Our Past -3
अध्याय 1
मनोविज्ञान क्या है?
इस अध्याय को पढ़ने के बाद आप
मन एवं व्यवहार को समझने में मनोविज्ञान के स्वरूप और उसकी भूमिका को जान सकेंगे,
इस विद्याशाखा के विकास का वर्णन कर सकेंगे,
मनोविज्ञान के विविध क्षेत्रों और अन्य विद्याशाखाओं तथा व्यवसायों से उसके संबंध को जान सकेंगे, तथा
दैनंदिन जीवन में अपने तथा अन्यों को ठीक से समझने में मनोविज्ञान के महत्त्व को जान सकेंगे।
विषयवस्तु
परिचय
मनोविज्ञान क्या है?
मनोविज्ञान एक विद्याशाखा के रूप में
मनोविज्ञान एक प्राकृतिक विज्ञान के रूप में
मनोविज्ञान एक सामाजिक विज्ञान के रूप में
मन एवं व्यवहार की समझ
मनोविज्ञान विद्याशाखा की प्रसिद्ध धारणाएँ
मनोविज्ञान का विकास
आधुनिक मनोविज्ञान के विकास में कुछ रोचक घटनाएँ (बॉक्स 1.1)
भारत में मनोविज्ञान का विकास
मनोविज्ञान की शाखाएँ
अनुसंधान एवं अनुप्रयोग के कथ्य
मनोविज्ञान एवं अन्य विद्याशाखाएँ
कार्यरत मनोवैज्ञानिक
दैनंदिन जीवन में मनोविज्ञान
प्रमुख पद
सारांश
समीक्षात्मक प्रश्न
परियोजना विचार
परिचय
संभवतः आपसे आपके अध्यापक ने कक्षा में पूछा होगा कि अन्य विषयों को छोड़कर आपने मनोविज्ञान क्यों लिया। आप क्या सीखने की आशा करते हैं? यदि आपसे यह प्रश्न पूछा जाए तो आप क्या प्रतिक्रिया देंगे? सामान्यतया, जिस तरह की प्रतिक्रियाएँ कक्षा में मिलती हैं वे विस्मयकारी होती हैं। अधिकांश विद्यार्थी निरर्थक प्रतिक्रिया देते हैं, जैसे वे जानना चाहते हैं कि दूसरे लोग क्या सोच रहे हैं। परंतु एेसी भी प्रतिक्रियाएँ हो सकती हैं; जैसे- स्वयं को जानना, दूसरों को जानना अथवा विशेष प्रतिक्रियाएँ; जैसे- लोग स्वप्न क्यों देखते हैं, लोग क्यों आगे बढ़कर दूसरों की सहायता करते हैं अथवा एक दूसरे को पीटते हैं। समस्त प्राचीन परंपराओं में मानव स्वभाव से संबंधित प्रश्न अवश्य होते हैं। भारतीय दार्शनिक परंपराएँ विशेष रूप से एेसे प्रश्नों का सामना करती हैं कि लोग जिस तरह का व्यवहार करते हैं वैसा वे क्यों करते हैं। लोग अधिकतर अप्रसन्न क्यों होते हैं? यदि वे अपने जीवन में प्रसन्नता चाहते हैं तो उन्हें अपने विषय में कैसे परिवर्तन लाने चाहिए। सभी ज्ञान की तरह, मनोवैज्ञानिक ज्ञान भी मानव कल्याण के लिए बहुत योगदान देना चाहता है। यदि संसार दुखागार है तो यह अधिकतर मनुष्यों के ही कारण है। संभवतः आप यह पूछना चाहेंगे कि 11 सितंबर (9/11) अथवा इराक में युद्ध की घटना क्यों हुई? दिल्ली, मुंबई, श्रीनगर अथवा पूर्वोत्तर में निर्दोष लोगों को बम एवं गोलियों का सामना क्यों करना पड़ता है? मनोवैज्ञानिक यह पूछते हैं कि युवा मन में कैसे अनुभव होते हैं जो बदला लेने वाले आतंकवादियों के रूप में परिवर्तित हो जाते हैं? परंतु मानव स्वभाव का एक दूसरा रूप भी है। आपने संभवतः मेजर एच.पी.एस. अहलूवालिया का नाम सुना होगा जिन्हें पाकिस्तान के साथ युद्ध के समय एक चोट के कारण कमर के नीचे लकवा मार गया था और वे माउंट एवरेस्ट पर चढ़े थे। उनमें इतनी ऊँचाई पर चढ़ने का भाव कहाँ से जागृत हुआ? मानव स्वभाव के विषय में एेसे ही प्रश्न नहीं होते हैं जिन्हें मनोविज्ञान एक मानव विज्ञान के रूप में देखता है। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि आधुनिक मनोविज्ञान अस्पष्ट सूक्ष्मस्तर गोचरों जैसे चेतना, शोरगुल के मध्य अवधान पर ध्यान केंद्रित करने अथवा अपने पारंपरिक विरोधी से फुटबाल के खेल में विजयी होने पर उस टीम के समर्थकों द्वारा व्यावसायिक प्रतिष्ठान को जलाने का प्रयास करने आदि बातों का भी अध्ययन करता है। मनोविज्ञान इस बात का दावा नहीं कर सकता कि वह एेसे सभी जटिल प्रश्नों का उत्तर दे सकता है। परंतु इसने हमारी समझ को बढ़ाया है और इन गोचरों का अर्थ हम समझने लगे हैं। इस विद्याशाखा की सबसे अधिक आकर्षित करने वाली बात यह है कि, अन्य विज्ञानों के विपरीत, मनोविज्ञान में आंतरिक एवं स्वयं मनुष्यों द्वारा अपने प्रेक्षण में समाहित मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाओं का अध्ययन किया जाता है।
मनोविज्ञान क्या है?
ज्ञान की किसी भी विद्याशाखा को परिभाषित करना कठिन होता है। प्रथम, क्योंकि यह सर्वदा विकसित होता रहता है। द्वितीय, क्योंकि गोचरों का जिस सीमा तक अध्ययन किया जाता है उन्हें किसी एक परिभाषा में नहीं लाया जा सकता है। यह बात मनोविज्ञान के विषय में और अधिक सही है। बहुत पहले, आप जैसे विद्यार्थी को बताया गया होगा कि मनोविज्ञान (Psychology) शब्द दो ग्रीक शब्दों साइकी (Psyche) अर्थात आत्मा और लॉगोस (Logos) अर्थात विज्ञान अथवा एक विषय के अध्ययन से बना है। अतः मनोविज्ञान आत्मा अथवा मन का अध्ययन था। परंतु तब से इसका केंद्रीय बिंदु बहुत अधिक बदल चुका है तथा यह अपने को एक वैज्ञानिक विद्याशाखा के रूप में स्थापित कर चुका है जो मानव अनुभव एवं व्यवहार में निहित प्रक्रियाओं की विवेचना करता है। इसमें जिन तथ्यों का अध्ययन किया जाता है, उनका कार्य क्षेत्र कई स्तरों तक फैला है; जैसे- वैयक्तिक, द्विजन (दो व्यक्ति) समूह तथा संगठनात्मक। इनमें से कुछ का वर्णन हमने पहले किया है। इनके जैविक तथा सामाजिक आधार भी होते हैं।
इसलिए, स्वभावतः इनके अध्ययन की विधियाँ अलग-अलग होती हैं, क्योंकि वे उस तथ्य पर निर्भर करती हैं जिसका अध्ययन करना है। किसी भी विद्याशाखा की परिभाषा इस बात पर निर्भर करती है कि वह किन बातों का तथा कैसे उनका अध्ययन करती है। वास्तव में, वह कैसे अथवा किन विधियों का उपयोग करती है। इसी बात को ध्यान रखते हुए, औपचारिक रूप से मनोविज्ञान को मानसिक प्रक्रियाओं, अनुभवों एवं विभिन्न संदर्भों में व्यवहारों का अध्ययन करने वाले विज्ञान के रूप मे परिभाषित किया जाता है । एेसा करने के लिए मनोविज्ञान जैविक तथा सामाजिक विज्ञानों की विधियों का उपयोग व्यवस्थित ढंग से प्रदत्त प्राप्त करने के लिए करता है। यह प्रदत्तों की अर्थवत्ता बताता है जिससे वे ज्ञान के रूप मे संगठित किए जा सकें। आइए, परिभाषा में प्रयुक्त तीन पदों - मानसिक प्रक्रियाएँ, अनुभव एवं व्यवहार को समझ लिया जाए।
जब हम कहते हैं कि अनुभव, अनुभव करने वाले व्यक्ति के लिए आंतरिक होता है तो हमारा आशय चेतना अथवा मानसिक प्रक्रियाओं (mental processes) से होता है। जब हम किसी बात को जानने या उसका स्मरण करने के लिए चिंतन करते हैं अथवा समस्या का समाधान करते हैं तो हम मानसिक प्रक्रियाओं का उपयोग करते हैं। मस्तिष्क की क्रियाओं के स्तर पर ये मानसिक प्रक्रियाएँ परिलक्षित होती हैं। जब हम किसी गणितीय समस्या का समाधान करते हैं तो हमें दिखता है कि मस्तिष्क किस प्रकार की तकनीकों का उपयोग करता है। हम मानसिक क्रियाओं एवं मस्तिष्क की क्रियाओं को एक नहीं मान सकते हैं, यद्यपि वे एक दूसरे पर आश्रित होती हैं। मानसिक क्रियाएँ एवं कोशिकीय क्रियाएँ एक दूसरे से आच्छादित लगती हैं परंतु वे समरूप नहीं होती हैं। मस्तिष्क से भिन्न मन की कोई भौतिक संरचना अथवा अवस्थिति नहीं होती है। मन का आविर्भाव एवं विकास होता है। एेसा तब होता है जब इस संसार में हमारी अंतःक्रियाएँ एवं अनुभव एक व्यवस्था के रूप में गतिमान होकर संगठित होते हैं जो विविध प्रकार की मानसिक प्रक्रियाओं के घटित होने के लिए उत्तरदायी होते हैं। मस्तिष्क की क्रियाएँ इस बात का संकेत देती हैं कि हमारा मन कैसे कार्य करता है। परंतु हमारे अपने अनुभव एवं मानसिक प्रक्रियाओं की चेतना कोशिकीय अथवा मस्तिष्क की क्रियाओं से बहुत अधिक होती है। जब हम सोते हैं तब भी हमारी मानसिक क्रियाएँ चलती रहती हैं। हम स्वप्न देखते हैं और सूचनाएँ भी ग्रहण करते हैं, जैसे दरवाजे का खटखटाया जाना हम सोते समय भी जान जाते हैं। कुछ मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि हम सोते समय सीखते और स्मरण भी करते हैं। मनोवैज्ञानिक स्मरण करने, सीखने, जानने, प्रत्यक्षण करने एवं अनुभूतियों में रुचि लेते हैं। वे इन प्रक्रियाओं का अध्ययन यह जानने के लिए करते हैं कि हमारा मन कैसे कार्य करता है तथा हमारी सहायता करने के लिए करते हैं जिससे हम अपनी मानसिक क्षमताओं के उपयोग एवं उसके अनुप्रयोग में सुधार कर सकें।
मनोवैज्ञानिक लोगों के अनुभवों (experiences) का भी अध्ययन करते हैं। अनुभव स्वभाव से आत्मपरक होते हैं। हम प्रत्यक्षतः न तो दूसरों के अनुभव का प्रेक्षण कर सकते हैं और न ही उसके विषय में जान सकते हैं। अनुभव करने वाला व्यक्ति ही अपने अनुभवों को जान सकता है अथवा उसके प्रति सचेतन हो सकता है। इसलिए अनुभव हमारी चेतना में रचा-बसा रहता है। मनोवैज्ञानिकों ने लोगों की उस पीड़ा पर ध्यान दिया है जो अंतिम साँसें गिन रहे रोगियों में दिखाई देती है अथवा उस मनोवैज्ञानिक पीड़ा पर जो शोकार्त्त होने पर होती है, साथ ही साथ धनात्मक अनुभूतियों का भी जो हम रोमांस करते समय अनुभव करते हैं। कुछ गूढ़ अनुभव भी होते हैं जिन पर मनोवैज्ञानिक ध्यान देते हैं जैसे जब कोई योगी ध्यानावस्थित होता है तो वह चेतना के एक भिन्न धरातल पर पहुँचता है तथा एक नवीन अनुभव को उत्पन्न करता है अथवा जब कोई नशेड़ी किसी नशीली दवा का सेवन हवा में उड़ने के लिए करता है, यद्यपि एेसी दवाइयाँ हानिकारक होती हैं। अनुभव अनुभवकर्ता की आंतरिक एवं बाह्य दशाओं से प्रभावित होते हैं। यदि गर्मी में किसी दिन आप भीड़ वाली बस में यात्रा करते हैं, तो आपको वैसी असुविधा की अनुभूति नहीं होती है क्योंकि आप अपने मित्रों के साथ पिकनिक के लिए जा रहे होते हैं। इस प्रकार, अनुभव के स्वरूप को आंतरिक एवं बाह्य दशाओं के जटिल परिदृश्य का विश्लेषण करके समझा जा सकता है।
व्यवहार (behaviours) हमारी क्रियाओं, जिसमें हम संलग्न होते हैं, की अनुक्रियाएँ अथवा प्रतिक्रियाएँ होते हैं। जब कुछ आपकी तरफ आता है तो पलकें सामान्य प्रतिवर्त क्रिया में खुलती-बंद होती हैं। आप परीक्षा देते समय यह अनुभव कर सकते हैं कि आपका हृदय धड़कता है। आप सुनिश्चित करते हैं कि आप एक चलचित्र विशेष अपने मित्र के साथ देखेंगे। व्यवहार सामान्य अथवा जटिल, कम समय तक अथवा देर तक बना रहने वाला हो सकता है। कुछ व्यवहार प्रकट होते हैं। एक प्रेक्षक इन्हें बाह्य जगत में देख सकता है अथवा अनुभव कर सकता है। कुछ आंतरिक या अप्रकट होते हैं। शतरंज का खेल खेलते समय जब आप कठिन परिस्थिति में पड़ते हैं तो आपको अपने हाथ की मांसपेशियाँ फड़कने जैसी लगती होंगी कि एक खास चाल चल सकें। समस्त व्यवहार, प्रकट एवं अप्रकट, वातावरण के कुछ उद्दीपकों अथवा आंतरिक धरातल पर होने वाले परिवर्तनों द्वारा त्वरित रूप से संचलित होने से संबद्ध होते हैं। आप एक बाघ देखते हैं और दौड़ते हैं अथवा सोचते हैं कि बाघ है और भाग जाना चाहिए। कुछ मनोवैज्ञानिक व्यवहार के उद्दीपक (S) एवं अनुक्रिया (R) के मध्य साहचर्य के रूप में अध्ययन करते हैं। उद्दीपक एवं अनुक्रिया दोनों ही आंतरिक अथवा बाह्य हो सकते हैं।
मनोविज्ञान एक विद्याशाखा के रूप में
जैसा कि हमने ऊपर पढ़ा है, मनोविज्ञान व्यवहार, अनुभव एवं मानसिक प्रक्रियाओं का अध्ययन करता है। वह यह समझने का प्रयास करता है कि मन कैसे कार्य करता है एवं विभिन्न मानसिक क्रियाएँ विविध व्यवहारों के रूप में कैसे उत्पन्न होती हैं। जब हम लोगों को अनाड़ी अथवा सामान्य रूप में देखते हैं तो हमारे अपने विचार बिंदु अथवा जगत को समझने के हमारे अपने तरीके उनके व्यवहारों एवं अनुभवों की हमारी व्याख्या को प्रभावित करते हैं। मनोवैज्ञानिक व्यवहार एवं अनुभव की व्याख्या से एेसी अभिनतियों को अनेक तरीकों से कम करने का प्रयास करते हैं। कुछ मनोवैज्ञानिक अपने विश्लेषण को वैज्ञानिक एवं वस्तुनिष्ठ बनाकर एेसा करते हैं। अन्य लोग व्यवहार की व्याख्या उसके अनुभवकर्ता की दृष्टि से करते हैं क्योंकि वे मानते हैं कि व्यक्तिपरकता मानव अनुभव का महत्वपूर्ण अंग है। भारतीय परंपरा में आत्म-परावर्तन एवं सचेतन अनुभव का विश्लेषण मनोवैज्ञानिक समझ का एक महत्वपूर्ण स्रोत माना जाता है। कई पाश्चात्य मनोवैज्ञानिक भी आत्म-परावर्तन (self-reflection) एवं आत्मज्ञान की भूमिका को मानव व्यवहार एवं अनुभव को समझने के लिए महत्वपूर्ण मानने लगे हैं और अब इन पर बल देने लगे हैं। व्यवहार, मानसिक प्रक्रियाओं एवं अनुभव के अध्ययन में मतांतर के बाद भी वे इनको व्यवस्थित एवं सत्यापन करने योग्य शैली में समझने एवं व्याख्या करने का प्रयास करते हैं।
मनोविज्ञान, जो यद्यपि एक बहुत पुरानी ज्ञान विद्याशाखा है, फिर भी यह एक आधुनिक विज्ञान है क्योंकि 1879 में ही लिपज़िग (Leipzig), जर्मनी में इसकी प्रथम प्रयोगशाला की स्थापना हुई थी। तथापि, मनोविज्ञान किस प्रकार का विज्ञान है, यह अभी भी बहस का विषय है, विशेष रूप से उन रूपों पर जो वर्तमान समय में उभरे हैं। मनोविज्ञान को सामान्यतया सामाजिक विज्ञान की श्रेणी में रखा जाता है। लेकिन आपको आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि अन्य देशों में ही नहीं बल्कि भारत में भी स्नातक एवं स्नातकोत्तर स्तर पर यह विज्ञान संकाय के अंतर्गत ही एक पाठ्य विषय है। विद्यार्थी विश्वविद्यालयों में स्नातक विज्ञान एवं स्नातकोत्तर विज्ञान की उपाधियाँ प्राप्त करने जाते हैं।
वास्तव में दो प्रसिद्ध उभर रही विद्याशाखाएँ - तंत्रिका विज्ञान और कंप्यूटर विज्ञान बहुत कुछ मनोविज्ञान से लगातार उधार लेती हैं। हममें से बहुत से लोग तीव्रगति से विकसित हो रही मस्तिष्क प्रतिमा तकनीक; जैसे- एफ.एम.आर.आई., ई.ई.जी इत्यादि से परिचित होंगे जिनसे मस्तिष्क की प्रक्रियाओं को वास्तविक समय, अर्थात जब वे वास्तव में हो रही हों, में समझना संभव होता है। इसी प्रकार, सूचना तकनीक के क्षेत्र में, मानव-कंप्यूटर अंतःक्रिया तथा कृत्रिम बुद्धि का विकास संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं में मनोवैज्ञानिक ज्ञान के बिना संभव नहीं हो सकता है। इसलिए, एक विद्याशाखा के रूप में मनोविज्ञान की दो समानांतर धाराएँ हैं। पहली जो अनेक मनोवैज्ञानिक एवं सामाजिक तथ्यों के अध्ययन में भौतिक एवं जैविक विज्ञान की विधियों का उपयोग करती है एवं दूसरी जो उनके अध्ययन में सामाजिक और सांस्कृतिक विज्ञान की विधियों का उपयोग करती है। ये धाराएँ कभी-कभी एक दूसरे में मिलकर भी अपने अलग-अलग मार्गों से जाती हैं। पहली दशा में मनोविज्ञान अपने को मानव व्यवहार की व्याख्या के लिए अधिकतर जैविक सिद्धांतों पर निर्भर रहने वाली विद्याशाखा मानता है। इसकी मान्यता है कि समस्त व्यवहारपरक गोचरों के कारण होते हैं जिनकी खोज नियंत्रित दशा में व्यवस्थित रूप से प्रदत्त संग्रह करके की जा सकती है। यहाँ अनुसंधानकर्ता का लक्ष्य कारण-प्रभाव संबंध को जानना होता है जिससे व्यवहारपरक गोचरों का पूर्वकथन किया जा सके तथा आवश्यकता पड़ने पर व्यवहार को नियंत्रित भी किया जा सके। दूसरी ओर, सामाजिक विज्ञान के रूप में मनोविज्ञान इस बात पर ध्यान देता है कि व्यवहारपरक गोचरों की व्याख्या अंतःक्रिया के रूप में किस प्रकार की जा सकती है। यहाँ अंतःक्रिया व्यक्ति एवं उसके सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भों में घटित होती है जिसका कि वह एक हिस्सा होता है। प्रत्येक व्यवहारपरक गोचर के कई कारण हो सकते हैं। आइए, इन दोनों धाराओं की अलग-अलग व्याख्या करें।
मनोविज्ञान एक प्राकृतिक विज्ञान के रूप में
पूर्व में बताया गया है कि मनोविज्ञान की जड़ें दर्शनशास्त्र में होती हैं। हालाँकि, आधुनिक मनोविज्ञान का विकास मनोवैज्ञानिक गोचरों के अध्ययन में वैज्ञानिक विधियों के अनुप्रयोग के कारण हुआ है। विज्ञान वस्तुनिष्ठता पर सर्वाधिक बल देता है जो एक संप्रत्यय की परिभाषा एवं वह कैसे मापा जा सकता है, के विषय में सहमति बनने पर प्राप्त की जा सकती है। देकार्त (Descartes) से प्रभावित तथा बाद में भौतिकी में हुए विकास से मनोविज्ञान में परिकल्पनात्मक-निगमनात्मक प्रतिरूप का अनुसरण हुआ। इस प्रतिरूप के अनुसार, यदि आपके पास किसी गोचर की व्याख्या हेतु सिद्धांत उपलब्ध है तो वैज्ञानिक उन्नति हो सकती है। उदाहरण के लिए, भौतिकविदों के पास महाविस्फोट सिद्धांत है जो विश्व निर्माण (समष्टि-निर्माण) के होने की व्याख्या करता है। सिद्धांत और कुछ नहीं है बल्कि कुछ कथन होते हैं जो यह बतलाते हैं कि कतिपय जटिल गोचरों की व्याख्या कतिपय प्रतिज्ञप्तियों जो एक-दूसरे से संबंधित होती हैं, की सहायता से किस प्रकार की जा सकती है। एक सिद्धांत पर आधारित वैज्ञानिक निगमन अथवा एक परिकल्पना का प्रस्ताव करता है जो एक काल्पनिक व्याख्या प्रदान करता है कि कोई निश्चित गोचर कैसे घटित होता है। उसके बाद परिकल्पना का परीक्षण किया जाता है और संग्रहीत प्रदत्तों के आधार पर उसे सही अथवा गलत सिद्ध किया जाता है। यदि संग्रहीत प्रदत्त परिकल्पना द्वारा बताए गए तथ्य के विपरीत दिशा की सूचना देते हैं तो सिद्धांत की पुनर्समीक्षा की जाती है। उपर्युक्त उपागम के उपयोग द्वारा मनोवैज्ञानिकों ने अधिगम, स्मृति, अवधान, प्रत्यक्षण, अभिप्रेरणा एवं संवेग आदि के सिद्धांतों को विकसित किया है तथा सार्थक प्रगति की है। आज तक मनोविज्ञान के अधिकांश अनुसंधान इस उपागम का उपयोग करते हैं। इसके अतिरिक्त, मनोवैज्ञानिक विकासात्मक उपागम से भी बहुत प्रभावित हुए हैं जो जैविक विज्ञानों में प्रबल है। इस उपागम का उपयोग लगाव तथा आक्रोश जैसे विविध मनोवैज्ञानिक गोचरों की व्याख्या में भी किया गया है।
मनोविज्ञान एक सामाजिक विज्ञान के रूप में
हमने ऊपर चर्चा की है कि मनोविज्ञान की पहचान एक सामाजिक विज्ञान के रूप में अधिक है क्योंकि यह मानव व्यवहार का उसके सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भों में अध्ययन करता है। मानव मात्र अपने सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भों से ही प्रभावित नहीं होते हैं बल्कि वे उनका निर्माण भी करते हैं। मनोविज्ञान एक सामाजिक विज्ञान की विद्याशाखा के रूप में मनुष्यों को सामाजिक प्राणी के रूप में देखता है। रंजीता एवं शबनम की निम्न कहानी देखें।
रंजीता एवं शबनम एक ही कक्षा में थीं। यद्यपि वे एक ही कक्षा में थीं और एक दूसरे से परिचित थीं फिर भी उनका जीवन काफी भिन्न था। रंजीता किसान परिवार से थी। उसके दादी-दादा, माता-पिता एवं बड़े भाई अपने खेतों में काम करते थे। वे गाँव के अपने घर में एक साथ रहते थे। रंजीता एक अच्छी खिलाड़ी थी तथा लंबी दौड़ में अपने विद्यालय में सर्वोत्तम थी। उसे लोगों से मिलना तथा मित्र बनाना पसंद था।
उसके विपरीत, शबनम उसी गाँव में अपनी माँ के साथ रहती थी। उसके पिता पास के एक कस्बे के कार्यालय में काम करते थे और छुट्टियों में घर आते थे। शबनम एक अच्छी कलाकार थी और घर पर रहना तथा अपने छोटे भाई का ध्यान रखना उसे पसंद था। वह शर्मीली थी तथा लोगों से मिलने जुलने से बचती थी।
विगत वर्ष बहुत वर्षा हुई तथा पास की नदी में आई बाढ़ गाँव में आ गई। निचले हिस्से में बने बहुत से घरों में पानी भर गया था। गाँव वालों ने एक साथ मिलकर जो लोग दुखी थे उन्हें आश्रय दिया था। शबनम के घर में भी बाढ़ आई थी तथा वह अपनी माँ एवं भाई के साथ रंजीता के घर रहने आई थी। रंजीता परिवार की सहायता करने तथा उन्हें सुख की अनुभूति कराने में प्रसन्न थी। जब बाढ़ कम हुई तो रंजीता की माँ एवं दादी ने शबनम की माँ का घर बसाने में सहायता की थी। दोनों परिवार एक दूसरे के बहुत निकट हो गए। रंजीता एवं शबनम भी एक दूसरे की घनिष्ठ मित्र हो गई थीं।
रंजीता एवं शबनम के इस उदाहरण में दोनों बिलकुल भिन्न व्यक्ति हैं। जटिल सामाजिक एवं सांस्कृतिक दशाओं में दोनों भिन्न परिवारों में पली-बढ़ी हैं। आप उनके स्वभाव, अनुभव एवं मानसिक प्रक्रियाओं में उनके सामाजिक एवं भौतिक वातावरण के साथ संबंध में कुछ नियमितता देख सकते हैं। परंतु उसी के साथ उनके व्यवहारों एवं अनुभवों में अंतर भी है, जिसका पूर्वकथन ज्ञात मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों से बहुत कठिन होगा। यहाँ यह समझा जा सकता है कि क्यों और कैसे समुदायों में लोग एक दूसरे की कठिनाई के समय सहायता करते हैं तथा त्याग करते हैं, जैसाकि रंजीता एवं शबनम के उदाहरण में देखने को मिला। परंतु उनकी स्थिति में भी सभी ग्रामीणों ने समान रूप से सहायता नहीं की थी तथा एेसी समान स्थिति में सभी समुदाय इतना आगे नहीं आते हैं; वास्तव में, कभी-कभी, उसका उलटा ही सही होता है - लोग समान परिस्थितियों में असामाजिक हो जाते हैं तथा विपदा में लूटने तथा शोषण करने में संलग्न हो जाते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि मनोविज्ञान मानव व्यवहार एवं अनुभव का उनके समाज तथा संस्कृति के संदर्भों में अध्ययन करता है। अतः मनोविज्ञान एक सामाजिक विज्ञान है जो व्यक्तियों एवं समुदायों पर उनके सामाजिक-सांस्कृतिक एवं भौतिक वातावरण के संदर्भ में ध्यान केंद्रित करता है।
मन एवं व्यवहार की समझ
आपकोे स्मरण होगा कि मनोविज्ञान को मन के विज्ञान के रूप में परिभाषित किया गया था। कई दशकों तक मनोविज्ञान में मन को अछूत माना गया था क्योंकि यह पूर्ण व्यवहारपरक शब्दावली में न ही परिभाषित हो पाया था, न ही इसकी स्थिति ज्ञात हो पाई थी। यदि मन शब्द का मनोविज्ञान में पुनरागमन हुआ है तो हमें उसके लिए स्पेरी (Sperry) जैसे तंत्रिका वैज्ञानिक एवं पेनरोज़ (Penrose) जैसे भौतिकविद का आभारी होना चाहिए जिन्होंने उसे वह सम्मान दिया जो उसके लिए वांछित था तथा जो सम्मान अब है। मनोविज्ञान सहित विविध विधाओं में वैज्ञानिक हैं जो यह सोचते हैं कि मन का एक एकीकृत सिद्धांत संभव है, यद्यपि यह वर्तमान में नहीं है।
मन क्या है? क्या यह मस्तिष्क के समान है? जैसाकि हमने ऊपर उल्लेख किया, यह सत्य है कि मन मस्तिष्क के बिना नहीं रह सकता, फिर भी मन एक पृथक सत्ता है। अनेक प्रलेखित और रुचिकर उदाहरणों के आधार पर आप सभी इसकी प्रशंसा कर सकते हैं। कुछ रोगियों में दृष्टि के लिए उत्तरदायी पश्चकपाल पालि को शल्य-चिकित्सा द्वारा हटा दिया गया था, तब भी उन्होंने चाक्षुष (आँखों से होने वाला प्रत्यक्ष प्रमाण) संकेतों की स्थिति एवं स्वरूप के विषय में सही उत्तर दिए। इसी प्रकार एक अनाड़ी खिलाड़ी मोटरसाइकिल दुर्घटना में अपनी बाँह गँवा बैठा परंतु बाँह का अनुभव वह बराबर करता रहा तथा उसकी गति का भी अनुभव करता रहा। जब उसे कॉफी दी गई तो उसकी छायाभासी बाँह कॉफी के कप तक पहुँची और जब किसी ने कप हटा दिया तो उसने विरोध किया। तंत्रिका वैज्ञानिकों द्वारा और भी बहुत से उदाहरण दिए गए हैं। एक व्यक्ति जिसे एक दुर्घटना में मस्तिष्क आघात हुआ था, जब वह अस्पताल से घर लौट आया, तो उसने बताया की उसके अभिभावक प्रतिरूपों द्वारा बदल दिए गए हैं। वे पाखंडी हैं। एेसी प्रत्येक घटना में, व्यक्ति मस्तिष्क के किसी भाग की क्षतिग्रस्तता का शिकार हुआ था परंतु उसका मन बिल्कुल ठीक-ठाक था। वैज्ञानिक पहले यह मानते थे कि मन एवं शरीर में कोई संबंध नहीं है और वे एक दूसरे के समानांतर हैं। भावपरक तंत्रिका विज्ञान में आधुनिक अध्ययनों से ज्ञात हुआ है कि मन एवं व्यवहार में संबंध है। यह दर्शाया गया है कि धनात्मक चाक्षुषीय तकनीकों तथा धनात्मक संवेगों की अनुभूतियों द्वारा शारीरिक प्रक्रियाओं में सार्थक परिवर्तन लाया जा सकता है। अॉर्निश (Ornish) ने अपने रोगियों पर किए गए अनेक अध्ययनों में यह दिखाया है। इन अध्ययनों में जिस व्यक्ति की धमनियों में रुकावट थी उसे यह अनुभव कराया गया कि उसकी अवरुद्ध धमनियों में रक्त प्रवाह हो रहा है। कुछ समय तक इसका अभ्यास करने के बाद इन रोगियों को सार्थक रूप से आराम हुआ क्योंकि धमनियों की अवरुद्धता कम हो गई थी। मानसिक प्रतिमा उदय अर्थात किसी व्यक्ति द्वारा मन में प्रतिमा उत्पन्न करने से भयग्रस्तता (वस्तुओं एवं परिस्थितियों से अतार्किक भय) के कई रूपों का निदान किया गया है। एक नयी विद्याशाखा, जिसे मनस्तंत्रिकीय रोग प्रतिरोधक विज्ञान कहा जाता है, विकसित हो रही है जो रोगप्रतिरोधक तंत्र को सशक्त करने में मन की भूमिका पर बल देती है।
क्रियाकलाप 1.1
आप अपने आपको दी गई परिस्थितियों में कल्पना कीजिए एवं देखिए। प्रत्येक दशा में समाहित तीन मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाओं को बताइए।
1. आप किसी प्रतिस्पर्धा के लिए निबंध लिख रहे हैं।
2. आप किसी रोचक विषय पर अपने मित्र से गपशप कर रहे हैं।
3. आप फुटबाल खेल रहे हैं।
4. आप टेलीविजन पर सोप ओपेरा देख रहे हैं।
5. आपके अच्छे मित्र ने आपको दुख पहुँचाया है।
6. आप किसी परीक्षा में भाग ले रहे हैं।
7. आप एक महत्वपूर्ण व्यक्ति के आने की प्रतीक्षा कर रहे हैं।
8. आप अपने विद्यालय में देने के लिए एक भाषण तैयार कर रहे है।
9. आप शतरंज खेल रहे हैं।
10. आप एक कठिन गणितीय समस्या का समाधान ढूँढ़ने का प्रयास कर रहे हैं।
आप अपने उत्तरों पर अपने अध्यापक तथा सहपाठियों से चर्चा कीजिए।
मनोविज्ञान विद्याशाखा की प्रसिद्ध धारणाएँ
हम पहले भी बता चुके हैं कि प्रतिदिन, हम सभी लोग एक मनोवैज्ञानिक की तरह कार्य करते हैं। हम यह जानने का प्रयास करते हैं कि कोई व्यक्ति जिस रूप में व्यवहार कर रहा है वह वैसा क्यों कर रहा है और उसका तैयार व्याख्यान देते हैं। मात्र यही नहीं, हममें से सभी ने मानव व्यवहार के लिए अपने-अपने सिद्धांत बनाए हैं। यदि हम किसी कार्यकर्ता से चाहते हैं कि वह अपने विगत कार्य से अच्छा कार्य करे तो हम जानते हैं कि हमें उसे उत्साहित करना पड़ेगा। आपको संभवतः छड़ी का प्रयोग करना पड़े क्योंकि लोग आलसी होते हैं। सामान्य ज्ञान सामान्य बोध पर आधारित मानव व्यवहार के एेसे सिद्धांतों का वैज्ञानिक अध्ययन करने पर वे सही तथा सही नहीं भी हो सकते हैं। वास्तव में, आप पाएँगे कि मानव व्यवहार की सामान्य बोध आधारित व्याख्याएँ अंधकार में तीर चलाने जैसी होंगी एवं बहुत कम व्याख्या कर पाएँगी। उदाहरण के लिए, यदि आपका प्रिय मित्र कहीं दूर चला जाए तो उसके प्रति आपके आकर्षण में क्या परिवर्तन आएगा? दो बातें कही जाती हैं जो आप अपने उत्तर के रूप में देख सकते हैं। उनमें से एक है ‘दृष्टि ओझल मन ओझल’। दूसरी बात ‘दूरी से हृदय में प्रेम और प्रगाढ़ होता है’। दोनों बयान एक दूसरे के विपरीत हैं। प्रश्न है कि इनमें कौन सही है। इसकी चयनित व्याख्या इस बात पर निर्भर करेगी कि अपने मित्र के जाने के बाद आपके जीवन में क्या घटित हुआ। मान लीजिए कि आपको एक नया मित्र मिल जाता है तो आप ‘दृष्टि ओझल मन ओझल’ की बात व्यवहार की व्याख्या के लिए उपयोग में लाएँगे। यदि आपको कोई नया मित्र नहीं मिलता है तो आप व्यग्रता से अपने मित्र को याद करेंगे। इस दशा में ‘दूरी से हृदय में प्रेम और प्रगाढ़ होता है’ से आप व्यवहार की व्याख्या करेंगे। सामान्य बोध अंधकार में तीर चलाने जैसा होगा। मनोविज्ञान एक विज्ञान के रूप में व्यवहार के स्वरूप को देखता है जिसका पूर्वकथन किया जा सके न कि घटित होने के पश्चात की गई व्याख्या को।
मनोविज्ञान द्वारा उत्पादित वैज्ञानिक ज्ञान सामान्य बोध के प्रायः विरुद्ध होता है। इसका एक उदाहरण ड्वेक (Dweck) का एक अध्ययन है। यह अध्ययन उन बच्चों से संबंधित है जो कठिन समस्या आने अथवा अनुत्तीर्ण होने पर सरलता से उसे छोड़ देते हैं। उसने सोचा कि उनकी सहायता कैसे की जा सकती है। सामान्य बोध के अनुसार हमें उन्हें सरल प्रश्न देना चाहिए जिससे उनके अनुत्तीर्ण होने की दर घट सके तथा उनका विश्वास बढ़ सके। इसके बाद ही उन्हें कठिन समस्याएँ देनी चाहिए जिनको वे अपने नए विश्वास के साथ हल कर सकेंगे। ड्वेक ने इसका परीक्षण किया। उसने विद्यार्थियों के दो समूहों को लिया जिन्हें गणित के प्रश्नों को हल करने के लिए 25 दिनों तक प्रशिक्षण दिया गया था। प्रथम समूह को सरल समस्याएँ दी गई थीं जो वे सहजतापूर्वक हल करने में सक्षम थे। द्वितीय समूह को जटिल एवं सरल दोनों ही प्रकार की समस्याएँ हल करने को दी गई थीं। स्पष्टतया वे जटिल समस्याओं को नहीं हल कर सके। जब कभी एेसा हुआ तो ड्वेक ने विद्यार्थियों से कहा कि वे समस्याओं को इसलिए नहीं हल कर पाए क्योंकि उन्होंने कठिन प्रयास नहीं किए तथा उन्हें ड्वेक ने पलायन के बदले प्रयास करते रहने को कहा। प्रशिक्षण काल समाप्त होने के बाद ड्वेक ने दोनों समूहों को समस्याओं का एक नया सेट दिया। जो लोग हमेशा सफल हुए थे क्योंकि उन्हें सरल समस्याएँ दी गई थीं वे असफल होने पर बहुत जल्दी पलायन कर गए, तुलना में उनके जिन्होंने सफलता और असफलता दोनों को देखा था तथा जिन्हें यह बताया गया था कि असफलता का कारण प्रयास की कमी रही है।
अन्य बहुत सी सामान्य बोध धारणाएँ हैं जिन्हें आप सत्य नहीं पाएँगे। अभी कुछ ही समय पूर्व कुछ संस्कृतियों के लोगों का विश्वास था कि पुरुष महिलाओं से अधिक बुद्धिमान होते हैं अथवा पुरुषों की तुलना में महिलाएं अधिक दुर्घटना करती हैं। आनुभाविक अध्ययनों से ज्ञात हुआ है कि ये दोनों धारणाएँ गलत हैं। सामान्य बोध यह भी बताता है कि यदि किसी व्यक्ति से अधिक श्रोताओं के समक्ष अपनी बात करने को कहा जाए तो उसका निष्पादन सर्वोत्तम नहीं होता है। मनोवैज्ञानिक अध्ययनों से पता चलता है कि यदि आपने अच्छा अभ्यास किया है तो वास्तव में आप अच्छा निष्पादन कर सकेंगे क्योंकि अधिक श्रोताओं के रहने से आपका निष्पादन बढ़ेगा।
यह आशा है कि जैसे-जैसे आप इस पाठ्यपुस्तक को पढ़ते जाएँगे आप में अनेक विश्वास एवं मानव व्यवहार की समझ परिवर्तित होती जाएगी। आप यह भी जान सकेंगे कि मनोवैज्ञानिक ज्योतिषियों, तांत्रिकों एवं हस्तरेखा विशारदों जैसा नहीं होता है क्योंकि वह प्रदत्तों पर आधारित बातों का व्यवस्थित अध्ययन करता है और मानव व्यवहार एवं अन्य मनोवैज्ञानिक गोचरों के विषय में सिद्धांत विकसित करता है।
क्रियाकलाप 1.2
विद्यार्थियों के एक प्रतिनिध्यात्मक समूह से पूछिए कि वे क्या समझते हैं कि मनोविज्ञान क्या है? आप तुलना कीजिए कि वे क्या कहते हैं और पाठ्यपुस्तक में क्या कहा गया है। आप उससे क्या निष्कर्ष निकालेंगे।
मनोविज्ञान का विकास
आधुनिक विद्याशाखा के रूप में मनोविज्ञान, जो पाश्चात्य विकास से एक बड़ी सीमा तक प्रभावित है, का इतिहास बहुत छोटा है। इसका उद्भव मनोवैज्ञानिक सार्थकता के प्रश्नों से संबद्ध प्राचीन दर्शनशास्त्र से हुआ है। हमने उल्लेख किया है कि आधुनिक मनोविज्ञान का औपचारिक प्रारंभ 1879 में हुआ जब विलहम वुण्ट (Wilhelm Wundt) ने लिपज़िग, जर्मनी में मनोविज्ञान की प्रथम प्रायोगिक प्रयोगशाला को स्थापित किया। वुण्ट सचेतन अनुभव के अध्ययन मे रुचि ले रहे थे और मन के अवयवों अथवा निर्माण की इकाइयों का विश्लेषण करना चाहते थे। वुण्ट के समय में मनोवैज्ञानिक अंतर्निरीक्षण (introspection) द्वारा मन की संरचना का विश्लेषण कर रहे थे इसलिए उन्हें संरचनावादी कहा गया। अंतर्निरीक्षण एक प्रक्रिया थी जिसमें प्रयोज्यों से मनोवैज्ञानिक प्रयोग में कहा गया था कि वे अपनी मानसिक प्रक्रियाओं अथवा अनुभवों का विस्तार से वर्णन करें। यद्यपि, अंतर्निरीक्षण एक विधि के रूप में अनेक मनोवैज्ञानिकों को संतुष्ट नहीं कर सका। इसे कम वैज्ञानिक माना गया क्योंकि अंतर्निरीक्षणीय विवरणों का सत्यापन बाह्य प्रेक्षकाें द्वारा संभव नहीं हो सका था। इसके कारण मनोविज्ञान में एक नया परिदृश्य उभर कर आया।
एक अमरीकी मनोवैज्ञानिक, विलियम जेम्स (William James) जिन्होंने कैम्ब्रिज, मसाचुसेट्स में एक प्रयोगशाला की स्थापना लिपज़िग की प्रयोगशाला के कुछ ही समय बाद की थी, ने मानव मन के अध्ययन के लिए प्रकार्यवादी (functionalist) उपागम का विकास किया। विलियम जेम्स का विश्वास था कि मानस की संरचना पर ध्यान देने के बजाय मनोविज्ञान को इस बात का अध्ययन करना चाहिए कि मन क्या करता है तथा व्यवहार लोगों को अपने वातावरण से निपटने के लिए किस प्रकार कार्य करता है। उदाहरण के लिए, प्रकार्यवादियों ने इस बात पर ध्यान केंद्रित किया कि व्यवहार लोगों को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करने योग्य कैसे बनाता है। विलियम जेम्स के अनुसार वातावरण से अंतःक्रिया करने वाली मानसिक प्रक्रियाओं की एक सतत धारा के रूप में चेतना ही मनोविज्ञान का मूल स्वरूप रूपायित करती है। उस समय के एक प्रसिद्ध शैक्षिक विचारक जॉन डीवी (John Dewey) ने प्रकार्यवाद का उपयोग यह तर्क करने के लिए किया कि मानव किस प्रकार वातावरण के साथ अनुकूलन स्थापित करते हुए प्रभावोत्पादक ढंग से कार्य करता है।
बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में, एक नयी धारा जर्मनी में गेस्टाल्ट मनोविज्ञान (gestalt psychology) के रूप में वुण्ट के संरचनावाद (structuralism) के विरुद्ध आई। इसने प्रात्यक्षिक अनुभवों के संगठन को महत्वपूर्ण माना। मन के अवयवों पर ध्यान न देकर गेस्टाल्टवादियों ने तर्क किया कि जब हम दुनिया को देखते हैं तो हमारा प्रात्यक्षिक अनुभव प्रत्यक्षण के अवयवों के समस्त योग से अधिक होता है। दूसरे शब्दों में, हम जो अनुभव करते हैं वह वातावरण से प्राप्त आगतों से अधिक होता है। उदाहरण के लिए, जब अनेक चमकते बल्बों से प्रकाश हमारे दृष्टिपटल पर पड़ता है तो हम प्रकाश की गति का अनुभव करते हैं। जब हम कोई चलचित्र देखते हैं तो हम स्थिर चित्रों की तेज़ गति से चलती प्रतिमाओं को अपने दृष्टिपटल पर देखते हैं। इसलिए, हमारा प्रात्यक्षिक अनुभव अपने अवयवों से अधिक होता है। अनुभव समग्रतावादी होता है- यह एक गेस्टाल्ट होता है। हम गेस्टाल्ट मनोविज्ञान के विषय में प्रत्यक्षण के स्वरूप की चर्चा करते हुए अध्याय 5 में अधिक विस्तार से पढ़ेंगे।
संरचनावाद की प्रतिक्रिया स्वरूप एक और धारा व्यवहारवाद (behaviourism) के रूप में आई। सन् 1910 के आसपास जॉन वाट्सन (John Watson) ने मन एवं चेतना के विचार को मनोविज्ञान के केंद्रीय विषय के रूप में अस्वीकार कर दिया। वे दैहिकशास्त्री इवान पावलव (Ivan Pavlov) के प्राचीन अनुबंधन वाले कार्य से बहुत प्रभावित थे। उनके लिए मन प्रेक्षणीय नहीं है और अंतर्निरीक्षण व्यक्तिपरक है क्योंकि उसका सत्यापन एक अन्य प्रेक्षक द्वारा नहीं किया जा सकता है। उनके अनुसार एक विज्ञान के रूप में मनोविज्ञान क्या प्रेक्षणीय तथा सत्यापन करने योग्य है, इसी पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। उन्होंने मनोविज्ञान को व्यवहार के अध्ययन अथवा अनुक्रियाओं (उद्दीपकों की) जिनका मापन किया जा सकता है तथा वस्तुपरक ढंग से अध्ययन किया जा सकता है, के रूप में परिभाषित किया। वाट्सन के व्यवहारवाद का विकास अनेक प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिकों द्वारा आगे बढ़ाया गया जिन्हें हम व्यवहारवादी कहते हैं। इनमें सबसे प्रसिद्ध स्किनर (Skinner) थे जिन्होंने व्यवहारवाद का अनुप्रयोग विविध प्रकार की परिस्थितियों में किया तथा इस उपागम को प्रसिद्धि दिलाई। हम स्किनर के कार्य का इस पुस्तक में आगे वर्णन करेंगे।
वाट्सन के बाद यद्यपि व्यवहारवाद मनोविज्ञान में कई दशकों तक छाया रहा परंतु उसी समय मनोविज्ञान के विषय में एवं उसकी विषयवस्तु के विषय में कई अन्य विचार एवं उपागम विकसित हो रहे थे। एक व्यक्ति जिसने मानव स्वभाव के विषय में अपने मौलिक विचार से पूरी दुनिया को झंकृत कर दिया वे सिगमंड फ्रायड (Sigmund Freud) थे। फ्रायड ने मानव व्यवहार को अचेतन इच्छाओं एवं द्वंद्वाें का गतिशील प्रदर्शन बताया। मनोवैज्ञानिक विकारों को समझने एवं उन्हें ठीक करने के लिए उन्होंने मनोविश्लेषण (psycho-analysis) को एक पद्धति के रूप में स्थापित किया। फ्रायड की मनोविश्लेषण पद्धति ने मानव स्वभाव को आनंद प्राप्ति की (बहुधा लैंगिक) इच्छाओं की संतुष्टि के लिए अचेतन इच्छाओें द्वारा अभिप्रेरित बताया। जबकि मानवतावादी परिदृश्य (humanistic perspective) ने मानव स्वभाव को एक धनात्मक विचारधारा बताया। मानवतावादी, जैसे कार्ल रोजर्स (Carl Rogers) तथा अब्राहम मैस्लो (Abraham Maslow) ने मानव की स्वतंत्र कामनाओं तथा उनके विकसित होने की उद्दाम लालसाओं एवं अपने आंतरिक विभवों के मुखरित होने की इच्छाओं पर अधिक बल दिया। उनका तर्क था कि व्यवहारवाद वातावरण की दशाओं से निर्धारित व्यवहार पर बल देता है जो मानव स्वतंत्रता एवं गरिमा का न्यूनानुमान करता है तथा मानव स्वभाव के विषय में एक यांत्रिक विचार रखता है।
बॉक्स 1.1 आधुनिक मनोविज्ञान के विकास में कुछ रोचक घटनाएँ
1879 विलहम वुण्ट (Wilhelm Wundt) ने लिपज़िग, जर्मनी में प्रथम मनोविज्ञान प्रयोगशाला को स्थापित किया।
1890 विलियम जेम्स (William James) ने ‘प्रिंसिपल अॉफ साइकोलॉजी’ प्रकाशित की।
1895 मनोविज्ञान की एक व्यवस्था के रूप में प्रकार्यवाद की स्थापना।
1900 सिगमंड फ्रायड (Sigmund Freud) ने मनोविश्लेषणवाद का विकास किया।
1904 इवान पावलव (Ivan Pavlov) को नोबल पुरस्कार पाचन व्यवस्था के कार्य के लिए मिला जिससे अनुक्रियाओं के विकास के सिद्धांत को समझा जा सका।
1905 बीने (Binet) एवं साइमन (Simon) द्वारा बुद्धि परीक्षण का विकास।
1912 जर्मनी में गेस्टाल्ट मनोविज्ञान का उदय हुआ।
1916 कलकत्ता विश्वविद्यालय में मनोविज्ञान का प्रथम विभाग खुला।
1922 मनोविज्ञान को इण्डियन साइंस कांग्रेस एसोसिएशन में सम्मिलित किया गया।
1924 भारतीय मनोवैज्ञानिक एसोसिएशन की स्थापना हुई।
1924 जॉन बी. वाट्सन (John B. Watson) ने व्यवहारवाद पुस्तक लिखी जिससे व्यवहारवाद की नींव पड़ी।
1928 एन.एन. सेनगुप्ता (N.N. Sengupta) एवं राधाकमल मुकर्जी (Radhakamal Mukerjee) ने सामाजिक मनोविज्ञान की प्रथम पुस्तक लिखी (लंदन: एलन और अनविन)।
1949 डिफेंस साइंस आर्गेनाइजेशन अॉफ इंडिया में मनोवैज्ञानिक शोध खण्ड की स्थापना।
1951 मानववादी मनोवैज्ञानिक कार्ल रोजर्स (Carl Rogers) ने रोगी-केंद्रित चिकित्सा प्रकाशित की।
1953 बी.एफ. स्किनर (B.F. Skinner) ने ‘साइंस एंड ह्यूमन बिहेविअर’ प्रकाशित की जिससे व्यवहारवाद को मनोविज्ञान के एक प्रमुख उपागम के रूप में बढ़ावा मिला।
1954 मानववादी मनोवैज्ञानिक अब्राहम मैस्लो (Abraham Maslow) ने ‘मोटिवेशन एंड पर्सनॉलटी’ प्रकाशित की।
1954 इलाहाबाद में मनोविज्ञानशाला की स्थापना।
1955 बंगलौर में नेशनल इंस्टीट्यूट अॉफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरोसाइंसेस (NIMHANS) की स्थापना।
1962 रांची में हॉस्पिटल फॉर मेंटल डिज़ीज़िज की स्थापना।
1973 कोनराड लारेंज़ (Konrad Lorenz) तथा निको टिनबर्गेन (Niko Tinbergen) को उनके कार्य पशु व्यवहार की उपजाति विशिष्टता की अंतर्निर्मित शैली जो बिना किसी पूर्व अनुभव अथवा अधिगम के होती है, पर नोबल पुरस्कार मिला।
1978 निर्णयन पर किए गए कार्य के लिए हर्बर्ट साइमन (Herbert Simon) को नोबल पुरस्कार प्राप्त।
1981 डेविड ह्यूबल (David Hubel) एवं टास्ρटेन वीसल (Torsten Wiesel) को मस्तिष्क की दृष्टि कोशिकाओं पर शोध के लिए नोबल पुरस्कार प्राप्त।
1981 रोजर स्पेरी (Roger Sperry) को मस्तिष्क विच्छेद अनुसंधान के लिए नोबल पुरस्कार प्राप्त।
1989 नेशनल अकेडमी अॉफ साइकोलॉजी (NAOP) इंडिया की स्थापना।
1997 गुड़गाँव, हरियाणा में नेशनल ब्रेन रिसर्च सेंटर (NBRC) की स्थापना।
2002 अनिश्चितता में मानव निर्णयन के अनुसंधान पर डेनियल कहनेमन (Daniel Kahneman) को नोबल पुरस्कार मिला।
2005 आर्थिक व्यवहार में सहयोग एवं द्वंद्व की समझ में खेल सिद्धांत के अनुप्रयोग के लिए थामस शेलिंग (Thomas Schelling) को नोबल पुरस्कार प्राप्त हुआ।
इन विविध उपागमों ने आधुनिक मनोविज्ञान का इतिहास रचा तथा उसके विकास के विविध पक्षों को प्रस्तुत किया। इनमें से प्रत्येक पक्ष की अपनी केंद्रीयता है तथा वे मनोवैज्ञानिक जटिलताओं की तरफ हमारा ध्यानकर्षण करते हैं। प्रत्येक उपागम के अपने गुण एवं दोष हैं। इनमें से कुछ उपागमों का इस विद्याशाखा के विकास में आगे भी सहयोग रहा है। गेस्टाल्ट उपागम के विविध पक्ष तथा संरचनावाद के पक्ष संयुक्त होकर संज्ञानात्मक परिदृश्य (cognitive perspective) का विकास करते हैं जो इस बात पर केंद्रित होते हैं कि हम दुनिया को कैसे जानते हैं। संज्ञान (cognition) ज्ञान होने की प्रक्रिया होता है। इसमें चिंतन, समझ, प्रत्यक्षण, स्मरण करना, समस्या समाधान तथा अन्य अनेक मानसिक प्रक्रियाएँ आती हैं जिससे हमारा दुनिया का ज्ञान विकसित होता है- हम दुनिया को जान सकते हैं। यह हमें इस योग्य बनाता है कि हम वातावरण के साथ विशिष्ट ढंग से रह सकें। कुछ संज्ञानात्मक मनोवैज्ञानिक मानव मन को कंप्यूटर की तरह एक सूचना प्रक्रमण तंत्र के रूप में देखते हैं। इस विचारधारा के अनुसार मन एक कंप्यूटर की तरह का होता है जो सूचना को प्राप्त करता है, प्रक्रमण करता है, रूपांतरण करता है, संचित करता है तथा आवश्यकता पड़ने पर उसकी पुनर्प्राप्ति करता है। आधुनिक संज्ञानात्मक मनोविज्ञान मनुष्यों को उनके सामाजिक एवं भौतिक वातावरण के अन्वेषणों के द्वारा अपने मन की सक्रिय रचना करने वाले के रूप में देखता है। इस विचारधारा को कभी-कभी निर्मितिवाद (constructivism) कहते हैं। बाल-विकास के विषय में पियाजे (Piaget) का सिद्धांत, जिसकी चर्चा हम आगे करेंगे, को मानव मन के विकास का निर्मितिपरक सिद्धांत कहा जाता है। रूस के एक अन्य मनोवैज्ञानिक व्यगाट्स्की (Vygotsky) ने आगे बढ़ कर सुझाव दिया है कि मानव मन का विकास सामाजिक एवं सांस्कृतिक प्रक्रियाओं के माध्यम से होता है जिसमें मन को वयस्कों एवं बच्चों के मध्य होेने वाली अंतःक्रियाओं द्वारा सांस्कृतिक निर्मितियों के रूप में देखा जाता है। दूसरे शब्दों में, जहाँ पियाजे मानते हैं कि बच्चे अपने मन का निर्माण सक्रिय रूप से करते हैं वहीं व्यगाट्स्की का मत है कि मन एक संयुक्त सांस्कृतिक निर्मिति है तथा वयस्कों एवं बच्चों की अंतःक्रिया के परिणामस्वरूप उद्भूत होती है।
भारत में मनोविज्ञान का विकास
भारतीय दार्शनिक परंपरा इस बात में धनी रही है कि वह मानसिक प्रक्रियाओं तथा मानव चेतना, स्व, मन-शरीर के संबंध तथा अनेक मानसिक प्रकार्य; जैसे- संज्ञान, प्रत्यक्षण, भ्रम, अवधान तथा तर्कना आदि पर उनकी झलक के संबंध में केंद्रित रही है। दुर्भाग्य से भारतीय परंपरा की गहरी दार्शनिक जड़ें भारतवर्ष में आधुनिक मनोविज्ञान के विकास को नहीं प्रभावित कर सकी हैं। भारत में इसके विकास पर पाश्चात्य मनोविज्ञान का भी प्रभुत्व निरंतर बना हुआ है, यद्यपि यहाँ एवं विदेश में भी इसकी एक अलग पहचान के लिए कुछ प्रयास किए गए हैं और कुछ बिंदु सुनिश्चित किए गए हैं। इन प्रयासों ने वैज्ञानिक अध्ययनों के माध्यम से भारतीय दार्शनिक परंपरा की बहुत सी मान्यताओं की सत्यता स्थापित करने का यत्न किया है।
भारतीय मनोविज्ञान का आधुनिक काल कलकत्ता विश्वविद्यालय के दर्शनशास्त्र विभाग में 1915 मेें प्रारंभ हुआ जहाँ प्रायोगिक मनोविज्ञान का प्रथम पाठ्यक्रम आरंभ किया गया तथा प्रथम मनोविज्ञान प्रयोगशाला स्थापित हुई। कलकत्ता विश्वविद्यालय ने 1916 में प्रथम मनोविज्ञान विभाग तथा 1938 में अनुप्रयुक्त मनोविज्ञान का विभाग प्रारंभ किया। कलकत्ता विश्वविद्यालय में आधुनिक प्रायोगिक मनोविज्ञान का प्रारंभ भारतीय मनोवैज्ञानिक डॉ. एन.एन. सेनगुप्ता, जो वुण्ट की प्रायोगिक परंपरा में अमेरिका में प्रशिक्षण प्राप्त थे, से बहुत प्रभावित था। प्रोफेसर जी. बोस फ्रायड के मनोविश्लेषण में प्रशिक्षण प्राप्त थे- एक एेसा क्षेत्र जिसने भारत में मनोविज्ञान के आरंभिक विकास को प्रभावित किया। प्रोफेसर बोस ने ‘इंडियन साइकोएनेलिटिकल एसोसिएशन’ की स्थापना 1922 में की थी। मैसूर विश्वविद्यालय एवं पटना विश्वविद्यालय में मनोविज्ञान के अध्यापन एवं अनुसंधान के प्रारंभिक केंद्र प्रारंभ हुए। प्रारंभ से मनोविज्ञान भारत में एक सशक्त विद्याशाखा के रूप में विकसित हुआ। मनोविज्ञान अध्यापन, अनुसंधान तथा अनुप्रयोग के अनेक केंद्र हैं। मनोविज्ञान में उत्कृष्टता अथवा वैशिष्ट्य के दो केंद्र उत्कल विश्वविद्यालय, भुवनेश्वर तथा इलाहाबाद विश्वविद्यालय, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा सहायता प्राप्त हैं। करीब 70 विश्वविद्यालयों में मनोविज्ञान के पाठ्यक्रम चलाए जाते हैं।
दुर्गानन्द सिन्हा ने अपनी पुस्तक ‘साइकोलॉजी इन ए थर्ड वर्ल्ड कन्ट्री: दि इंडियन एक्सपीरियन्स’ (1986 में प्रकाशित) में भारत में सामाजिक विज्ञान के रूप में चार चरणों में आधुनिक मनोविज्ञान के इतिहास को खोजा है। उनके अनुसार, प्रथम चरण स्वतन्त्रता की प्राप्ति तक एक एेसा चरण था जब प्रयोगात्मक, मनोविश्लेषणात्मक एवं मनोवैज्ञानिक परीक्षण अनुसंधान पर बहुत बल था जिससे पाश्चात्य देशों का मनोविज्ञान के विकास में योगदान परिलक्षित हुआ था। द्वितीय चरण में 1960 तक भारत में मनोविज्ञान की विविध शाखाओं में विस्तार का समय था। इस चरण में भारतीय मनोविज्ञानिकों की इच्छा थी कि भारतीय पहचान के लिए पाश्चात्य मनोविज्ञान को भारतीय संदर्भों से जोड़ा जाए। उन्होंने एेसा प्रयास पाश्चात्य विचारों द्वारा भारतीय परिस्थितियों को समझने के लिए किया। फिर भी, भारत में मनोविज्ञान 1960 के बाद भारतीय समाज के लिए समस्या-केंद्रित अनुसंधानों द्वारा सार्थक हुआ। मनोवैज्ञानिक भारतीय समाज की समस्याओं के प्रति अधिक ध्यान देने लगे। पुनश्च, अपने सामाजिक संदर्भ में पाश्चात्य मनोविज्ञान पर अतिशय निर्भरता का अनुभव किया जाने लगा। महत्वपूर्ण मनोवैज्ञानिकों ने उस अनुसंधान की सार्थकता पर अधिक बल दिया जो हमारी परिस्थितियों के लिए सार्थक हों। भारत में मनोविज्ञान की नयी पहचान की खोज के कारण चतुर्थ चरण के रूप में 1970 के अंतिम समय में देशज मनोविज्ञान का उदय हुआ। पाश्चात्य ढाँचे को नकारने के अतिरिक्त भारतीय मनोवैज्ञानिकों ने एक एेसी समझ विकसित करने की आवश्यकता पर बल दिया जो सामाजिक एवं सांस्कृतिक रूप से सार्थक ढाँचे पर आधारित हो। इस रुझान की झलक उन प्रयासों में दिखी जिनसे पारंपरिक भारतीय मनोविज्ञान पर आधारित उपागमों का विकास हुआ, जो हमने प्राचीन ग्रंथों एवं धर्मग्रंथों से लिए थे। इस प्रकार इस चरण की विशेषता को देशज मनोविज्ञान के विकास, जो भारतीय सांस्कृतिक संदर्भ से उत्पन्न हुआ था तथा भारतीय मनोविज्ञान एवं समाज के लिए सार्थक था और भारतीय पारंपरिक ज्ञान पर आधारित था, द्वारा जाना जाता है। अब ये विकास सतत रूप से हो रहे हैं, भारत में मनोविज्ञान विश्व में मनोविज्ञान के क्षेत्र में सार्थक योगदान कर रहा है। यह बहुत ही संदर्भगत है जिसमें मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों के विकास की आवश्यकता है जिनकी जड़ें हमारे सामाजिक एवं सांस्कृतिक संदर्भ में पाई जाएँ। इसी के साथ हम देखते हैं कि नए अनुसंधान अध्ययन, जिसमें तंत्रिका-जैविक तथा स्वास्थ्य विज्ञान के अन्तरापृष्ठीय स्वरूप समाविष्ट हैं, किए जा रहे हैं।
भारत में मनोविज्ञान का अनुप्रयोग अनेक व्यावसायिक क्षेत्रों में किया जा रहा है। मनोवैज्ञानिक मात्र विशिष्ट समस्याओं वाले बच्चों के साथ ही कार्य नहीं कर रहे हैं, वे चिकित्सालयों में नैदानिक मनोवैज्ञानिक के रूप में नियुक्त हो रहे हैं, मानव संसाधन विकास विभाग एवं विज्ञापन विभागों जैसे कंपनी संगठनों में, खेलकूद निदेशालयों में, विकास क्षेत्रक तथा सूचना प्रौद्योगिकी उद्योगों में नियुक्त हो रहे हैं।
मनोविज्ञान की शाखाएँ
वर्षों मेें मनोविज्ञान के विविध विशिष्ट क्षेत्रों का प्रादुर्भाव हुआ है जिनमें से कुछ का वर्णन इस खंड में किया जा रहा है।
संज्ञानात्मक मनोविज्ञान अर्जन, संग्रह, प्रहस्तन तथा सूचनाओं के रूपांतरण में, जो वातावरण से प्राप्त होती हैं, उनके उपयोग तथा संप्रेषण के साथ मानसिक प्रक्रियाओं की खोज करता है। प्रमुख संज्ञानात्मक प्रक्रियाएँ अवधान, प्रत्यक्षण, स्मृृति, तर्कना, समस्या समाधान, निर्णयन एवं भाषा हैं। आप इन विषयों को इस पाठ्यपुस्तक में आगे पढ़ेंगे। इन प्रक्रियाओं के अध्ययन के लिए मनोवैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में प्रयोग करते हैं। इनमें से कुछ पारिस्थितिक उपागम का भी उपयोग करते हैं अर्थात वह उपागम जो संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं को उनके प्राकृतिक स्वरूप में अध्ययन करने के लिए पर्यावरणी कारकों पर ध्यान देते हैं। संज्ञानात्मक मनोवैज्ञानिक तंत्रिकावैज्ञानिक एवं कंप्यूटर वैज्ञानिकों के साथ भी सहयोग करते हैं।
जैविक मनोविज्ञान व्यवहार तथा शारीरिक व्यवस्था के मध्य संबंधों, मस्तिष्क तथा अन्य तांत्रिका तंत्र, प्रतिरोधक व्यवस्था, एवं आनुवंशिकी सहित, पर ध्यान केंद्रित करते हैं। जैविक मनोवैज्ञानिक तंत्रिकावैज्ञानिकों, प्राणिवैज्ञानिकों तथा मानवशास्त्रियों के साथ भी कार्य करते हैं। तंत्रिका मनोविज्ञान (neuro-psychology) अनुसंधान के एक क्षेत्र के रूप में उभरा है जहाँ मनोवैज्ञानिक एवं तंत्रिकावैज्ञानिक मिल-जुलकर कार्य करते हैं। अनुसंधानकर्ता तंत्रिका संचारकों की भूमिका, जो मस्तिष्क के विभिन्न क्षेत्रों में तंत्रिका संचार के लिए उत्तरदायी होते हैं और इसीलिए साहचर्ययुक्त मानसिक प्रकार्यों में इनका अध्ययन करते हैं। वे अपना अनुसंधान प्रकृत रूप में कार्य करने वाले मस्तिष्क के व्यक्तियों तथा शल्य मस्तिष्क वाले लोगों के प्रकायोेρ का विकसित तकनीकों यथा ई.ई.जी., पी.ई.टी. तथा एफ.एम.आर.आई. आदि की सहायता से, जिसके विषय में आप आगे पढ़ेंगे, अध्ययन करते हैं।
विकासात्मक मनोविज्ञान गर्भधारण से लेकर वृद्धावस्था तक के जीवन विस्तार के विभिन्न आयु एवं अवस्थाओं में होने वाले भौतिक, सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक परिवर्तनों का अध्ययन करता है। विकासात्मक मनोवैज्ञानिकों का प्राथमिक लक्ष्य यह जानना होता है कि जो हम हैं वह कैसे हुए। बहुत वर्षों तक बच्चों एवं किशोरों के विकास पर ध्यान केंद्रित था। यद्यपि आजकल वयस्कों एवं काल-प्रभावन के विषय में विकासात्मक मनोवैज्ञानिक बहुत अधिक रुचि ले रहे हैं। वे जैविक, सामाजिक-सांस्कृतिक तथा पर्यावरणी कारकों जो मनोवैज्ञानिक विशेषताओं यथा बुद्धि, संज्ञान, संवेग, मिज़ाज, नैतिकता एवं सामाजिक संबंधों को प्रभावित करते हैं, पर अधिक ध्यान केंद्रित करते हैं। विकासात्मक मनोवैज्ञानिक मानवशास्त्रियों, शिक्षाविदों, तंत्रिकावैज्ञानिकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, परामर्शदाताओं तथा ज्ञान की सभी शाखाओं, जो मनुष्य की संवृद्धि एवं विकास से संबद्ध हैं, के साथ मिलकर कार्य करते हैं।
सामाजिक मनोविज्ञान यह समन्वेषण करता है कि लोग अपने सामाजिक वातावरण से कैसे प्रभावित होते हैं, लोग दूसरों के विषय में कैसा सोचते हैं तथा उन्हें कैसे प्रभावित करते हैं। सामाजिक मनोवैज्ञानिक अभिवृत्ति, समरूप तथा अधिकारियों के प्रति आज्ञाकारिता, अंतर्वैयक्तिक आकर्षण, सहायतापरक व्यवहार, पूर्वाग्रह, आक्रोश, सामाजिक अभिप्रेरणा, अंतर्समूह संबंध आदि विषयों में रुचि लेते हैं।
अंतःसांस्कृतिक एवं सांस्कृतिक मनोविज्ञान व्यवहार, विचार तथा संवेग को समझने में संस्कृति की भूमिका का अध्ययन करता है। इसकी मान्यता है कि मानव व्यवहार मात्र मानव-जैविक विभवों की प्रस्तुति न होकर संस्कृति का भी उत्पाद होता है। इसलिए, व्यवहार का अध्ययन उसके सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भ में किया जाना चाहिए। जैसाकि आप इस पुस्तक के विभिन्न अध्यायों में पढ़ेंगे, संस्कृति मानव व्यवहार को विविध रूपों एवं विभिन्न सीमाओं तक प्रभावित करती है।
पर्यावरणी मनोविज्ञान तापमान, आर्दΡता, प्रदूषण तथा प्राकृतिक आपदा जैसे भौतिक कारकों का मानव व्यवहार के साथ अंतःक्रियाओं का अध्ययन करता है। कार्य करने के स्थान पर भौतिक चीज़ों की व्यवस्था के स्वरूप का स्वास्थ्य, सांवेगिक अवस्था तथा अंतर्वैयक्तिक संबंधों पर पड़ने वाले प्रभावों का अन्वेषण करता है। इस क्षेत्र में नवीन विषय के रूप में किस सीमा तक, उत्सर्ग प्रबंधन, जनसंख्या विस्फोट, ऊर्जा संरक्षण, सामुदायिक संसाधनों का सक्षम उपयोग आदि जुड़े हैं जो मानव व्यवहार के प्रकार्य होते हैं।
स्वास्थ्य मनोविज्ञान रोगों के विकास, बचाव एवं निदान में मनोवैज्ञानिक कारकों (उदाहरण के लिए, दबाव, दुशि्ंचता) की भूमिका पर केंद्रित होता है। स्वास्थ्य मनोवैज्ञानिकों की रुचि के क्षेत्र दबाव तथा समायोजी व्यवहार, मनोवैज्ञानिक कारकों एवं स्वास्थ्य के बीच संबंध, डॉक्टर-रोगी संबंध तथा स्वास्थ्य वृद्धि के कारकों को बढ़ावा देने वाले उपाय हैं।
नैदानिक एवं उपबोधन मनोविज्ञान दुशि्ंचता, अवसाद, खानपान व्यतिक्रम तथा चिरकालिक पदार्थ दुरुपयोग जैसे मनोवैज्ञानिक व्यतिक्रमों के निदान एवं बचाव से संबंधित होता है। एक संबंधित क्षेत्र उपबोधन का होता है जिसका लक्ष्य लोगों के दैनंदिन प्रकार्यों में लोगों की रोजमर्रा की समस्याओं को हल करने तथा चुनौतीपूर्ण स्थितियों में सामंजस्य बनाने में सहायता करके सुधार लाना होता है। नैदानिक मनोवैज्ञानिकों का कार्य उपबोधन मनोवैज्ञानिकों के कार्य से भिन्न नहीं होता है, यद्यपि उपबोधन मनोवैज्ञानिक कभी-कभी एेसे लोगों का अध्ययन करते हैं जिनकी समस्याएँ कम गंभीर रहती हैं। बहुत सी स्थितियों में उपबोधन मनोवैज्ञानिक छात्रों को उनकी व्यक्तिगत समस्याओं एवं जीवनवृत्ति योजना के विषय में अपनी सलाह भी देते हैं। नैदानिक मनोवैज्ञानिकों की तरह मनोरोगविज्ञानी भी मनोवैज्ञानिक व्यतिक्रमों के कारणों, उपचारों तथा उनसे बचाव का अध्ययन करते हैं। नैदानिक मनोवैज्ञानिक एवं मनोरोगविज्ञानी एक दूसरे से कैसे भिन्न होते हैं? नैदानिक मनोवैज्ञानिक के पास मनोविज्ञान की एक उपाधि होती है जिसमें वह कठिन प्रशिक्षण प्राप्त करता है तथा वह लोगों के मनोवैज्ञानिक व्यतिक्रमों का उपचार करता है। इसके विपरीत, मनोरोगविज्ञानी के पास चिकित्सा विज्ञान की उपाधि होती है जो मनोवैज्ञानिक व्यतिक्रम के निदान हेतु वर्षों का विशिष्ट प्रशिक्षण प्राप्त किए हुए हाते हैं। एक महत्वपूर्ण अंतर यह होता है कि मनोरोगविज्ञानी ही दवाइयों का सुझाव दे सकता है तथा विद्युत आघात उपचार प्रदान कर सकता है जबकि नैदानिक मनोरोगवैज्ञानिक एेसा नहीं कर सकता है।
औद्योगिक/संगठनात्मक मनोविज्ञान कार्यस्थल व्यवहार का अध्ययन करता है तथा कार्मिकों एवं उन्हें नियुक्त करने वाले संगठनों पर ध्यान देता है। औद्योगिक/संगठनात्मक मनोवैज्ञानिक कर्मचारियों के प्रशिक्षण, कार्यदशा में सुधार तथा कर्मचारियों की नियुक्ति के मानक से संबंधित होता है। उदाहरण के लिए, संगठनात्मक मनोवैज्ञानिक इस बात का सुझाव दे सकता है कि कंपनी एक नयी प्रबंध संरचना तैयार करे जो कर्मचारियों तथा प्रबंधक के मध्य के संवाद में वृद्धि कर सके। औद्योगिक एवं संगठनात्मक मनोवैज्ञानिक की पृष्ठभूमि में संज्ञानात्मक तथा सामाजिक मनोविज्ञान में प्राप्त प्रशिक्षण होता है।
शैक्षिक मनोविज्ञान इस बात का अध्ययन करता है कि विभिन्न आयुवर्ग के लोग कैसे सीखते हैं। शैक्षिक मनोवैज्ञानिक मूलतः शैक्षिक और कार्यदशा दोनों में लोग निर्देशात्मक विधियों एवं सामग्रियों के उपयोग से कैसे प्रशिक्षित किए जाते हैं, से संबंधित होते हैं। वे शिक्षा, उपबोधन और अधिगम की समस्याओं के लिए सार्थक पक्षों के अनुसंधानों से भी संबंधित होते हैं। एक संबंधित क्षेत्र, विद्यालय मनोविज्ञान (school psychology ) बच्चों के बौद्धिक, सामाजिक एवं सांवेगिक विकास के कार्यक्रमों को तैयार करने में ध्यान देता है, जिसमें विशेष आवश्यकता वाले बच्चे भी सम्मिलित होते हैं। वे मनोविज्ञान के ज्ञान का स्कूल परिवेश में अनुप्रयोग करते हैं।
क्रीड़ा मनोविज्ञान क्रीड़ा निष्पादन का अभिप्रेरणा स्तर बढ़ाकर मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों द्वारा सुधार लाने का प्रयास करता है। क्रीड़ा मनोविज्ञान तुलनात्मक रीति से नया क्षेत्र है परंतु विश्व स्तर पर स्वीकृति पा रहा है।
मनोविज्ञान की अन्य उद्भूत शाखाएँ: मनोविज्ञान के अनुसंधान एवं अनुप्रयोग में अंतर्विषयक ध्यान के कारण अन्य अनेक क्षेत्र उत्पन्न हुए हैं; जैसे- वैमानिकी मनोविज्ञान, अंतरिक्ष मनोविज्ञान, सैन्य मनोविज्ञान, न्यायालयिक मनोविज्ञान, ग्रामीण मनोविज्ञान, अभियांत्रिकी मनोविज्ञान, प्रबंधकीय मनोविज्ञान, सामुदायिक मनोविज्ञान, महिला मनोविज्ञान, तथा राजनैतिक मनोविज्ञान कुछ उदाहरण हैं। नीचे दिए गए क्रियाकलाप 1.3 से मनोविज्ञान में अपनी रुचि का क्षेत्र पहचानिए।
क्रियाकलाप 1.3
पुस्तक में पढ़े गए मनोविज्ञान के क्षेत्रों के विषय में सोचिए। नीचे दी गई सूची देखिए तथा 1 (अत्यंत रुचिकर) से 11 (अल्प रुचिकर) की कोटि प्रदान कीजिए।
संज्ञानात्मक मनोविज्ञान
जैविक मनोविज्ञान
विकासात्मक मनोविज्ञान
सामाजिक मनोविज्ञान
अंतःसांस्कृतिक एवं सांस्कृतिक मनोविज्ञान
पर्यावरणी मनोविज्ञान
स्वास्थ्य मनोविज्ञान
नैदानिक एवं उपबोधन मनोविज्ञान
औद्योगिक/संगठनात्मक मनोविज्ञान
शैक्षिक मनोविज्ञान
क्रीड़ा मनोविज्ञान
इस पाठ्यपुस्तक को पढ़ने और पाठ्यक्रम को पूरा करने के बाद, आप इस क्रियाकलाप की ओर लौटना और अपनी कोटि में परिवर्तन करना चाहेंगे।
अनुसंधान एवं अनुप्रयोग के कथ्य
पिछले अनुभाग में आपने मनोविज्ञान की विविध शाखाओं के विषय में जानकारी प्राप्त की। यदि आपसे एक सरल प्रश्न पूछा जाए कि ‘मनोवैज्ञानिक क्या करते हैं?’ तो आपका चिरपरिचित उत्तर होगा कि वे विविध परिवेशों में कार्य करते समय बहुत-सी क्रियाएँ करते हैं। यदि आप उनके कार्यों का विश्लेषण करने का प्रयास करें तो आप पाएँगे कि वे मूलतः दो प्रकार के कार्यों में संलग्न रहते हैं, एक मनोविज्ञान में अनुसंधान (research) तथा दूसरा मनोविज्ञान के अनुप्रयोग (application)।
मनोविज्ञान के अनुसंधान एवं अनुप्रयोग को दिशा प्रदान करने वाले कथ्य (themes) क्या होते हैं? एेसे बहुत से कथ्य हैं। हम उनमें से कुछ पर सकेंद्रण करेंगेे।
कथ्य 1: अन्य विज्ञानों की भाँति मनोविज्ञान व्यवहार एवं मानसिक प्रक्रियाओं के सिद्धांतों का विकास करने का प्रयास करता है।
अनुसंधान में मुख्य बात व्यवहार एवं मानसिक घटनाओं तथा प्रक्रियाओं की समझ एवं व्याख्या की होती है। मनोवैज्ञानिक, जो अनुसंधान करना चाहते हैं, अन्य वैज्ञानिकों की तरह ही कार्य करते हैं। उन्हीं की भाँति वे निष्कर्ष निकालते हैं जो प्रदत्तों द्वारा समर्थित होता है। वे प्रयोगों की अभिकल्पना करते हैं तथा उनको संपादित करते हैं अथवा वृहत्तर आयाम के मनोवैज्ञानिक गोचरों का नियंत्रित दशा में अध्ययन करते हैं। इसका उद्देश्य व्यवहार एवं मानसिक प्रक्रियाओं के सामान्य सिद्धांतों का विकास करना होता है। एेसे अध्ययनों के आधार पर लिए गए निष्कर्ष चूँकि सभी के ऊपर लागू होते हैं इसलिए सार्वभौमिक होते हैं। प्रायोगिक, तुलनात्मक, शरीरक्रिया, विकासात्मक, सामाजिक, विभेद एवं अपसामान्य मनोविज्ञान आदि क्षेत्रों को प्राथमिक मनोविज्ञान का क्षेत्र कहा जाता है।
इन क्षेत्रों में अनुसंधान की विषयवस्तु एक दूसरे से भिन्न होती है। उदाहरण के लिए, प्रायोगिक मनोवैज्ञानिक प्रत्यक्षण, अधिगम, स्मृति, चिंतन एवं अभिप्रेरणा आदि प्रक्रियाओं का प्रयोगात्मक विधि द्वारा अध्ययन करते हैं जबकि शरीरक्रिया मनोवैज्ञानिक इन व्यवहारों के शरीरक्रियात्मक आधारों का परीक्षण करने का प्रयास करते हैं। विकासात्मक मनोवैज्ञानिक मानव जीवन के प्रारंभ से लेकर अंत तक के व्यवहार में गुणात्मक एवं मात्रात्मक परिवर्तनों का अध्ययन करते हैं, जबकि सामाजिक मनोवैज्ञानिक सामाजिक सदंर्भों में लोगों के व्यवहार एवं अनुभव के अध्ययन पर ध्यान केंद्रित करते हैं।
कथ्य 2: मानव व्यवहार व्यक्तियों एवं वातावरण के लक्षणों का एक प्रकार्य है।
कुर्ट लेविन (Kurt Lewin) ने सर्वप्रथम प्रसिद्ध समीकरण B=f(P,E) का प्रतिपादन किया था जो यह बताता है कि व्यवहार व्यक्ति एवं उसके वातावरण का उत्पाद है। यह समीकरण साधारण ढंग से यह बताता है कि लोगों के व्यवहार में जो अंतर हम पाते हैं वह बड़ी सीमा तक इस तथ्य के कारण पाते हैं कि लोग अपने गुणों के कारण एक दूसरे से भिन्न होते हैं और एेसा उनके आनुवंशिक निधि तथा विविध अनुभवों एवं इसी प्रकार उनके अपने वातावरण द्वारा हो पाता है। यहाँ वातावरण का सम्प्रत्ययन, जिस रूप में उसका प्रत्यक्षण होता है उसी रूप में अथवा जिस रूप में वह व्यक्ति के लिए अर्थवान होता है उस रूप में, किया जाता है। मनोवैज्ञानिकों ने बहुत पहले यह कहा था कि कोई भी दो व्यक्ति एकसमान नहीं होते हैं, यदि उनके मनोवैज्ञानिक गुणों को देखा जाए तो वे बुद्धि, अभिरुचि, मूल्य, अभिक्षमता तथा अन्य बहुत से व्यक्तित्व संबंधी कारकों के आधार पर एक दूसरे से भिन्न होते हैं। वास्तव में, मनोवैज्ञानिक परीक्षणों का निर्माण इन्हीं भिन्नताओं के मापन के लिए किया गया था। एक विद्याशाखा, जिसे विभेद मनोविज्ञान कहा जाता है जो उन्नीसवीं सदी के अंतिम समय एवं बीसवीं सदी के आरंभ में प्रारंभ हुई, वैयक्तिक विभेद पर बल देती है।
इसकी बहुत सी बातें व्यक्तित्व मनोविज्ञान के रूप में आज भी दिखाई देती हैं। मनोवैज्ञानिक विश्वास करते हैं कि यद्यपि मूल मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाएँ सार्वभौमिक होती हैं तब भी वे वैयक्तिक गुणों के प्रति संवेदनशील होती हैं। वैयक्तिक विभेद के अतिरिक्त मनोवैज्ञानिक यह भी विश्वास करते हैं कि पर्यावरणी कारकों के कारण भी व्यवहार में भिन्नता दिखाई देती है। मनोवैज्ञानिकों ने यह विचारधारा मानवशास्त्रियों, विकासवादी सिद्धांतकारों तथा जीववैज्ञानिकों से ग्रहण की है। मनोवैज्ञानिक विविध मनोवैज्ञानिक गोचरों की व्याख्या व्यक्ति-वातावरण की अंतःक्रियाओं के आधार पर करता है। यद्यपि एेसा कर पाना कठिन होता है, तथापि मनोवैज्ञानिक मानव व्यवहार की व्याख्या करते समय आनुवंशिकता एवं वातावरण के सापेक्ष महत्त्व की जानकारी करते हैं।
कथ्य 3: मानव व्यवहार उत्पन्न किया जाता है।
अधिकांश मनोवैज्ञानिक यह मानते हैं कि समस्त मानव व्यवहारों की व्याख्या वातावरण के बाहर की स्थिति तथा आंतरिक (प्राणी के लिए) कारणों के आधार पर की जा सकती है। कारणपरक व्याख्याएँ समस्त विज्ञानों की केंद्रीयता हैं क्योंकि बिना उनको समझेे कोई भी पूर्वकथन संभव नहीं होगा। यद्यपि मनोवैज्ञानिक व्यवहार के कारणों की तरफ भागते हैं परंतु वे यह भी जानते हैं कि मात्र रेखीय व्याख्याएँ, जैसे एक्स (X) के कारण वाई (Y), हमेशा सही नहीं होती हैं। व्यवहार का कोई एक ही कारण नहीं होता है। मानव व्यवहार के बहुत से कारण होेते हैं। इसलिए, मनोवैज्ञानिक कारणपरक प्रतिरूपों को खोजते हैं जहाँ अन्योन्याश्रित परिवर्त्यों के सेट द्वारा व्यवहार की व्याख्या की जा सके। जब यह कहा जाता है कि व्यवहार के कई कारण होते हैं तो उसका अर्थ होता है कि व्यवहार के किसी एक ही कारण का सुनिदेशन कर पाना कठिन होेता है क्योंकि संभव है कि उसका स्वयं कोई परिवर्त्य कारण हो जिसका पुनः कोई अन्य कारण हो सकता है।
कथ्य 4: मानव व्यवहार की समझ संस्कृति निर्मित होती है।
यह कथ्य अभी हाल ही में सामने आया है। कुछ मनोवैज्ञानिक यह मानते हैं कि अधिकांश मनोवैज्ञानिक सिद्धांत एवं प्रतिरूप स्वभाव से यूरो-अमेरिकन हैं, इसलिए व्यवहार को दूसरी सांस्कृतिक स्थितियों में समझने में सहायता नहीं करते हैं। यूरो-अमेरिकन उपागम जिसे सार्वभौम स्वरूप में प्रचारित किया गया है, एशिया, अफ्रीका एवं लैटिन अमेरिका के मनोवैज्ञानिक उसकी आलोचना करते हैं। इसी प्रकार की आलोचना नारी अधिकारवादियों द्वारा की जाती है और उनका तर्क है कि मनोविज्ञान मात्र पुरुष पक्षों की वकालत करता है तथा स्त्रियों के पक्षों की अनदेखी करता है। वे द्वंद्वात्मक उपागम की पक्षधरता करते हैं जिसमें स्त्रियों एवं पुरुषों दोनों के पक्षों को समाहित करते हुए मानव व्यवहार को समझा जाता है।
कथ्य 5: मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों के अनुप्रयोग द्वारा मानव व्यवहार को नियंत्रित एवं परिवर्तित किया जा सकता है।
कतिपय भौतिक अथवा मनोवैज्ञानिक घटनाओें के विषय में वैज्ञानिक क्यों यह सोचते हैं कि उन्हें कैसे नियंत्रित किया जा सकता है। वे एेसा इसलिए सोचते हैं क्योंकि उनकी इच्छा एेसी तकनीकों अथवा विधियों को विकसित करने की होती है जिससे मानव व्यवहार में गुणात्मक सुधार लाया जा सके। जब मनोवैज्ञानिक अपने द्वारा अर्जित ज्ञान का उपयोग करना चाहते हैं तो भी वे वैसा ही सोचते हैं।
इसके लिए आवश्यक होता है कि जीवन के विविध धरातलोें पर लोग जिन कठिनाइयों अथवा विपरीत परिस्थितियों का अनुभव करते हैं उन्हें दूर किया जाए। परिणामस्वरूप, मनोवैज्ञानिक आवश्यकता वाले लोगों के जीवन में हस्तक्षेप करते हैं। एक ओर, मनोवैज्ञानिकों की यह अनुप्रयुक्त भूमिका विषय (मनोविज्ञान) को सामान्य लोगों के निकट लाती है तुलना में अन्य सामाजिक विज्ञान के विषयों के तथा उसके सिद्धांतों की व्यावहारिकता की सीमा की जानकारी प्राप्त करता है। दूसरी तरफ, अपने आप में मनोविज्ञान को एक विषय के रूप में प्रसिद्धि दिलाने में यह भूमिका बहुत सहायक रही है। इसलिए मनोविज्ञान की अनेक शाखाएँ उत्पन्न हुई हैं जो औद्योगिक एवं संगठनात्मक स्थितियों, नैदानिक सेवाओं, शिक्षा, पर्यावरण, स्वास्थ्य, सामुदायिक विकास तथा अन्य से जुड़ी समस्याओं की जानकारी करने एवं उनका निदान खोेजने की पहल करती हैं। औद्योगिक मनोविज्ञान, संगठनात्मक मनोविज्ञान, नैदानिक मनोविज्ञान, शैक्षिक मनोविज्ञान, अभियांत्रिकी मनोविज्ञान तथा क्रीड़ा मनोविज्ञान कुछ एेसे क्षेत्र हैं जिनमें मनोवैज्ञानिक व्यक्तियों, समूहों अथवा संस्थाओं को अपनी सेवाएँ प्रदान कर रहे हैं।
मूल बनाम अनुप्रयुक्त मनोविज्ञान
यह ध्यातव्य है कि अनेक क्षेत्र जिन्हें ‘मूल’ एवं ‘अनुप्रयुक्त’ मनोविज्ञान शीर्षक में रखा गया है, उनके द्वारा अध्ययन किए जाने वाले विषय एवं वृहत्तर सरोकारों के आधार पर उनकी पहचान की जाती है। मनोविज्ञान के अनुसंधान एवं अनुप्रयोग में कोई स्पष्ट भेद नहीं होता है। उदाहरण के लिए, मूल मनोविज्ञान हमें वह सिद्धांत एवं नियम प्रदान करता है जो मनोविज्ञान के अनुप्रयोग के आधार बनते हैं और अनुप्रयुक्त मनोविज्ञान हमें वे संदर्भ देता है जिनमें अनुसंधान से प्राप्त सिद्धांतों एवं नियमों को सार्थक ढंग से प्रयोग मेें लाया जा सकता है। दूसरी ओर, अनुसंधान मनोविज्ञान के उन क्षेत्रों का भी मूल भाग होता है जो ‘अनुप्रयोग’ श्रेणी में आते हैं अथवा इन्हीं के द्वारा जाने जाते हैं। विभिन्न क्षेत्रों में मनोविज्ञान की लगातार होती मांग के कारण बहुत से क्षेत्र जो पिछले दशकों में ‘अनुसंधान-केंद्रित’ माने जाते थे, वे भी धीर-धीरे ‘अनुप्रयोग-केंद्रित’ होने लगे हैं। नयी उभरती विद्याशाखाएँ जैसे अनुप्रयुक्त प्रायोगिक मनोविज्ञान, अनुप्रयुक्त सामाजिक मनोविज्ञान, तथा अनुप्रयुक्त विकासात्मक मनोविज्ञान यह बतलाते हैं कि वास्तव में सभी मनोविज्ञान अनुप्रयोग का विभव रखते हैं तथा स्वभाव से अनुप्रयुक्त होते हैं।
इसलिए, मनोविज्ञान के अनुसंधान एवं अनुप्रयोग में कोई मौलिक अंतर नहीं होता है। ये क्रियाएँ बहुत अधिक अंतर्संबंधित होती हैं तथा एक दूसरे को पुनर्बलित करने वाली होती हैं। इनकी एक दूसरे से पारस्परिक अंतःक्रियाओं तथा वृहत्तर प्रभाव इतने विशिष्ट हो गए हैं कि वर्तमान में अनेक प्रशाखाएँ (शाखाएँ) उत्पन्न हो गई हैं जो अपनी विषयवस्तु पर विशिष्ट बल देती हैं। इस प्रकार, पारिस्थितिक मनोविज्ञान, पर्यावरणी मनोविज्ञान, अंतःसांस्कृतिक मनोविज्ञान, जैविक मनोविज्ञान, अंतरिक्ष मनोविज्ञान, संज्ञानात्मक मनोविज्ञान आदि कुछ महत्वपूर्ण नाम हैं। ये अनुसंधान तथा अनुप्रयोग के नए एवं सीमांत क्षेत्र हैं जो उसके पूर्व मनोविज्ञान के दूसरे क्षेत्रों से संबद्ध थे। पूर्व की तुलना में अनुसंधानकर्ताओं को इन नए विकास के क्षेत्रों में विशिष्ट अनुसंधान कौशल एवं प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है।
मनोविज्ञान एवं अन्य विद्याशाखाएँ
कोई भी विद्याशाखा, जो लोगों का अध्ययन करती है, वह निश्चित रूप सेे मनोविज्ञान के ज्ञान की सार्थकता को मानेगी। इसी प्रकार मनोवैज्ञानिक भी मानव व्यवहार को समझने में अन्य विद्याशाखाओं की सार्थकता को स्वीकारते हैं। इसी रुझान के कारण मनोविज्ञान में अंतर्विषयक उपागम का उदय हुआ। अनुसंधानकर्ताओं एवं विज्ञान, सामाजिक विज्ञान एवं मानविकी में विद्वानों ने एक विद्याशाखा के रूप में मनोविज्ञान की सार्थकता के अनुभव किए। चित्र 1.1 स्पष्ट रूप से मनोविज्ञान के अन्य विद्याशाखाओं से संबंध को प्रदर्शित करता है। मस्तिष्क एवं व्यवहार का अध्ययन करने में मनोविज्ञान अपने ज्ञान को तंत्रिका विज्ञान, शरीरक्रियाविज्ञान, जीवविज्ञान, आयुर्विज्ञान तथा कंप्यूटर विज्ञान के साथ बाँटता है। एक सामाजिक-सांस्कृतिक के संदर्भ में मानव व्यवहार को समझने के लिए (उसका अर्थ, संवृद्धि, तथा विकास) मनोविज्ञान अपने ज्ञान को मानव विज्ञान, समाजशास्त्र, समाजकार्य विज्ञान, राजनीति विज्ञान एवं अर्थशास्त्र के साथ भी मिलकर बाँटता है। सहित्यिक पुस्तकों, संगीत एवं नाटक के निर्माण में निहित मानसिक क्रियाओं का अध्ययन करने में मनोविज्ञान अपना ज्ञान साहित्य, कला एवं संगीत के साथ बाँटता है। कुछ प्रमुख विद्याशाखाएँ जो मनोविज्ञान से जुड़ी हैं उनकी चर्चा नीचे की जा रही है:
दर्शनशास्त्र: उन्नीसवीं सदी के अंत तक कुछ चीज़ें जो समसामयिक मनोविज्ञान से संबंधित हैं, जैसे मन का स्वरूप क्या है अथवा मनुष्य अपनी अभिप्रेरणाओं एवं संवेगों के विषय में कैसे जानता है, वे बातें दार्शनिकों की रुचि की थीं। उन्नीसवीं सदी में आगे चलकर वुण्ट एवं अन्य मनोवैज्ञानिकों ने इन प्रश्नों के लिए प्रायोगिक उपागम का उपयोग किया तथा समसामयिक मनोविज्ञान का उदय हुआ। विज्ञान के रूप में मनोविज्ञान के उदय के बाद भी यह दर्शनशास्त्र से बहुत कुछ लेता है, विशेषकर ज्ञान की विधि तथा मानव स्वभाव के विविध क्षेत्रों सेे संबंधित बातें।
आयुर्विज्ञान: चिकित्सकों ने यह मान लिया है कि यह उक्ति ‘स्वस्थ शरीर के लिए स्वस्थ मन की आवश्यकता होती है’, वास्तव में सही है। बहुत से चिकित्सालय आज मनोवैज्ञानिक नियुक्त करते हैं। लोगों को स्वास्थ्य के लिए हानिकारक व्यवहारों से दूर रखने में मनोवैज्ञानिकों की भूमिका एवं चिकित्सकों की अन्वय के प्रति संसक्ति कुछ एेसे क्षेत्र हैं जहाँ दोनों विद्याशाखाएँ साथ-साथ कार्य करती हैं। कैंसर से पीड़ित रोगियों का उपचार करते समय, एड्स, शारीरिक चुनौतियों से जूझते लोगों, अथवा गहन चिकित्सा इकाई में भर्ती रोगियों की देखभाल तथा शल्यचिकित्सा के पश्चात रोगियों का ध्यान रखना आदि एेसे क्षेत्र हैं जहाँ चिकित्सकों ने मनोवैज्ञानिकों की आवश्यकता का अनुभव किया है। एक सफल चिकित्सक रोगियों के शारीरिक एवं मनोवैज्ञानिक कल्याण का ध्यान रखता है।
अर्थशास्त्र, राजनीति विज्ञान एवं समाजशास्त्र: सहभागी सामाजिक विज्ञान विद्याशाखाओं के रूप में इन तीनों ने मनोविज्ञान से बहुत कुछ प्राप्त किया है तथा उसको भी समृद्ध किया है। मनोविज्ञान ने आर्थिक व्यवहारों के सूक्ष्म स्तरों के अध्ययन, विशेष रूप से उपभोक्ताओं के व्यवहारों को समझने में तथा बचत व्यवहारों एवं निर्णय की कला में बड़ा योगदान किया है। अमेेेरिका के अर्थशास्त्रियों ने उपभोक्ताओं की भावुकताओं के प्रदत्तों के आधार पर आर्थिक विकास का पूर्वकथन किया है। एच. साइमन, डी. केहनेमन एवं टी. शेलिंग जैसे तीन विद्वानों को एेसी ही समस्याओं पर कार्य करने के कारण अर्थशास्त्र में नोबल पुरस्कार प्राप्त हुए हैं। अर्थशास्त्र की तरह, राजनीति विज्ञान भी मनोविज्ञान से बहुत कुछ ग्रहण करता है, विशेष रूप से शक्ति एवं प्रभुत्व के उपयोग, राजनैतिक द्वंद्व के स्वरूप एवं उनके समाधान, तथा मतदान आचरण को समझने में। मनोविज्ञान एवं समाजशास्त्र एक दूसरे के साथ मिलकर विभिन्न सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भों में व्यक्तियों के व्यवहारों को समझने एवं उनकी व्याख्या को व्यक्त करते हैं। समाजीकरण, सामूहिक एवं संग्रहपरक व्यवहारों तथा अंतःसमूह द्वंद्वों से संबंधित बातें इन दोनों विद्याशाखाओं से जुड़ी होती हैं।
कंप्यूटर विज्ञान: प्रारंभ से ही कंप्यूटर मानव स्वभाव का अनुभव करने का प्रयास करता रहा है। कंप्यूटर की संरचना, उसकी संगठित स्मृति, सूचनाओं के क्रमवार एवं साथ-साथ प्रक्रमण आदि में ये बातें देखी जा सकती हैं। कंप्यूटर वैज्ञानिक तथा इंजीनियर केवल बुद्धिमान से बुद्धिमान कंप्यूटर का निर्माण नहीं कर रहे हैं बल्कि एेसी मशीनों को बना रहे हैं जो संवेेद एवं अनुभूति को भी जान सकें। इन दोनों विद्याशाखाओं में हो रहे विकास संज्ञानात्मक विज्ञान के क्षेत्र में सार्थक योगदान कर रहे हैं।
विधि एवं अपराधशास्त्र: एक कुशल अधिवक्ता तथा अपराधशास्त्री को मनोविज्ञान के ज्ञान की जानकारी एेसे प्रश्नों-कोई गवाह एक दुर्घटना, गली की लड़ाई अथवा हत्या जैसी घटना को कैसे याद रखता है? न्यायालय में गवाही देते समय वह इन तथ्यों का कितनी सत्यता के साथ उल्लेख करता है? जूरी के निर्णयों को कौन से कारक प्रभावित करते हैं? झूठ एवं पश्चाताप के क्या विश्वसनीय लक्षण हैं? किन कारकों के आधार पर किसी अभियुक्त को उसके कार्यों के लिए उत्तरदायी माना जाए? किसी आपराधिक कार्य के लिए दंड की किस सीमा को उपयुक्त माना जाए? का उत्तर देने के लिए आवश्यक होती है। मनोवैज्ञानिक एेसे प्रश्नों का उत्तर देते हैं। आजकल बहुत से मनोवैज्ञानिक एेसी बातों पर अनुसंधान कार्य कर रहे हैं जिसके उत्तर देेश में भावी विधि व्यवस्था की बड़ी सहायता करेंगे।
जनसंचार: प्रिंट एवं इलेक्ट्रॉनिक संचार-साधन हमारे जीवन में बहुत ही वृहत्तर स्तर पर प्रवेश कर चुके हैं। वे हमारे चिंतन, अभिवृत्तियों एवं संवेगों को बहुत बड़ी सीमा तक प्रभावित कर रहे हैं। यदि वे हमें निकट लाए हैं तो साथ ही साथ सांस्कृतिक असमानताएँ भी कम किए हैं। बच्चों के अभिवृत्ति निर्माण एवं व्यवहार में संचार-साधनों का प्रभाव एेसा क्षेत्र है जो दोनों विधाओं को साथ रखता है। मनोविज्ञान संचार को अच्छा एवं प्रभावी बनाने के लिए आवश्यक युक्तियों के निर्माण में सहायता करता है। समाचार कहानियों को लिखते समय पत्रकारों को पाठकों की रुचियों का ध्यान रखना चाहिए। चूँकि अधिकांश कहानियाँ मानवीय घटनाओं से संबंधित होती हैं, अतः उनके अभिप्रेरकों एवं संवेगों का ज्ञान आवश्यक होता है। यदि कहानी मनोवैज्ञानिक ज्ञान एवं अंतर्दृष्टि पर आधारित होती है तो वह अंदर तक छू जाती है।
संगीत एवं ललित कला: संगीत एवं मनोविज्ञान का कई क्षेत्रों में मिलन हुआ है। मनोवैज्ञानिकाें ने संगीत के उपयोग से कार्य निष्पादन स्तर बढ़ाने का कार्य किया है। संगीत एवं संवेग एक और क्षेत्र है जिसमें अनेक अध्ययन किए गए हैं। भारतवर्ष में संगीतज्ञों ने वर्तमान में एक प्रयोग करना प्रारंभ किया है जिसे ‘संगीत चिकित्सा’ (music therapy) कहते हैं। इसमें वे रागों के माध्यम से कतिपय शारीरिक व्याधियों का निदान करना प्रारंभ करते हैं। संगीत चिकित्सा की क्षमता का सिद्ध होना शेष है।
वास्तुकला एवं अभियांत्रिकी: प्रथम दृष्टि में मनोविज्ञान, वास्तुकला एवं अभियांत्रिकी के मध्य संबंध ठीक नहीं लगेगा। परंतु एेसी बात नहीं है। किसी वास्तुकार से पूछिए, वह अपने ग्राहकों को अपने अभिकल्प एवं सौंदर्यशास्त्रीय विवेचना से भौतिक एवं मानसिक संतुष्टि प्रदान कर देगा। सुरक्षा की योजना बनाते समय अभियंताओं को, उदाहरण के लिए, गलियों एवं राजमार्ग के विषय में, मानवीय आदतों का ध्यान रखना चाहिए। यांत्रिक तकनीकों एवं सजावटों की अभिकल्पना में मनोवैज्ञानिक ज्ञान बहुत सहायता करता है।
संक्षेप में, मानवीय प्रकार्यों से संबंधित ज्ञान के विविध क्षेत्रों के चौराहे पर मनोविज्ञान खड़ा मिलता है।
Screenshot from 2019-06-08 19-25-46
चित्र 1.1: मनोविज्ञान एवं अन्य विद्याशाखाएँ
कार्यरत मनोवैज्ञानिक
आजकल मनोवैज्ञानिक एेसी अनेक स्थितियों में कार्य करते हैं जहाँ वे मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों की सहायता से लोगों को अपने जीवन की समस्याओं का दक्षतापूर्वक सामना करने के लिए भिज्ञ बनाते हैं एवं प्रशिक्षण प्रदान करते हैं। इन्हें हम प्रायः ‘मानव सेवा क्षेत्र’ कहते हैं। इनमें नैदानिक, उपबोधन, समुदायिक, विद्यालय तथा संगठनात्मक मनोविज्ञान आते हैं।
नैदानिक मनोवैज्ञानिक व्यावहारिक समस्याओं वाले रोगियों की सहायता करने की विशिष्टता रखते हैं। वे अनेक मानसिक व्यतिक्रमों तथा दुशि्ंचता, भय या कार्यस्थल के दबावों के लिए चिकित्सा प्रदान करते हैं। वे या तो प्राइवेट प्रैक्टिस करते हैं अथवा चिकित्सालयों, मानसिक संस्थानों अथवा सामाजिक संगठनों के साथ कार्य करते हैं। रोगियों की समस्याओं को जानने के लिए वे साक्षात्कार करते हैं एवं मनोवैज्ञानिक परीक्षण देते हैं, तथा उनके उपचार एवं पुनर्वास के लिए मनोवैज्ञानिक विधियों का उपयोग करते हैं। नौकरी पाने के अवसर ने नैदानिक मनोविज्ञान के क्षेत्र में लोगों को अधिक आकर्षित किया है।
उपबोधन मनोवैज्ञानिक अभिप्रेरणात्मक एवं संवेगात्मक समस्याओं वाले व्यक्तियों के लिए कार्य करते हैं। इनके रोगियों की समस्या नैदानिक मनोवैज्ञानिकों की तुलना में कम घातक होती है। एक उपबोधन मनोवैज्ञानिक व्यावसायिक पुनर्वास कार्यक्रमों अथवा व्यावसायिक चयन में सहायता करने अथवा जीवन की नयी एवं जटिल परिस्थितियों में समायोजन के लिए कार्य करता है। उपबोधन मनोवैज्ञानिक पब्लिक एजेन्सियों; जैसे- मानसिक स्वास्थ्य केंद्र, चिकित्सालय, विद्यालय, महाविद्यालय एवं विश्वविद्यालय के लिए कार्य करते हैं।
सामुदायिक मनोवैज्ञानिक प्रायः सामुदायिक मानसिक स्वास्थ्य पर अधिक ध्यान देते हैं। वे मानसिक स्वास्थ्य एजेंसियों, प्राइवेट संगठनों तथा राज्य सरकारों के लिए कार्य करते हैं। वे समुदाय एवं उनके संस्थानों की शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं के संबंध में सहायता करते हैं। ग्रामीण परिवेश में वे मानसिक स्वास्थ्य केंद्र की स्थापना कर सकते हैं। शहरी परिवेश में वे औषधि पुनर्वास कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार कर सकते हैं। अनेक सामुदायिक मनोवैज्ञानिक कुछ विशिष्ट समष्टियों पर कार्य करते हैं; जैसे- वयोवृद्ध अथवा शारीरिक अथवा मानसिक रूप से अशक्त लोग। विविध कार्यक्रमों एवं योजनाओं को नयी दिशा देने तथा मूल्यांकन करने के अलावा, समुदाय-आधारित पुर्नवास में सामुदायिक मनोवैज्ञानिकों की अधिक रुचि होती है।
विद्यालय मनोवैज्ञानिक शैक्षिक व्यवस्था में कार्य करते हैं तथा उनकी भूमिका उनके प्रशिक्षण स्तर के अनुसार बदलती रहती है। उदाहरण के लिए, कुछ विद्यालय मनोवैज्ञानिक मात्र मनोवैज्ञानिक परीक्षण देते हैं, जबकि कुछ अन्य परीक्षण के परिणामों की व्याख्या करते हैं तथा छात्रों की समस्याओं में उनकी सहायता करते है। वे विद्यालय की नीतिनिर्धारण में भी सहायता करते हैं। वे अभिभावकों, अध्यापकों तथा प्रशासकों के मध्य संवाद बढ़ाते हैं तथा छात्रों की शैक्षिक प्रगति के विषय में अध्यापकों एवं अभिभावकों को सूचना प्रदान करते हैं।
संगठनात्मक मनोवैज्ञानिक संगठन में अधिकारियों एवं कर्मचारियों की भूमिका निर्वहन में आने वाली समस्याओं को समझने में अपनी महत्वपूर्ण सहायता प्रदान करते हैं। वे संगठनों में परामर्श की सेवाएं प्रदान करते हैं तथा उनकी दक्षता एवं प्रभावोत्पादकता में वृद्धि करने के लिए कौशल प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित करते हैं। कुछ संगठनात्मक मनोवैज्ञानिक मानव संसाधन विकास में जबकि कुछ अन्य संगठनात्मक विकास एवं परिवर्तन प्रबंधन कार्यक्रमों में विशिष्टता अर्जित करते हैं।
दैनंदिन जीवन में मनोविज्ञान
ऊपर की गई चर्चा से स्पष्ट हो चुका है कि मनोविज्ञान मात्र एक विषय के रूप में हमारे मन की उत्सुकताओं को ही नहीं संतुष्ट करता है बल्कि यह एक एेसा विषय है जो अनेक प्रकार की समस्याओं का समाधान करता है। ये समस्याएँ पूर्णतः व्यक्तिगत (उदाहरण के लिए, किसी लड़की का अपने मद्यप पिता से सामना अथवा किसी माँ का अपने समस्याग्रस्त बच्चे से सामना) अथवा पारिवारिक पृष्ठभूमि में अंतर्ग्रथित (उदाहरण के लिए, पारिवारिक सदस्यों में संवाद एवं अंतःक्रिया की कमी) अथवा बड़े समूह या सामुदायिक परिवेश में (उदाहरण के लिए, आतंकवादी समूह या सामाजिक रूप से एकांतिक कर दिए गए समुदाय) होती हैं अथवा राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय विमाओं वाली होती हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्यावरण, सामाजिक न्याय, महिला विकास, अंतर्समूह संबंध आदि समस्याएँ बड़ी होती हैं। इन समस्याओं के समाधान राजनैतिक, आर्थिक एवं सामाजिक सुधार तथा वैयक्तिक स्तर पर हस्तक्षेप आदि से परिवर्तन लाकर किए जाते हैं। इनमें से अधिकांश समस्याएँ मनोवैज्ञानिक होती हैं तथा उनका उदय हमारे अस्वस्थ चिंतन, लोगों तथा स्व के प्रति ऋणात्मक अभिवृत्ति तथा व्यवहार की अवांछित शैली के कारण होता है। इन समस्याओं का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण इन समस्याओं को गहराई से समझने तथा उसके प्रभावी समाधान को खोजने में सहायता करता है।
जीवन की समस्याओं के निदान में मनोविज्ञान के विभव को अधिक से अधिक महत्त्व दिया जा रहा है। इस संबंध में संचार-साधनों की भूमिका महत्वपूर्ण है। बच्चों, किशोरों, वयस्कों तथा वयोधिक लोगों की समस्याओं के संबंध में दूरदर्शन पर एवं मनोचिकित्सकों द्वारा दी जाने वाली सलाह आप देखते होंगे। आप उन्हें सामाजिक परिवर्तन तथा विकास, जनसंख्या, गरीबी, अंतःवैयक्तिक एवं अंतःसामूहिक हिंसा तथा पर्यावरणी गिरावट से संबंधित केंद्रीय सामाजिक समस्याओं का विश्लेषण करते हुए भी देखते होंगे। बहुत से मनोवैज्ञानिक लोगों के गुणात्मक रूप से अच्छे जीवन के लिए हस्तक्षेपी कार्यक्रमों की अभिकल्पना एवं संचालन में भी सक्रिय भूमिका का निर्वहन करते हैं। इसलिए इस बात पर आश्चर्य नहीं करना चाहिए कि मनोवैज्ञानिकों को हम विविध परिस्थितियों में कार्य करते हुए देखते हैं; जैसे- विद्यालयों, चिकित्सालयों, उद्योगों, कारागारों, व्यावसायिक संगठनों, सैन्य प्रतिष्ठानोें तथा प्राइवेट प्रैक्टिस में परामर्शदाता के रूप में जहाँ वे लोगों की अपने क्षेत्र में समस्याओं के समाधान में सहायता करते हैं।
दूसरों के लिए समाज सेवा प्रदान करने में सहायता के अतिरिक्त, मनोविज्ञान का ज्ञान व्यक्तिगत रूप से आपके दिन प्रतिदिन के जीवन के लिए सार्थक होता है। मनोविज्ञान के सिद्धांत एवं विधियाँ जो आप इस पाठ्यक्रम में पढ़ेंगे, उसका उपयोग दूसरों के परिप्रेक्ष्य में स्वयं के विश्लेषण एवं समझने के लिए उपयोग में लाया जाना चाहिए। एेसा नहीें है कि हम अपने विषय में सोचते नहीं हैं। परंतु प्रायः हम लोगों में कुछ लोग अपने विषय में बहुत ऊँचा सोचते हैं तथा कोई विचार/ सूचना जो हमारे विषय में अपने मत का विरोध करती है उसे हम नकार देते हैं, क्योंकि हम रक्षात्मक व्यवहार में लग जाते हैं। कुछ अन्य दशाओं में लोग एेसी आदतेें सीख लेते हैं जो उन्हें स्वयं नीचे ले जाती हैं। दोनों ही दशाएँ हमें आगे नहीं बढ़ने देती हैं। हमें अपने विषय में सकारात्मक तथा संतुलित समझ रखनी चाहिए। आपको मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों का उपयोग सकारात्मक ढंग से करना चाहिए जिससे आप अपने अधिगम एवं स्मृति में सुधार के लिए अध्ययन की अच्छी आदतें विकसित कर सकें तथा व्यक्तिगत एवं अंतर्वैयक्तिक समस्याओं का निर्णय लेने की उपयुक्त युक्तियों द्वारा समाधान कर सकें। इसको आप परीक्षा के दबाव को भी कम अथवा समाप्त करने में सहायक पाएँगे। इस प्रकार, मनोविज्ञान का ज्ञान, हमारे दिन प्रतिदिन के जीवन में बहुत उपयोगी है तथा व्यक्तिगत एवं सामाजिक दृष्टि से भी लाभप्रद है।
प्रमुख़ पद
व्यवहार, व्यवहारवाद, संज्ञान, संज्ञानात्मक उपागम, चेतना, निर्मितिवाद, विकासात्मक मनोविज्ञान, प्रकार्यवाद, गेस्टाल्ट, गेस्टाल्ट मनोविज्ञान, मानवतावादी उपागम, अंतर्निरीक्षण, मन, तंत्रिका मनोविज्ञान, शरीरक्रिया मनोविज्ञान, मनोविश्लेषण, समाजशास्त्र, उद्दीपक, संरचनावाद
सारांश
मनोविज्ञान आधुनिक विद्याशाखा है जो मानसिक प्रक्रियाओं, अनुभवों तथा लोगों के व्यवहारों की जटिलताओं को विविध संदर्भों में समझने का लक्ष्य रखती है। इसे प्राकृतिक विज्ञान एवं सामाजिक विज्ञान दोनों माना जाता है।
मनोवैज्ञानिक विचारधाराओं के प्रमुख संप्रदाय संरचनावाद, प्रकार्यवाद, व्यवहारवाद, गेस्टाल्ट स्कूल, मनोविश्लेषण, मानवतावादी मनोविज्ञान, तथा संज्ञानात्मक मनोविज्ञान हैं।
समसामयिक मनोविज्ञान बहुआयामी है क्योंकि इसको बहुत से उपागमों अथवा बहुविध विचारों द्वारा जाना जाता है जो विभिन्न स्तरों पर व्यवहार की व्याख्या करता है। ये उपागम पारस्परिक रूप से एक दूसरे से अलग नहीं होते हैं। प्रत्येक उपागम मानव प्रकार्य की जटिलताओं में महत्वपूर्ण अंतर्दृष्टि प्रदान करते हैं। मनोवैज्ञानिक प्रकार्यों के लिए संज्ञानात्मक उपागम चिंतन प्रक्रियाओं कोे केंद्रीय महत्त्व का मानता है। मानवतावादी उपागम के अनुसार मानव प्रकार्य विकसित होने की इच्छा, उत्पादन करने की इच्छा एवं मानव क्षमताओं को पूर्ण करने की इच्छा से संचालित होता है।
आज मनोवैज्ञानिक बहुत से विशिष्ट क्षेत्रों में कार्य करते हैं जिनके अपने सिद्धांत एवं विधियाँ होती हैं। वे सिद्धांत के निर्माण का प्रयास तथा क्षेत्र विशेष की समस्याओं के समाधान का प्रयास करते हैं। मनोविज्ञान के कुछ प्रमुख क्षेत्र हैं- संज्ञानात्मक मनोविज्ञान, जैविक मनोविज्ञान, स्वास्थ्य मनोविज्ञान, विकासात्मक मनोविज्ञान, सामाजिक मनोविज्ञान, शैक्षिक एवं विद्यालय मनोविज्ञान, नैदानिक एवं उपबोधन मनोविज्ञान, पर्यावरणी मनोविज्ञान, औद्योगिक/संगठनात्मक मनोविज्ञान, तथा क्रीड़ा मनोविज्ञान।
आजकल वास्तविकता की अच्छी समझ के लिए बहु/अंतर्विषयक पहल की आवश्यकता अनुभव की जा रही है। इससे विद्याशाखाओं में आपसी सहयोग का उदय हुआ है। मनोविज्ञान की रुचि सामाजिक विज्ञानों में परस्पर रूप से व्याप्त है (जैसे- अर्थशास्त्र, राजनीति विज्ञान, समाजशास्त्र), जैव विज्ञानों (जैसे- तंत्रिकाविज्ञान, शरीरक्रियात्मक, आयुर्विज्ञान), जनसंचार, तथा संगीत एवं ललित कला। एेसे प्रयासों से फलदायी अनुसंधानों एवं अनुप्रयोगों को बढ़ावा मिला है।
मनोविज्ञान मात्र एेसी विद्याशाखा नहीं है जो केवल मानव व्यवहार के विषय में सैद्धांतिक ज्ञान का विकास करती है बल्कि विभिन्न स्तरों पर समस्याओं का समाधान करती है। मनोवैज्ञानिक विभिन्न परिस्थितियों में विविध क्रियाओं की सहायता के लिए नियुक्त होते हैं; जैसे- विद्यालय, चिकित्सालय, उद्योग, प्रशिक्षण संस्थान, सैन्य एवं सरकारी प्रतिष्ठान। इनमें बहुत से मनोवैज्ञानिक प्राइवेट प्रैक्टिस करते हैं तथा परामर्शदाता होते हैं।
समीक्षात्मक प्रश्न
व्यवहार क्या है? प्रकट एवं अप्रकट व्यवहार का उदाहरण दीजिए।
आप वैज्ञानिक मनोविज्ञान को मनोविज्ञान विद्याशाखा की प्रसिद्ध धारणाओं से कैसे अलग करेंगे?
मनोविज्ञान के विकास का संक्षिप्त रूप प्रस्तुत कीजिए।
वे कौन सी समस्याएँ होती हैं जिनके लिए मनोवैज्ञानिकों का अन्य विद्याशाखा के लोगों के साथ सहयोग लाभप्रद हो सकता है? किन्हीं दो समस्याओं की व्याख्या कीजिए।
अंतर कीजिए (अ) मनोवैज्ञानिक एवं मनोरोगविज्ञानी में, तथा (ब) परामर्शदाता एवं नैदानिक मनोवैज्ञानिक में।
दैनंदिन जीवन के कुछ क्षेत्रों का वर्णन कीजिए जहाँ मनोविज्ञान की समझ को अभ्यास रूप में लाया जा सके।
पर्यावरण के अनुकूल मित्रवत् व्यवहार को किस प्रकार उस क्षेत्र में ज्ञान द्वारा बढ़ाया जा सकता है?
अपराध जैसी महत्वपूर्ण सामाजिक समस्या का समाधान खोजने मे सहायता करने के लिए आपके अनुसार मनोविज्ञान की कौन सी शाखा सबसे उपयुक्त है। क्षेत्र की पहचान कीजिए एवं उस क्षेत्र में कार्य करने वाले मनोवैज्ञानिकों के सरोकारों की व्याख्या कीजिए।
परियोजना विचार
यह अध्याय मनोवज्ञान के क्षेत्र में अनेक उद्यमियों के विषय में बतलाता है। वर्गीकरणों में से किसी एक मनोवैज्ञानिक से संपर्क कीजिए एवं उस व्यक्ति का साक्षात्कार कीजिए। पहले से प्रश्नों की एक सूची तैयार रखिए। संभावित प्रश्न होंगे: (1) आपके कार्य विशेष के लिए किस प्रकार की शिक्षा आवश्यक है? (2) इस विद्याशाखा के अध्ययन के लिए आप किस महाविद्यालय/विश्वविद्यालय की सलाह देंगे? (3) क्या आपके कार्य-क्षेत्र में आजकल नौकरी के अधिक अवसर उपलब्ध हैं? (4) अपने लिए आपकी पसंद का अतिविशिष्ट कार्य दिवस कैसा-कैसा होगा - अथवा अतिविशिष्ट जैसी कोई चीज़ नहीं होती है? (5) इस तरह के कार्य में आने के लिए आपको कौन सी चीज़ ने अभिप्रेरित किया?
अपने साक्षात्कार की एक रिपोर्ट लिखिए तथा अपनी विशिष्ट प्रतिक्रियाओं को भी सम्मिलित कीजिए।
किसी पुस्तकालय अथवा पुस्तक की दुकान पर जाइए अथवा इंटरनेट पर देखिए कि कौन सी पुस्तक (कथा साहित्य/कथा साहित्य के अतिरिक्त अथवा फिल्म) मनोविज्ञान के अनुप्रयोग का संदर्भ देती है।
संक्षिप्त सारांश प्रस्तुत करते हुए एक रिपोर्ट तैयार कीजिए।