% मामलों का एकमात्र कारण हवाई अड्डों पर वायुयानों का कोलाहल था। दूर न जाते हुए अपने ही देश का उदाहरण ले तो मुंबई के उपनगर सांताक्रूज के निवासियों ने समीप के हवाई अड्डे से विमानों के अत्यधिक तथा कानफोड कोलाहल की अनेकानेक शिकायतें की है। एक अन्य अध्ययन में पाया गया है कि अत्यधिक शोर शराबे वाले इलाको में रहने वाले स्कूली बच्चो की न केवल याददाश्त कमजोर पड़ गयी थी बल्कि उनमे सिरदर्द तथा चिड़चिड़ापन के भी लक्षण नोट किये गए।
उच्च रक्तचाप और ह्रदय रोग: अत्यधिक शोर शराबे का प्रभाव कानों तथा मस्तिष्क पर तो पड़ता ही है , साथ ही इससे उच्च रक्तचाप और ह्रदय की बीमारियों भी होती है। मुंबई में किये गए एक अध्ययन में पाया गया है कि इस महानगर की 36% आबादी लगातार ध्वनि प्रदूषण के साये में जी रही है। इनमे से 76% लोगों की शिकायत है कि घने कोलाहल के कारण वे किसी भी बात पर अपना ध्यान केन्द्रित नहीं कर पाते , 60% लोग अशांत नींद सोते है और 65% हमेशा बेचैनी के शिकार रहते है।
जरण पर (उम्र पर): ऑस्ट्रिया के ध्वनी वैज्ञानिक डॉ. ग्रिफिथ का निष्कर्ष है कि कोलाहलपूर्ण वातावरण में रहने वाले लोग अपेक्षाकृत शीघ्र बूढ़े हो जाते है तथा इसी एक पहलू के प्रति लोग कितने आतंकित और असहाय है , इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि कई वर्ष पूर्व लन्दन में किये गए एक सर्वेक्षण में जब लोगो से यह कहा गया कि वे अपने कामकाज की परिस्थितियों के किसी एक ऐसे पहलू का नाम ले जिससे वे , यदि संभव हो तो छुटकारा पाना चाहेंगे तो अधिकांश ने छूटते ही कहा कि अगर किसी तरह हो सके तो उनकी जिन्दगी को प्रभावित कर रहे इस घातक शोर को कम कर दिया जाए।
गर्भस्थ शिशुओं पर: ध्वनि प्रदूषण अजन्मे (गर्भस्थ) शिशुओं के लिए कितना घातक है इसका खुलासा भी राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर किया गया है। हाल ही में “सेंटर ऑन यूथ एण्ड सोशल डेवलपमेंट” द्वारा किये गए अध्ययन में बताया गया है कि बाहरी वातावरण में कोलाहल गर्भवती माँ के लिए तो कई परेशानियाँ पैदा कर ही सकता है , साथ ही वह उसके उदर में पल रहे शिशु की जान भी ले सकता है। उक्त सेंटर की रिपोर्ट के अनुसार महानगरीय शहरों , औद्योगिक केन्द्रों तथा निर्माण स्थलों के कोलाहलपूर्ण माहौल में पैदा होने वाले तथा बड़े होने वाले बच्चे शारीरिक रूप से विकृत तथा विक्षिप्त भी हो सकते है। अध्ययन रिपोर्ट में आंकड़े देकर बताया गया है कि प्रत्येक 100 में से पांच बहरे व्यक्ति ध्वनि प्रदूषण के शिकार थे।
ध्वनि प्रदूषण एक तकनिकी समस्या है तथा चूँकि उसके साथ आधुनिक सुख सुविधा का साज सामान जुड़ा हुआ है इसलिए ध्वनि प्रदूषण को बिल्कुल समाप्त करने की बात तो सोची भी नहीं जा सकती। हाँ , उसे नियंत्रित करना आवश्यक है तथा पूरी तरह से व्यवहार्य भी।
मसलन लाउडस्पीकरों के प्रयोग को नियंत्रित किया जाना चाहिए , तेज ध्वनि वाले प्रेशर हॉर्न पर पाबन्दी लगाई जानी चाहिए , कलकारखानों तथा हवाईअड्डे शहरी आबादी से काफी दूर होने चाहिए एवं सबसे बड़ी बात तो यह है कि शोर के इस भस्मासुर के खिलाफ एक खामोश शोर उठाना चाहिए।
शोर प्रदूषण निवारण के उपाय
शोर प्रदूषण से होने वाली हानियों को देखते हुए यह आवश्यक हो गया है कि शोर को कम करने के लिए ठोस कदम उठाये जाए :
कारखानों में होने वाले शोर को कम या नियंत्रित करने के लिए जिन मशीनों में साइलेंसर लग सकते है , लगाये जाने चाहिए और उनको चलाने के लिए मजदूरों को आवश्यक रूप से ईयर प्लग्स , ईयर पफ्स या हेलमेट्स का प्रयोग करना चाहिए। वेल्डिंग से होने वाले शोर को रिवेटिंग के प्रचलन से कम किया जा सकता है। मशीनों की समय समय पर सफाई करके , तेल और ग्रीस देकर शोर कम किया जा सकता है। ख़राब पुर्जो को बदला जाना चाहिए। जहाँ तक संभव हो कारखानों में प्लास्टिक फर्श लगाना चाहिए।
हवाई अड्डो , रेलवे स्टेशनों और कारखानों का निर्माण बस्तियों से दूर किया जाना चाहिए। .ख़राब इंजनो वाले वाहनों पर प्रतिबन्ध लगाया जाना चाहिए।
पेड़ पौधे शोर प्रदूषण को कम करते है , अत: कारखानों के आहते में , सडक के दोनों किनारों पर और रेलवे लाइन के दोनों तरफ भी पेड़ लगाये जाने चाहिए।
बस , ट्रक , कार , मोटर साइकिल और स्कूटर आदि के हॉर्न मधुर होने चाहिए तथा जहाँ तक संभव हो इनका प्रयोग भी कम किया जाना चाहिए। सार्वजनिक स्थानों पर और रात्रि में लाउडस्पीकरों और अन्य ध्वनी प्रसारकों के प्रयोग को निषिद्ध किया जाना चाहिए।
देश के बढ़ते ध्वनि प्रदूषण के घातक प्रभावों को रोकने और उन्हें कम करने की दिशा में जनचेतना जागृत की जाए तभी इस अदृश्य शत्रु से छुटकारा संभव हो सकता है। इस शुभ कार्य में समाचार पत्र पत्रिकायें , रेडियो तथा टेलीविजन की अहम भूमिका हो सकती है। हमारी आने वाली पीढियों को शांत वातावरण देने के लिए हमें इस प्रबल रोग से अपने आप को बचाना होगा , अन्यथा विश्व शारीरिक दृष्टि से दुर्बल हो जायेगा। इस अनदेखे खतरे से बचने का प्रयास व्यक्तिगत और सामाजिक दोनों स्तरों पर किया जाना चाहिए।
जल प्रदूषण (water pollution) :
जल के भौतिक रासायनिक तथा जैविक कारको में होने वाले अवांच्छित तथा हानिकारक परिवर्तनों को जल प्रदूषण कहते है।
जल प्रदूषण के कारण:-
1- घरेलू प्रवाहित जल
2- औद्योगिक बहिः स्त्राव
कारक/प्रदूषक(water pollution Factor / pollutant):-
जल में अपद्रव्यों की मात्रा 0.1 प्रतिशत होती है जिसमें मुख्य निम्न है:-
1 निलंबित पदार्थ जैसे बालू, रेत, कादा, चिकनी मिट्टी आदि।
2 कोलाइडी पदार्थ जैसे मल-मूत्र, जीवाणु, कागज एवं वस्त्र के रेशे।
3 विलिन ठोस जैसे नाइट्रेट, फास्फेट, अमोनिया आदि पौषक पदार्थ एवं कैद्रमियत, पारा, ताँबा, जिंक जैसी भारी धातुएँ।
प्रभाव(water pollution effects ):-
1- अवाँछित रोग जातकों के कारण अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न होते है जैसे:- टाइफाइड, हैजा, पेचिस उल्टी, दस्त पीलियाँ आदि।
2- जल मार्गो का अवरूद्ध होना ।
जल प्रदूषण (water pollution) : सामान्यतया समुद्र के जल को छोड़ कुल जल का तीन चौथाई भाग कृषि और अन्य उद्योग धंधो , पीने तथा घरेलू जरूरतों में काम आता है। लेकिन विश्व की जनसंख्या में लगातार विकास और औद्योगीकरण दोनों ही के कारण जल की मांग दिन प्रतिदिन बढती जा रही है एवं जिस अनुपात में इन दोनों दिशाओं में वृद्धि हो रही है , उससे कही अधिक वृद्धि जल प्रदूषण में हो रही है। यह विनाशकारी प्रभाव नगरों में विशेष रूप से दिखाई देता है। जीवन को बनाये रखने के लिए पेय जल का स्वच्छ होना अनिवार्य रूप से आवश्यक है। जल में कुछ पदार्थ तो प्राकृतिक रूप से मिलते है जिनकी मात्रा अधिक होने पर वे प्रदूषक की भाँती कार्य करने लगते है , ऐसे पदार्थ निम्नलिखित है –
प्रमुख जल प्रदूषक
प्राकृतिक जल प्रदूषण : यह मुख्यतया भूमिगत जल में होता है। इसमें मुख्य है जल में लौह , मैंगनीज , आर्सेनिक , फ्लोराइड , क्षार आदि अकार्बनिक तत्वों की अधिक मात्रा में उपस्थिति जो जल को रंग , गंध , अस्वाद , धुंधलापन , खारापन , धातु पदार्थ आदि प्रदान करते है। अधिक मात्रा में होने से ये तत्व मानव को क्षति पहुंचा सकते है। इसके अलावा सल्फर उपचायी जीवाणु , लौह जीवाणु , विभिन्न कृमि , प्राकृतिक रेडियोधर्मिता भी प्राकृतिक जल प्रदूषक के कारण बन सकते है।
जल में फ्लोराइड का 0.8-1.0 मिग्रा/लीटर मात्रा में होना मानव के लिए लाभदायक है लेकिन भारत के कई प्रदेशों में भूमिगत जल में फ्लोराइड की मात्रा 1.5 मिलीग्राम/लीटर से अधिक है .इसका दुष्प्रभाव दांत और हड्डियों पर पड़ता है जिसे फ्लोरोसिस कहते है। भारत के 8600 से ज्यादा गाँवों में जल में फ्लोराइड की मात्रा अधिक है। असम के जिन स्थानों में भूमिगत जल का अधिक प्रयोग किया जाता है उन स्थानों के जल में लौह तत्व की मात्रा ज्यादा है। इसका मुख्य कारण है पानी में अधिक कार्बन डाइ ऑक्साइड का होना जो कि प्राकृतिक और लौह पादप से लौह के घुलन में सहायक होती है। लौह के 2 मिग्रा/ली. से अधिक होने पर पानी का रंग लाल हो जाता है और पानी में लौह भक्षी जीवाणु के कारण स्लाइम उत्पन्न होती है। जिन स्थानों में भूमिगत जल में लौह पाया जाता है वहां पर मैंगनीज भी अक्सर पाया जाता है।
आर्सेनिक द्वारा जल प्रदुषण का प्रमुख औद्योगिक अपशिष्ट अथवा आर्सेनिक युक्त कीटनाशकों का कृषि में प्रयोग है। लेकिन पश्चिम बंगाल में आर्सेनिक द्वारा भूमिगत जल प्रदुषण का कारण है वहां पर जमीन के अन्दर फेरस आर्सेनिक पायराईट खनिज का होना। इसके प्रभाव से कई प्रकार के चर्म रोग , फेंफड़ो का कैंसर आदि भयानक बीमारियाँ हो जाती है।
खनन क्षेत्रों में जल प्रदूषण का प्रमुख कारण लौह जीवाणु और सल्फर जीवाणु है जो कि जल का पी.एच. (pH ) मान कम कर देते है और जल के ऊपर स्लाइम पैदा करते है।
1. लवण : जल चाहे किसी भी स्रोत से प्राप्त किया गया हो – नदी , तालाब , बावड़ी , कुआं या ट्यूबवेल से , उसमे कुछ न कुछ लवण घुले रहते है जिनमे सोडियम , पोटेशियम , कैल्शियम , मैग्नीशियम के क्लोराइड , कार्बोनेट , बाइकार्बोनेट और सल्फेट प्रमुख है। इनके अतिरिक्त लोहा , मैंगनीज , सिलिका , फ्लुओराइड , नाइट्रेट , फास्फेट आदि तत्व कम मात्रा में पाए जाते है। इनकी पारस्परिक मात्रा का अनुपात स्थानीय भू रचना और स्थितियों पर निर्भर करता है। जब इन लवणों की मात्रा एक निश्चित सीमा से अधिक हो जाती है तो वे शारीरिक प्रक्रियाओं को प्रभावित करने लगते है जिससे स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव पड़ता है। यदि ऐसे पानी से सिंची गयी चारे की फसल जानवरों को खिलाई जाए तो उसको भी अनेक बीमारियाँ हो सकती है। उदाहरण के लिए फ्लुओराइड की अधिकता (10 लाख में दो अथवा तीन भाग) के कारण राजस्थान , हरियाणा तथा आंध्रप्रदेश में अनेक नर नारी फ्लुओरोसिस की बीमारी से ग्रस्त पाए गए है।
सैकड़ो गाँव ऐसे है जहाँ पर पीने का पानी फ्लुओराइड , नाइट्रेट , लौहा तथा मैंगनीज , घुलनशील ठोस और भारी धातुओं आदि के लिए निर्धारित मानकों के अनुरूप नहीं होता। इस समस्या की भयंकरता का अनुमान देश के विभिन्न गाँवों के असंख्य कुओं से प्राप्त संदूषित पीने के पानी में रसायनों की सांद्रता से किया जा सकता है। ऐसे गाँवों में जानपदिक स्तर पर रोग फैलने तथा लगातार ऐसा प्रदूषित जल पीने से शरीर क्रिया पर पड़ने वाले प्रभाव के आंकड़े उपलब्ध नहीं है।
50 के दशक में जापान में मिनामाटा विकृतियों के लिए पानी में पारे की उपस्थिति और इटाई-इटाई व्याधि के लिए कैडमियम की उपस्थिति को उत्तरदायी पाया गया है।
जल में पारा एक विशेष शैवाल द्वारा मिथाइल मर्करी में परिवर्तित कर दिया जाता है , जो कि शैवालभक्षी मछलियों में संचित होकर मछली खाने वाले लोगो के शरीर में प्रविष्ट कर जाता है। मिथाइल मर्करी द्वारा अनेक मौतों का प्रसंग जापान में मछलियों के माध्यम से काफी मिल रहा है। डाइफिनाइल मर्करी से उपचारित गेहूं के बीज के पानी में बहाए जाने के फलस्वरूप पारे द्वारा प्रदुषण ईराक में अधिकता से फ़ैल रहा है। जिससे अनेक मौतें भी हुई है तथा हो रही है।
सीसा : सीसे की सूक्ष्म मात्रा (1 मिग्रा/लीटर) से कई गंभीर बीमारियाँ उत्पन्न होती है। सीसे की यह प्रवृत्ति होती है कि वह जैविक तंतुओं में संचयित होता जाता है और एक स्थिति ऐसी आती है कि शरीर के कुछ महत्वपूर्ण अंग अपने कार्यो को सक्षमता से नहीं कर पाते और धीरे धीरे क्षीण होने लगते है। सीसा प्रमुख रूप से यकृत , गुर्दे और मस्तिष्क की कोशिकाओ को अधिक प्रभावित करता है। सीसा हड्डियों में संचित होकर उन्हें नष्ट कर देता है।
आर्सेनाइट (AsO3) के रूप में उपस्थित आर्सेनिक के सभी अकार्बनिक लवण अत्यधिक विषैले होते है। आर्सेनिक युक्त जल (0.1 से 1.0 मिलीग्राम/लीटर) के निरंतर सेवनसे मनुष्यों में गंभीर त्वचीय विकृतियाँ उत्पन्न होती है। पूर्वी भारत (पश्चिम बंगाल) , ताइवान और बांग्लादेश आदि क्षेत्रों में सामान्य पेयजल में उपस्थित आर्सेनिक की 2 से 5 मिग्रा/लीटर के निरंतर सेवन से श्याम पत्र व्याधि का विस्तृत प्रकाप उभरा है। भारत के पश्चिम बंगाल प्रान्त के लगभग 10 पूर्वी जिलों में श्याम पत्र का प्रकाप अत्यधिक मिला है। बांग्लादेश का 70 प्रतिशत से अधिक भाग आज आर्सेनिक प्रदूषण की विभषिका से जूझ रहा है। आर्सेनिक युक्त जल के सेवन से स्नायुतंत्रीय , यकृतीय , त्वचीय , आन्त्रिय विकृतियाँ उत्पन्न होती है।
विश्व की कई जानी मानी वैज्ञानिक संस्थाओं ने अनुसन्धान करके यह परिणाम दर्शाया है कि पेयजल में फ्लोराइड की उपस्थिति 1.5 मिग्रा/लीटर से अधिक होने पर अस्थि सम्बन्धी विकृतियाँ जैसे दंत फ्लोरोसिस अथवा कंकालीय फ्लोरोसिस उत्पन्न हो सकती है। हमारे देश में राजस्थान राज्य के जोधपुर , भीलवाडा , बीकानेर , जयपुर और उदयपुर जिलो में फ्लोरोसिस काफी हद तक फ़ैल चुकी है। इसलिए विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा पूरे विश्व में फ्लोराइड की वांछित मात्रा 0.5 मिग्रा/लीटर और अधिकतम मात्रा 1.5 मिग्रा/लीटर निर्धारित की गई है। पेयजल में फ्लोराइड की अधिकता से नॉक-नी सिण्ड्रोम होता है। जिसके कारण जोड़ो और घुटनों में काफी भयानक दर्द उत्पन्न होता है , जो पारालाइसिस का कारण भी हो सकता है।
कृत्रिम या मानव निर्मित जल प्रदूषण
आधुनिक समाज में बढ़ते हुए औद्योगिकरण के कारण जहाँ एक ओर मानव ने उपयोगी वस्तुओं का निर्माण किया है वही दूसरी ओर जल में अपशिष्टों का निष्कासन करके पर्यावरण समस्या को भी निरंतर बढ़ा दिया है। औद्योगिक इकाइयां जो मुख्यतः जल प्रदूषण के लिए जिम्मेदार है वे है – कपडा , चमडा , डेयरी , खाद्य सामग्री (शक्कर आदि) , रंजक निर्माण करने वाली इकाइयां , सीमेंट , रासायनिक कारखाने , तेल शोधक कारखाने , ताप बिजलीघर , परमाणु उद्योगों से निष्कासित रेडियोधर्मिता आदि। इसके अलावा अम्लीय वर्षा , कृषि उपजल , खनन उपजल , बाँध बनाने से सम्बन्धित प्रदूषण , युद्ध और तेलवाही जहाजो से रेडियोधर्मी अपशिष्टों को समुद्र में डालना आदि भी मानव मानव द्वारा जल प्रदुषण के उदाहरण है।
प्राकृतिक प्रदूषण के कारण और उदाहरण बहुत सिमित है पर मानव द्वारा किये गए जल प्रदूषण के अनेक उदाहरण है।
2. रसायन : जल प्रदुषण का दूसरा मुख्य कारण नगरों का बढ़ता हुआ औद्योगीकरण है। कल कारखानों द्वारा प्रयुक्त पानी में अनेक प्रकार के लवण , अम्ल और विभिन्न प्रकार की विषैली गैसें घुल जाती है। यह दूषित जल नगर के पास ही नदी के पानी में मिलकर उसे भी दूषित कर देता है। देश विदेश में किये गए सर्वेक्षणों से यह सिद्ध हुआ है कि नदी का जल नगर की सीमा में आने से पूर्व कही अच्छे गुण वाला था , आगे चलकर वही दूषित और स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो गया। इसके अतिरिक्त , अनेक प्रकार की कीटनाशी तथा पीड़क नाशी फसल को नष्ट करने वाले जीवों को मारने के लिए प्रयुक्त किये जा रहे है। ये सिंचाई के पानी के साथ साथ भूमि की निचली सतहों पर चले जाते है तथा फिर वहां से पानी की मुख्य धारा में मिल जाते है। यह दूषित जल नलकूपों और हैण्ड पम्पो के द्वारा पुनः पीने के काम में लाया जाता है। ये रसायन इतने विषैले होते है कि पानी में इनका एक लाखवां अंश भी स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है। पाश्चात्य देशो में जहाँ इन कीटाणुनाशक रसायनों का खेती में अधिक प्रयोग किया जा रहा है , उनके परिणाम अभी विवादास्पद है। हो सकता है कि जिन स्थानों पर पानी का धरातल नीचा है , वहां इन विषैले रसायनों का विनाशकारी प्रभाव अभी दृष्टिगोचर न हुआ हो लेकिन इनको बनाने वाले कारखानों से निकला हुआ पानी हानिकारक सिद्ध हुआ है।
संश्लेषित रंजक उद्योग : भारत में 300 से अधिक रंग विभिन्न उपयोगों में लाये जाते है। कपडा , चमड़ा , पेंट , प्लास्टिक साज सामान , चित्रकारी , औषधि , सौन्दर्य प्रसाधन , खाद्य , पेयजलों आदि उद्योग से निकलने वाले रंगीन द्रवों को सीधा तालाब , नदियों आदि में छोड़ दिया जाता है , जिससे सभी जीवधारी , जन्तु या पौधे प्रभावित होते है। पानी में रंग की बहुतायत होने से सूर्य किरणें जल के भीतर तक नहीं पहुँच पाती तथा जल में ऑक्सीजन की मात्रा कम हो जाती है। परिणामस्वरूप जीवधारियों का पोषण ठीक से नहीं हो पाता है।
प्रदूषण से अनेक जहरीले तथा घातक पदार्थ परम आवश्यक जल को मानव उपयोग के लिए अनुपयुक्त बना देते है। प्रदूषित जल का उपयोग अनेक रोग उत्पन्न करके जीवन समाप्त कर देता है।
3. घरेलू कचरा : बढती हुई अनियंत्रित जनसंख्या से अनेक नगरों तथा कस्बों में घरेलु कचरे के अम्बार लग जाते है। यह कचरा मुख्यतः सड़े गले खाद्य पदार्थ , मल मूत्र गोबर , कूड़ा करकट आदि से मिलकर बनता है। विभिन्न छोटी बड़ी नालियां एवं नाले अंत में स्थानीय नदियों , झीलों तथा तालाबों आदि जल स्रोतों से मिलते है तथा इनके माध्यम से घरेलू कचरा , नहाने धोने का साबुनयुक्त जल सहित प्राकृतिक जल में मिल जाता है। देश की राजधानी दिल्ली के 17 नालों द्वारा 130 टन विषैला कचरा प्रतिदिन यमुना नदी में गिरता है। इसी प्रकार विभिन्न नगरों के नाले हजारों टन टन कचरा नदियों में डालते रहते है।
कुओं को विसंक्रमित (कीटाणुरहित) करने के लिए सरल और सस्ती युक्तियाँ (विरंजक चूर्ण से युक्त मिट्टी के पात्र से रूप में) देश में ही विकसित करने के प्रयास किये गए है। यद्यपि ये युक्तियाँ तकनिकी रूप से सफल रही है , लेकिन इनके जल में क्लोरिन का स्वाद आने के कारण ग्रामीण जनता ने इन्हें स्वीकार करने में उत्साह नहीं दिखाया है।
घरेलू मल मूत्र के निपटान के लिए हमारे देश में कोई संतोषजनक व्यवस्था नहीं है। कुछ गिने चुने नगरों में इसके लिए प्राथमिक उपचार संयंत्र लगे है। कई में मात्र द्वितीयक (सेकेंडरी) या आंशिक द्वितीयक (पार्शियल सेकेंडरी) संयंत्र है। कानपुर , बैंगलोर और अहमदाबाद में तो किसी भी प्रकार का वाहितमल उपचार संयंत्र नहीं है अत: वहां घरों के व्यर्थ का निपटान प्रदूषण की समस्या को और भी बढाता है।
4. औद्योगिक कचरा : प्रत्येक विकसित नगर की पहचान वहां पर उत्पन्न औद्योगिक कचरे पर आधारित हो गई है। हजारों औद्योगिक संस्थान प्रतिदिन सैकड़ो टन विषैले पदार्थ उत्पन्न करते है। इन्हें ठिकाने लगाने का सबसे सस्ता साधन निकटवर्ती नदी अथवा झील है। अधिकांश उद्योग विषैले रासायनिक पदार्थो को नालियों के माध्यम से अथवा सीधे ही झील अथवा नदियों में मिलकर जल को विषैला बना रहे है।
चर्म शोधन , वस्त्र , ऊन और पटसन के कारखानों वाले व्यर्थ पदार्थो से कानपुर में गंगा का जल प्रदूषित होता है। इसी प्रकार चीनी मीलों , शराब , लुगदी और कागज बनाने के कारखानों , कृत्रिम रबड़ के कारखानों और कोयला धावनशालाओं से निकलने वाली बारीक़ राख और डी.डी.टी. के कारखाने से निकलने वाले व्यर्थ पदार्थ गंगा नदी जल व्यवस्था के सहायक नदी नालों को प्रदूषित करते है। हाल ही में बरौनी तेल शोधक कारखाने के तेलों के कारण स्वयं गंगा बहुत दूर तक प्रदूषित हो गयी थी।
पश्चिम बंगाल में हुगली नदी पर स्थित कोलकाता नगर भी प्रदूषण का एक मुख्य केंद्र है। नदी के समुद्र में मिलने वाले भाग में जहाँ कि ज्वार भाटा आता है , नदी के दोनों ओर 159 उद्योग स्थापित है। इनमे 12 वस्त्र बनाने और कपास के , 7 चर्म शोधन के , 5 कागज और लुगदी के , 4 शराब के , 78 पटसन तथा 53 अन्य कारखाने शामिल है। लुगदी और कागज बनाने के कारखानों से सबसे अधिक प्रदूषक पदार्थ नदी में मिलते है और वस्त्र , चर्म , शराब और यीस्ट के कारखानों से प्रदुषण कमी के कारण कम ही होता है तथा प्लान्क्टन मछली के अन्डो और लार्वा के अलावा अभी इसके दुष्परिणाम देखने को नहीं मिले है।
5. खनिज तेल : खनिज तेल मूल रूप में समुद्री तथा महासागरीय जल को गंभीर रूप से प्रदूषित कर रहा है जिससे जलीय जंतुओं का जीवन खतरे में पड़ गया है। बड़े बड़े जलपोत टनों खनिज तेल जल सतह पर छोड़ते रहते है। समय समय पर खनिज तेल के कुओं तथा तेल वाहक टैंकरों की दुर्घटना से भीषण जल प्रदूषण होता है। इनके अतिरिक्त सम्पूर्ण पृथ्वी का दूषित जल नदियों के माध्यम से समुद्र में जा मिलता है। यह सोचना एक भयंकर भूल है कि समुद्रीय या महासागरीय अथाह जलराशि को निरंतर बड़े डलावघर की तरह उपयोग किया जा सकता है। इनकी भी अपनी सीमा है , जिसका उल्लंघन होने पर जल प्रदुषण के गंभीर दुष्परिणाम मानव स्वास्थ्य तथा अर्थव्यवस्था को समाप्त कर सकते है।
तेल और पेट्रोलियम संसाधन उद्योग : बढती हुई पेट्रोलियम मांग को पूरा करने के लिए उसके उत्पादन में भारी वृद्धि हुई है। कच्चे तेल के उत्पादन , शोधन , वितरण से पर्यावरण प्रदूषण की समस्या उठ खड़ी हुई है। अनुमानत: तेल का 0.5% भाग तेल के स्थानान्तरण के समय समुद्र के पानी में गिर जाता है। इसके अलावा तेल टैंकरों के दुर्घटनाग्रस्त होने से , डीजल रेलवे इंजिन कारखानों के टैंकरों की सफाई के बाद तेल युक्त पानी को समुद्र में डालने से तेल समुद्र की सतह पर फ़ैल जाता है। इस तेल के फैलने से समुद्री जीवो की मृत्यु हो जाती है , जल में ऑक्सीजन की मात्रा कम हो जाती है , सूर्य की किरणें पानी के भीतर नहीं जा सकती जिससे जल अन्य जल जीवों के लिए विषाक्त हो जाता है। कच्चे तेल में उत्परिवर्तन कारक कैंसरजनक और वृद्धिरोधक पदार्थ मौजूद होते है। कुछ पेट्रोलियम पदार्थों की थोड़ी मात्रा में सूक्ष्म शैवालों और अल्पवयस्क जीवधारियों को नष्ट कर देते है। इन प्रभावों के कारण खाद्य श्रृंखला असंतुलित हो जाती है।
6. कृषि जनित जल प्रदूषक : आधुनिक युग में अंधाधुंध रासायनिक उर्वरकों का उपयोग किया जा रहा है। फसल के पश्चात् बचा हुआ उर्वरक वर्षा के जल में घुलकर मिट्टी के नीचे पहुँच कर भूमिगत जल स्रोतों को प्रदूषित कर देता है। इस प्रकार खरपतवार तथा कीटनाशक रसायन भी भूमिगत जल को प्रदूषित कर रहे है।
जैविक नियंत्रण अथवा औद्योगिक व्यर्थ पदार्थों के निपटान के लिए जीवनाशकों (बायोसाइड्स) का उपयोग संसार के अन्य देशो के समान हमारे देश में भी तेजी से बढ़ रहा है। इसमें खरपतवार नाशक , बैक्टीरिया नाशक , कवक नाशी तथा नाशक जीवनाशी शामिल है। इनके उपयोग से प्रत्यक्ष तथा परोक्ष , दोनों रूप से जन स्वास्थ्य और नदियों , झीलों , तालाबों के मछली आदि जलचरों पर विनाशकारी प्रभाव पड़ता है। विषैले प्रभाव का थोडा थोडा करके एकत्र होते रहना एकबारगी अत्यधिक जितना ही खतरनाक सिद्ध हो सकता है।
अकार्बनिक खाद जैसे यूरिया , अमोनिया फास्फेट आदि खेतों से बहकर नदी , तालाबों में आ जाती है जिससे इन जल स्रोतों में नाइट्रेट और फास्फेट की मात्रा अधिक हो जाती है जो कि शैवालों को बढ़ने में मददगार होती है। यदि शैवालों की मात्रा एक सीमा से अधिक हो जाती है तो जल की गुणवत्ता कम हो जाती है। ये तालाब “यूट्रिफिकेशन” प्रक्रिया की ओर अग्रसर होते है। शैवाल की मात्रा अधिक होने से जल शुद्धिकरण में भी कठिनाइयाँ आती है।
7. परमाणु उद्योगों से रेडियोधर्मिता : रेडियोधर्मिता के प्रमुख स्रोत है परमाणु ऊर्जा केंद्र , परमाणु परिक्षण केंद्र , परमाणु युद्ध , नाभिकीय पदार्थ का उत्पादन। परमाणु ऊर्जा केंद्र में अनेक रेडियोधर्मी अपशिष्ट पदार्थ पैदा होते है जिनसे निपटने के लिए उन्हें समुद्र में डालना एक हल है। इसके अलावा नाभिकीय परिक्षण , नाभिकीय पदार्थो का उत्पादन , परमाणु विस्फोटों का परिक्षण जल , थल , वायु को प्रदूषित कर रहा है। युरेनियम के विखण्डन से आयोडीन , सीजियम , स्ट्रोंशियम , कोबाल्ट आदि लगभग 30 अस्थायी समस्थानिक पैदा होते है। चूँकि ये समस्थानिक अस्थायी होते है अत: स्थायित्व प्राप्त करने के लिए इनसे रेडियोधर्मी विकिरण निकलती है जो प्राणियों के शरीर में घातक प्रभाव पैदा कर सकती है।
ताप बिजलीघर : ताप बिजलीघर उष्मीय प्रदूषण फैलाते है। प्रदूषित जल के साथ साथ यदि जल का तापमान बढ़ जाए तो जल में घुलनशील ऑक्सीजन की कमी हो जाती है। तापमान बढ़ने से जल में लवणों की विलेयता बढ़ जाती है। जलीय जीवों की मेटाबोलिक क्रियाएँ तीव्र हो जाती है और जीवनकाल कम हो जाता है।
8. अम्लीय वर्षा : अम्लीय वर्षा , वायु प्रदूषण का प्रभाव है। कारखानों से धुआं उगलती चिमनियाँ निरंतर वातावरण में कार्बन डाई ऑक्साइड , सल्फर डाईऑक्साइड और नाइट्रिक ऑक्साइड जैसी गैसे वाष्प कणों से रासायनिक क्रिया कर जल में घुलकर वर्षा करते है। इस प्रकार से पानी की अम्लता 5.6 से कम होती है। इस प्रकार के पानी से पश्चिम देशों में अनेक झीले जहरीली हो गयी है। इसका दुष्प्रभाव मछलियों और अन्य जलचर सम्पदा पर पड़ता है।
9. चमड़ा उद्योग : चमड़ा उद्योग से निकले दूषित जल को जल स्रोतों में छोड़ने से सतही और भूमिगत जल दोनों का प्रदूषण होता है। इससे जल में क्लोराइड की मात्रा 3.5% से अधिक हो जाती है। इसके अलावा पानी में खारापन , अमोनिया , सल्फाइड , टैनिन तथा तथा क्रोमियम जैसे पदार्थो की मात्रा अधिक हो जाती है तथा जल में गंध , स्वाद और रंग आ जाता है। इस तरह का जल मछलियों के लिए हानिकारक होता है। 9 टन चमड़े के निर्माण में लगभग 50 टन पानी का इस्तेमाल होता है।
10. लौह और इस्पात कारखाने : लौह बनाने के बाद बचे हुए स्लैग को अन्य स्थान पर फेंक दिया जाता है। यह स्लैग वर्षा के जल में घुलकर अन्य जल स्रोतों को प्रदूषित करता है। सतही जल और भूमिगत जल इस प्रकार प्रदूषित हो जाते है। इस्पात कारखानों से निकलने वाले रसायनों के नदी अथवा नालों में प्रवाहित होने के कारण ये जल स्रोत भी प्रदूषित हो जाते है।
11. डेयरी उद्योग : डेयरी उद्योग से निकले दूषित जल में लैक्टोस , प्रोटीन और वसा की मात्रा अधिक होती है जो जल स्रोतों में मिलकर जल की जीव रसायन ऑक्सीजन की मांग को बढ़ा देती है तथा ये जल में सूक्ष्म जीवों को पनपने में सहायक सिद्ध होती है।
शक्कर बनाने वाले कारखाने : शक्कर उद्योग से शिरा अपशिष्ट निकलता है जिसमे भारी मात्रा में शक्कर सुक्रोस आदि होते है जिससे जल का धुंधलापन बढ़ता है और जल रंगीन भी हो जाता है।
खाद्य उद्योग : खाद्य उद्योग से निकलने वाले अपशिष्ट जल में प्रोटीन , कार्बोहाइड्रेट , कार्बनिकल तत्वों की मात्रा अधिक होती है जो जल स्रोतों में मिलकर उनकी जीव रसायन ऑक्सीजन मांग को बढ़ा देते है।
नदियों पर बंधे बाँध से : ऊर्जा की बढती माँग को पूरा करने के लिए कई जगहों पर नदी का पानी रोककर विशाल बांध बनाकर पन-बिजली योजनायें चलाई जा रही है। पेयजल और सिंचाई जल को बाँधने के लिए कृत्रिम जलाशय बनाये गए है। इससे पानी के वेग , मात्रा और तापमान में परिवर्तन होता है। इसका प्रतिकूल असर स्वच्छन्द विचरण करने वाले जीव जंतुओं पर होता है। कृत्रिम वेग के साथ उन जीवों की बनावट और रहन सहन की स्थिति परिवर्तित होती है। जलाशय में नीची सतह से ऑक्सीजन की कमी होती है जिसके कारण मछलियाँ और अन्य छोटे जीवों के लिए संकट पैदा हो जाता है। इसके अलावा आसपास के क्षेत्र जल मग्न हो जाते है और बड़ी आबादी का स्थानान्तरण होता है।
जल प्रदूषण की रोकथाम : जल प्रदूषण रोकने के लिए औद्योगिक इकाइयों से निकले अपशिष्ट जल को प्रमुख जल स्रोतों में विसर्जन करने से रोकना चाहिए। इस जल का पुनः चक्रण करना अति आवश्यक है। भारत जैसे गर्म जलवायु वाले देशों में उपचार के लिए सूक्ष्मजीवों का अधिकाधिक प्रयोग होना चाहिए। वैज्ञानिक संस्थाओं को ऐसी तकनिकी का विकास करना चाहिए जो कम खर्चीली और पर्यावरण के हित में है।
उद्योगों में नवीनीकरण कर उन्हें आधुनिक तकनीके अपनानी चाहिए जो पर्यावरण को कम प्रदूषित करें।
शक्ति संयंत्रों , उर्वरक संयंत्रों आदि से सल्फर और नाइट्रोजन ऑक्साइड के उत्सर्जन को कम करके अम्लीय वर्षा को रोका जा सकता है। यह दो प्रकार से किया जा सकता है। पहले तो SO2 और NO2 के अंशो का हटाने के लिए चूने के रिसाव को फ़िल्टर किया जाना चाहिए और कोयला तापीय शक्ति स्टेशनों में कोयले के साथ चूने का उपयोग किया जाना चाहिए जो कोयले में उपस्थित सल्फर के साथ क्रिया कर कैल्शियम सल्फेट बनाता है जो एक ठोस पदार्थ है।
चमड़ा उद्योग में खाल से बाल निकालने और उसे नर्म करने की क्रिया में प्रोटियेस एंजाइम का प्रयोग करना चाहिए। इस तकनीक से कम जल की आवश्यकता होती है और सल्फेट , टैनिन , अमोनिया , क्रोमियम जैसे रसायन का कम उपयोग होता है।
कपडा और अन्य उद्योग जिसमे रंगों का प्रयोग होता है उनके रंगीन जल में रंगों का शोषण करने के लिए लिग्निन का प्रयोग करना चाहिए जो कागज के अपशिष्ट जल में बहुधा पाया जाता है। विभिन्न खाद्य सामग्री बनाने वाले उद्योगों को सौर ऊर्जा की सहायता से अपशिष्टों का उपचार करना चाहिए। इस अपशिष्ट जल से मछलीपालन और सिंगल सेल प्रोटीन का उत्पादन करना चाहिए और इससे बचे जल को सिंचाई में प्रयोग लाना चाहिए।
तेल से बने कीचड़ को बायोरेमिडीयेशन तकनीक द्वारा साफ़ करना चाहिए। कीचड़ को मिट्टी के साथ मिलाकर उसकी आद्रता , तापमान बनाये रखते हुए उसमे यूरिया और फास्फेट आदि मिलाकर उसे खाद में परिवर्तित करना चाहिए। कीटनाशकों के प्रयोग पर एकदम प्रतिबन्ध लगाना चाहिए। कई देशो में यह पहले ही हो चुका है। इनके स्थान पर जैवनाशियों जैसे बैसिलस और ऐसे विषाणु का प्रयोग करना चाहिए जो सिर्फ कीटाणु का नाश करे। इसके अलावा जैव उर्वरकों का प्रयोग करना चाहिए जैसे राइजोबियम , एजाटोबेक्टर , माइकोराइजा आदि। इस क्षेत्र में वैज्ञानिकों द्वारा तथा अनुसन्धान करने की जरुरत है।
जल संसाधन परियोजनाओं को बनाने के पूर्व उससे होने वाले पर्यावरण प्रभाव का आंकलन करना आवश्यक है। जैव प्रौद्योगिकी और जेनेटिक इंजीनियरिंग द्वारा अनेक नयी तकनीकों का प्रयोग कर ऐसे सूक्ष्म जीवों का निर्माण करना चाहिए जो विषैले अपघटित पदार्थो को जल में अपघटित कर सके।
जल प्रदुषण को रोकने के लिए हमारी केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा जल प्रदूषण निवारण के लिए बनाये गए कानूनों का सख्ती से पालन करना चाहिए। विभिन्न वैज्ञानिक संस्थाओं के माध्यम से जल प्रदूषण का उपचार करना चाहिए और आम जनता में प्रदूषण और उससे पड़ने वाले दुष्परिणाम के प्रति जागरूकता पैदा करना आवश्यक है।
जल प्रदूषण से हानियाँ या नुकसान
जल प्रदुषण से जीव जन्तुओं तथा वनस्पतियों को अनेकों हानियाँ होती है। घरेलू कचरे के प्रदूषित जल से हैजा , पीलिया , टाइफाइड , पायरिया आदि घातक बीमारियाँ फैलती है।
शुद्ध पीने के पानी को छोड़ दूसरे तरह के जल के माध्यम से जो रोग जिन कारणों से फैलते है वे निम्नलिखित है –
1. वाहितमल (sewage) द्वारा प्रदूषित जल से पकड़ी जाने वाली या उसमे इक्कठी की जाने वाली शेलफिश से टाइफाइड , पैराटाइफाइड अथवा दण्डाणुज अतिसार हो जाता है।
2. मानव उत्सर्गो (अर्थात मलमूत्र) , वाहितमल तथा अवमल के संसर्गो में आकर संदूषित हुए फलों तथा सब्जियों के माध्यम से टाइफाइड , पैराटाइफाइड , विभिन्न प्रकार के अतिसार परजीवी कीड़े अथवा संक्रामक यकृतशोथ (पीलिया) हो जाता है।
3. मानव मलमूत्र खाने वाली मक्खियों आदि द्वारा संदूषित होने वाले सभी प्रकार के खाद्यों के सेवन से मनुष्य को टाइफाइड , पैराटाइफाइड या हैजा हो जाता है।
4. मानव मल मूत्र द्वारा संदूषित मिट्टी के संसर्ग में आने पर हुकवर्म हो जाता है।
5. प्रदूषित जल में साफ़ किये गए बर्तनों में रखे गए दूध के संदूषित हो जाने पर टाइफाइड अथवा दंडाणुज अतिसार हो जाता है।
6. प्रदूषित जल में नहाने धोने आदि के कारण वाइल रोग और सिस्टोटोम बीमारी हो जाती है। जैसे राजस्थान के अस्पतालों में से निकलने वाले वाहितमल द्वारा सींचे गये चारागाहों में चरने वाली गायें इसी कारण तपेदिक से पीड़ित हो जाती है तथा उनके दूध का सेवन करने से संक्रमण की एक श्रृंखला प्रारंभ हो जाती है।
7. औद्योगिक कचरे में अनेकों विषैले रसायन तथा सूक्ष्म धातुकण होते है , जिनसे यकृत , गर्दो और मस्तिष्क सम्बन्धी अनेकों रोगों के अतिरिक्त प्राणलेवा कैंसर रोग हो रहे है , इसे समझने के लिए जापान में 1973 की एक घटना का उदाहरण पर्याप्त है। चीसू कॉर्पोरेशन नामक उद्योग की नालियों से बहता हुआ एसिटल्डीहाइड रसायन समुद्र में मिलता था। इस प्रदूषित जल में रहने वाली मछलियों को भोजन के रूप में ग्रहण करने वाले जापानी नागरिक सदैव के लिए अंधे , गूंगे तथा बहरे हो गए तथा अनेकों अकाल मृत्यु के शिकार भी हो गए।
8. कृषि के उपयोग में आने वाले उर्वरकों से बच्चो में रक्त की घातक बीमारी मीथेमोगलोबिनेमा हो जाती है , जिसमे ऑक्सीजन की कमी से बच्चा मर जाता है। टेक्सटाइल कपडा उद्योग में एजो-डाई का उपयोग होता है , जिससे कैंसर हो सकता है।
9. डी.डी.टी. तथा बी.एच.सी. जैसे कीट तथा खरपतवार नाशक प्रदूषण जल के माध्यम से गर्भवती माताओं के रक्त में पहुंचकर गर्भ धारण क्षमता को नष्ट करने के अतिरिक्त गर्भस्थ शिशु में विकृतियाँ उत्पन्न कर सकते है। यह रहस्योंदघाटन लखनऊ स्थित इंडस्ट्रीयल टोक्सीकोलोजी रिसर्च सेंटर के वैज्ञानिकों ने किया है।
एक जलीय खरपतवार है। इसमें अधिक जननहोता है तथायह हटाने की क्षमता से बहुत ज्यादा फैलता है। उसने जल मार्गो को अवरूद्ध कर दिया। पानी की गुणवत्ता घटने लगी एवं मछलियों की मृत्यु होने लगी। इसलिए इसे बंगाल का शेक/आँतक कहते है।
जलाश्यों में पोषक पदार्थो की अधिक मात्रा के कारण प्लवकीय शैवालों तैरने वाले की अत्यधिक वृद्धि होती है। जिसे शैवाल प्रस्फुटन कहते है इससे जल की गुणवत्ता प्रभावित होती है। जिसे शैवाल प्रस्फुटन कहते है। इससे जल की गुणवत्ता प्रभावित होती है। यह पशुओं एवं मनुष्यों केे लिए हो जाता है। तथा मछलियाँ मरने लगती है।
त्वरित सुपोषण क्या है Quick nutrition in hindi व BOD(Biochemical oxygen demand) बढना , (जैव रासायनिक आवश्कयता)
(ताला) तालाब या झील का पानी स्वच्छ और शीतल होता है इसकी गहराई अधिक होती है। जल प्रदूषकों के खरा आने वाले पोषकोंके कारण इसमें शैवालों और अन्य जलीय जीवों की वृद्धि अधिक होती है। मुख्य पोषक पदार्थ नाइट्रेट और फास्फेट होते है धीरे-2 झील उधाली (कम गहरी) होती जाती है इसका पानी गरम हो जाता है। झील में आॅक्सीजन की कमी हो जाती है तथा झील का दम घुटने लगता है तथा झील की वायु में इस काल के प्रभाव को त्वरित सुपोषण कहते है।
BOD(Biochemical oxygen demand) बढना , (जैव रासायनिक आवश्कयता):-
जल में उपस्थित कार्बनिक एवं अकार्बनिक पदार्थो के विघटन के लिए आवश्यक आॅक्सीजन की मात्रा को ठव्क् कहते है।
जल के प्रदूषित होने पर ठव्क् बढती है। तथा जल में घुलित आॅक्सीजन की कमी होने लगती है जिससे जलीय जीव मरने लगते है।
जैव आवर्धन (biomagnification):-
कुछ प्रदूषक खाद्य श्रृंखला के द्वारा अगले पोषण क्तर में पहुंचकर संचित हो जाते है अतः क्रमिक पोषणस्तरों में प्रदूषक पदार्थो की मात्रा बढ़तीे जाती है अतः क्रमिक पोषण स्तरों में प्रदूषक पदार्थो की मात्रा बढती जाती है इसे जैव आवर्धन (biomagnification )कहते है।
कारण (biomagnification causes ):-
ये प्रदूषक विघटित नही होते तथा प्रत्येक पोषक स्तर पर संचित होते जाते है जैसे क्व्ज् व पारे के लवण
जैव आवर्धन से प्रभाव/हानि (biomagnification effects & losses ):-
जलीय खाद्य श्रृंखला के द्वारा पक्षीयों में पहुँचकर अण्ड कवच को कमजोर कर देते है। क्योकि इनमें कैल्शियम उपायचय प्रभावित होता है इस प्रकार पक्षीयो की सृष्टि घट जाती है।
(कैलिफोर्निया) में हम्बोल्ट स्टेट यूनिर्वसिटी के सहयोग से अपशिष्ट जल के निपटान हेतु कृत्रिम एवं प्राकृतिक दोनो तरीकों का उपयोग किया।
1- कृत्रिम विधि(artificial techniques):-
इसमें परम्परागत अवसादन तथा निक्यराँपन के पश्चात् क्लोरीन द्वारा उपचारित किया गया किन्तु इसमें भारी धातुएं व अन्य हानिकारक रसायन दूर नहीं किये।
2- प्राकृतिक/जीव विज्ञानीय उपचार(Natural / Biological Treatment):-
इसके अन्तर्गत 60 हैक्टेयर क्षेत्र में फैेले 6 कच्छों को मिलाकर एक श्रृंखला विकसित की गई। इनमें जीवाणु शैवाल एवं पादव डाले गये जिनसे प्रदूषक अवशोषित व निस्प्रभावी हो गये। इन कारणों की देखभाल का जिम्मा को थ्व्ड दी गई।
महत्व(Importance):-
जल को प्रदूषण समाप्त हो गया तथा इन कच्छों में विभिन्न तरह की मछलियाँ व अन्य जलीय जीव पाये जाने लगे तथा जैव-विविधता में वृद्धि हुई।
(Disposal of human waste) मानव अपशिष्ट का निपटान, महत्व , तरीके :-
पारिस्थितिक स्वच्छता का सुरक्षित तरीका ‘‘शुष्क टायलेट कम्पोस्टिंग‘‘
महत्व:-
1- व्यावसायिक, स्वास्थ्यकर
2- पीनी की आवश्यकता नहीं
3- पुन:चक्रण द्वारा उर्वरक
4- सस्ता
उदाहरण:- इको सैन केरल के कुछ भागों व शहरों में।
ठोस अपशिष्ट (solid waste):-
वे सभी अपशिष्ट पदार्थ जो कूडे-कचरे में फेंके जाते है उन्हें ठोस अपशिष्ट कहते है मुख्य ठोस अपशिष्ट निम्न है:-
1 नगरपालिका अपशिष्ट:- वे सभी वस्तुएं जो कार्यालयों, विद्यालयों, घरों एवं भण्डारकारों द्वारा कचरे के रूप में फेंकी जाती है इनका एकत्रीकरण एवं निपटान नगर पालिका द्वारा किया जाता है उसे नगरपालिका अपशिष्ट कहते है। जैसे काँच, कागज, वस्त्र, चमडा, धातु, प्लास्टिक आदि।
निपटान का तरीका:-
1 परंपरागत तरीका(Conventional way):-
कचरे को एकत्रित करके उसे जला दिया जाता है जिससे उसके आयतन में कमी आ जाती है।
समस्या कमी/सीमाएं:-
ऐसे कथन मक्खी, मच्छर एवं चूहों के प्रजनन कथल बन जाते है तथा ये बीमारीयाँ फैलाते है।
2 नया तरीका(New methods):-
कचरे के सैनेटरी लेण्डकिस्स गड्ढा/खड्डा में डालकर उसके ऊपर रेत-मिट्टी आदि डाल देते है।
समस्या:-
इनसे हानिकारक रसायनों का रिसाब होता है तथा ये भूमिगत जल को प्रूदूषित करते है।
समाधान/हल:-
कचरे का वर्गीकरण करना। अपशिष्ट पदार्थो को तीन श्रेणियों में बाँटा जा सकता है
1 जैव निम्नीकृत (अपघटनीय)(Biodegradable ):-
जिसका अपघन होता है जैसे:- मल-मुत्र आदि पादपों एवं जीवों के अवशेष, कृषि अपशिष्ट फल सब्जियों के छिलके आदि।
2 पुनः चक्रण योग्य (Recyclable):-
जिनको पुनः चक्रीत करके उपयोग में लिया जा सकता है जैसे:- कागज, प्लास्टिक आदि।
3 जैव अनिम्नीकृत अन-अपघटनीय(Biodegradable non-decomposable):-
जिसका विघटन बही होता है जैसे:- DDT, पारे के लक्ष्ण, पाॅलिटाीन की थैलियाँ जैव अनिम्नीकृत अपशिष्ट कम से कम उत्पन्न होने चाहिए।
अस्पताल के अपशिष्ट(Hospital waste) प्लास्टिक के उपचार संबंधी एक अध्ययन(A plastic treatment study):-
बैंगलोर निवासी अहमदाबाद 51 वर्ष जो लगभग 20 वर्षो से बोरे बेचने का व्यवसाय कर रहे थे उन्होने लगभग 8 वर्ष पूर्व प्लास्टिक अपशिष्ट के निपटान का एक सुरक्षित तरीका खोज निकाला। उसने प्लास्टिक नाम दिया इसे बिटूेन के साथ लाकर इनका उपयोग सडक निर्माण में किया तथा 2000 तक लगीाग 40 किमी सडक का निर्माण किया इस कार्य में उन्होंने
R.V. engineering college एवं banglore city corporation (BMC) का सहयोग प्राप्त किया।
महत्व(Importance):-
1 बिटूमेन का जल निबर्बण्ड गुण बढ गया।
2 सडक तीन गुना मजबूत बनी।
3 कचरा बीनने वालों को 40 से 1 किलोग्राम के स्थान पर 6/किलोग्राम मिलने लगा।
4 प्लास्टिक के दमघोटू प्रभाव से छुटकारा।
अस्पताल के अपशिष्ट(Hospital waste):-
अस्पताल के उपशिष्ट में विसंक्रमाक, रूई, पट्टी, रूइयाँ, खाली बोतले, हानिकारक रसायन, रोगजनक सूक्ष्म जीव आदि होते है। इनके निपटान के लिए भस्मक (एन्सीनिरेटर) का प्रयोग किया जाना चाहिए।
e (electronic) waste इलेक्ट्रॉनिक अपशिष्ट क्या है , परिभाषा , तरीके:-
कम्प्यूटर, मोबाइल, घडी आदि इलेक्ट्रानिक सामान आदि जो मरम्मत योग्य नहीं होता है उसे म्.ूंेजम कहते है। विकसित देश ऐसे इलेक्ट्राॅनिक अपशिष्टों को विकाशील देशों को निर्यात कर देते है अधिकाँश भागों को निकालने के बाद विकासशील देशों में बैच दिया जाता है। शेष भागों का पुनः चक्रण करते है तथा उनसे उपयोगी धातुएं सोना, चाँदी, ताबा आदि पुनः प्राप्त कर लेते है।
विकासशील देश ऐसे अपशिष्टों को लेण्डफिल्स में गाढ़ देते है या भस्माक की सहायता से उन्हें नष्ट कर देते है। इन्हें पर्यावरण अनुकूल तरीके से पुनः चक्रण भी किया जा सकता है।
कृषि रसायन व उसके प्रभाव(Agricultural Chemistry and Its Effects):-
विभिन्न प्रकार के पीडकनाशी एवं रासायनिक उर्वरकशुदा के परितंत्र को असन्तुलित करते है ये लक्ष्य जीवों के साथ-2 उपलक्ष्य जीवों को भी मार देते है, इनसे मृदा अन उपजाऊ हो जाती है तथा ये जलीय परितंत्र में पहुंचकर जैव-आवर्धन के द्वारा हानिकारक प्रभाव उत्पन्न करते है।
जैव-कृषि एक अध्ययन(A study of bio-agriculture):-
चक्रिय एवं शून्य अपशिष्ट उत्पाद वाली कृषि को एकीकृत जैव-कृषि कहते है। इसमें कृषि कार्यो के साथ-2 पशुपालन, मधुमक्खी पालन, जल संग्रहण, कम्पोस्ट निर्माण आदि किये जाते है।
महत्व(Importance):-
1 इसमें अपशिष्ट उत्पाद नगणय होते है।
2 एक प्रक्रम का अपशिष्ट उत्पाद अन्य प्रक्रम में पोषक पदार्थो के रूप में प्रयुक्त होता है।
3 संसाधनों का अधिकतम उपयोग संभव होता है। यह बहुत ईमाइती एवं लम्बे समय तक चलने वाल प्रक्रम है।
4 रासायनिक उर्वरकों की आवश्यकता नहीं होती है।
5 सोनीपत हरियाणा के किसान रमेश चन्द डागर ने एकीकृत कृषि को अपनाया। तथा इसके लाभ प्राप्त किये — ने एकीकृत कृषि को अपनाया। तथा इसके लाभप्राप्त किये उसने अन्य किसानों को भी इससे फायदा पहुंचाने के लिए एक किसान कल्ब बनाया जिसके 5000 से अधिक सदस्य बने।
ग्रीन हाउस प्रभाव ?
effects प्रभाव निपटान का तरीका नाभिकीय रसायन व उसके प्रभाव :-
नाभिकीय रसायन या परमाणु ऊर्जा के उपयोग की समस्या:-
1 आकस्मिक रिसाव जैसे:- थीमाइल आइलैण्ड अमेरिका, चेरनोबिल खस फुकुशिमा जापान
2 सुरक्षित निपटान की समस्या
प्रभाव(effects):-
नाभिकीय रसायनों के कारण हानिकारक प्रभाव उत्पन्न होते है इनसे उच्च दर से उत्परिवर्तन होते है। इनकी अधिक मात्रा घातक होती है तथा कम मात्रा में उत्पन्न होने वाले नाभिकीय विकिरण अनेक विकार उत्पन्न करते है जिनमे कैंसर मुख्य है।
निपटान का तरीका(ways of disposal):-
परमाणु भट्टियों को उपयोग के पश्चात् अच्छी तरह से कवचित पात्रों में बंद करके चट्टानों के नीचे पृथ्वी में 500 मीटर की गहराई में दबा देना चाहिए।
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ग्रीन हाउस प्रभाव क्या है ?
शीत ऋतु में काँच के बने पौध घर के समान की पृथ्वी की सतह एवं वायुमण्डल के वर्न हो जाने की क्रिया को ग्रीन हाउस प्रभाव (हरित ग्रह प्रभाव) कहते है। हरित ग्रह प्रभाव उत्पन्न करने वाली गैसों को ग्रीन हाउस गैसे कहते है। ये गैसे पृथ्वी की सतह को लौटाने वाले विकिरणों को अवशोषित कर लेती है तथा पुनः पृथ्वी की सतह की ओर लौटा देती है जिससे पृथ्वी की सतह एवं वायुमण्डल गर्म हो जाता है ग्रीन हाउस गैसे एवं उनकी प्रतिशत मात्रा।
चित्र
प्रभाव(Effects):-
1 हानिकारक वातावरणीय प्रभाव उत्पन्न होना।
2 विचित्र जलवायु परिवत्रन अलमिनो प्रभाव
3 वैश्विक ऊष्णता में वृद्धि एसोबल वार्मिग-
गत शताब्दी में विश्व का तापमान 0.60 डिग्री सेंटीग्रेट बढा है। यही स्थिति रही तो 2100 तक तापमान में 1.40 से 5.80 डिग्री सेंटीग्रेट तक वृद्धि हो सकती है यदि ग्रीन हाउस प्रभाव न हो तो पृथ्वी की सतह का औसत तापमान 150 डिग्री सेंटीग्रेट के स्थान पर .180 डिग्री सेंटीग्रेट होता है।
3 ध्रुवों की बर्फ पर पिघलना
4 नदियों में बाढ आना।
5 समुद्र के किनारे स्थित शहरो के ढूबने का खतरा।
रोकथाम के उपाय(ways of Prevention):-
1 जीवशनीय ईधन का प्रयोग कम करना।
2 उर्जा दक्षता में सुधार करना।
3 जनोन्मूलन रोकना।
4 वृक्षारोपण करना।
5 जनसंख्या वृद्धि को नियंत्रित रोकना
6 अंतराष्ट्रीय प्रयास करना।
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नाभिकीय रसायन व उसके प्रभाव
क्षोभमण्डल में मौसम संबंधी परिवर्तन होते है। जबकि समताप मण्डल में ताप लगभग स्थिर रहता है। तथा इसमें अच्छा ओजोन पाया जाता है जो हानिकारक पराबैंगनी विकिरणों से हमारी रक्षा करता है ओजोन परत की मोटाई इकाई डॉबसन यूनिट (du) है।
ओजोन अवक्षय परत व इसका कारण:-
ओजोन परत की मोटाई में कमी आने के कारण ओजोन स्थिर पतला होता जाता है इस क्रियाको ओजोन अवक्षय कहते है।
अटाँर्कटिका क्षेत्र में ओजोन की खतबस्तुत अधिक पतली हो गयी है तथा इसे ओमोन छिद्र कहते है।
पराबैंगनी किरणों की उपस्थिति में ओजोन आॅक्सीजन में विघटित होती रहती है तथा पुनः ओजोन का निर्माण भी होता रहता है।
O3 ⇌ O2 + O (UV की उपस्थिति में )
CFC से UV की उपस्थिति में क्लोरीन मुक्त होती है जो ओजोन के अपघटन में उत्प्रेरक के रूप में काम आती है CFC की उपस्थिति में यह एक सतत् एवं स्थाई किया है इस प्रकार ओजोन परत की मोटाई में कमी आ जाती है।
CFC → Cl उत्प्रेरक
प्रभाव(effects):-
छोटी तरंग दैध्र्य की पराबैंगनी किरणें ओजोन परत के द्वारा अवशोषित हो जाती है किन्तु न्ट.ठ किरणें ओजोन परत के पतले होने के कारण पृथ्वी की सतह तक पहुंचती है तथा हानिकारक प्रभाव उत्पन्न करती है जो निम्न है:-
1 क्षतिग्रस्त हो जाता है तथा इसमें उत्परिवर्तन हो सकता है
2 त्वचा कैसर हो सकता है।
3 हिम अंधता मोतियाबिद हो जाता है। तथा काॅर्निया क्षतिग्रस्त हो सकता है।
रोकथाम के उपाय/प्रयास(Prevention measures / efforts):-
ओजोन अबक्षय को रोकने के लिए अन्र्तराष्ट्रीय प्रयास किये गये। माॅस्ट्रियल कना में 1987 में एक अन्तराष्ट्रीय संधि पर हस्ताक्षर किये गये जिसे माॅस्ट्रियल प्रोटोकाल कहते है।
यह संधि 1999 में लागू हुई तथा इसमें विकसित एवं विकासशील देशों के लिए अलग-2 मानक रखते हुये यह तय किया गया कि व अन्य ओजोन अवक्षयाकारी तत्वों के उत्सर्जन में कमी की जाये।
प्रदूषण के साथ-2 प्राकृतिक संसाधनों के सही तरीके से प्रयोग न करने के कारण भी इनका निम्नीकरण होता है जैसे:-
1 मृदा अपरदन व मृरूथलीकरण:- मनुष्य के निम्न क्रियाकलापो के कारण मृदा अपसदन होता है।
1 कृर्षि के कारण वनों को काटा जाना
2 नगरीकरण
3 सिंचाई के गलत तरीके
4 अबाधिक चराई
इस प्रकार उपरोक्त कारणों से शुष्क मृदा खण्ड बन जाते है तथा इनके मिलने से मरूस्थल का निर्माण होता है।
जलाक्रांति व मृदा लवणता (Hydrochloric and soil salinity) :
जल के विकास की उचित व्यवस्था के बिना सिंचाई के द्वारा मृदा जलाक्रान्त हो जाती है। ऐसी मृदा में भूमि की सतह एवं पौधों की जडों पर अत्यधिक मात्रा में लवण जमा हो जाते है। इससे पौधों की वृद्धि रूक जाती है तथा कृषि पर हानिकारक प्रभाव उत्पन्न होते है। मृदा लवणीयता की समस्या हरित क्रान्ति के कारण ही उत्पन्न हुई है।
वनोन्मूलन(Vannomoolan):-
वनोन्मूलन के कारण शीतोषण क्षेत्रों के वनों में 1 प्रतिशत तथा उष्ण कटिबन्धीय वनों में 40 प्रतिशत की कमी आयी है।
भारत में वनों का प्रतिशत:- 20 वीं सदी के प्रारंभ में 30 प्रतिशत
20 वीं सदी के अन्त में 19.4 प्रतिशत
वन होने चाहिए राष्ट्रीय वन नीति के अनुसार मैदानी क्षेत्रों में 33 प्रतिशत और पहाडी क्षेत्रों में 67 प्रतिशत
वनोन्मूलन के कारण(Causes of deforestation):-
1 कृषि के कारण वनों का काटा जाना, सर्वाधिक नुकसान काटों और जमाओं झूम कृषि के कारण हुआ है।
2 अवाधिक चराई
3 सिंचाई के गलत तरीके
4 वृक्ष एवं वनोत्पाद प्राप्त करने के लिएवनों का काटा जाना
5 जनसंख्या वृद्धि के कारण अवासीय बस्तियाँ, सडक आदि बनाने के कारण
प्रभाव(effects):-
1 वातावरण में CO2 की सान्द्रता बढना।
2 वैश्विक उष्णता में वृद्धि।
3 जल-चक्र का अनियमित होना।
4 मृदा अपरदन एवं मृरूस्थलीकरण।
5 जैव विविधता में कमी
6 परितंत्र असन्तुलित
रोकथाम के उपाय(Preventions):-
पुर्नवनीकरण:- काटे गये स्थान पर पुनः वृक्ष लगाना
वन संरक्षण हेतु सामाजिक प्रयास – एक अध्ययन(Social efforts for forest conservation – a study):-
1773 में खेजडल जोधपुर की अमृता देवी विश्नोई ने अपने परिवार एवं सैकडों लोगों के साथ पेडों को बचाने के लिए अपनी जाने दी।
सरकार द्वारा अमृता देवी विश्नोई वन संरक्षण पुरस्कार दिया जाता है
1974 में हिमालय के गढवाल क्षेत्र में पेडों की रक्षा के लिए चिपको आन्दोलन चलाया गया।
इसी प्रकार सरकार ने सामाजिक भागीदारी बढाने के लिए संयुक्त वन प्रबंधन की नीति प्रारंभ की । सके तहत वनो की सुरक्षा का जिम्मा स्थानीय समुदाय का होगा तथा इसके बदले में वे वनोत्पाद प्राप्त कर सकेगें।